फागुन की फागुनिया लेकर, आया मधुमास!
|
---|
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
Linkbar
फ़ॉलोअर
रविवार, 31 जनवरी 2010
“आया मधुमास!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
शनिवार, 30 जनवरी 2010
“गांधी जी कहते हे राम!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
शुक्रवार, 29 जनवरी 2010
“बादल घने हैं” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
कभी कुहरा, कभी सूरज, कभी आकाश में बादल घने हैं। दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।। आसमां पर चल रहे हैं, पाँव के नीचे धरा है, कल्पना में पल रहे हैं, सामने भोजन धरा है, पा लिया सब कुछ मगर, फिर भी बने हम अनमने हैं। दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।। आयेंगे तो जायेंगे भी, जो कमाया खायेंगें भी, हाट मे सब कुछ सजा है, लायेंगे तो पायेंगे भी, धार निर्मल सामने है, किन्तु हम मल में सने हैं। दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।। देख कर करतूत अपनी, चाँद-सूरज हँस रहे हैं, आदमी को बस्तियों में, लोभ-लालच डस रहे हैं, काल की गोदी में, बैठे ही हुए सारे चने हैं। दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।। |
गुरुवार, 28 जनवरी 2010
“लगता है बसन्त आया है!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
टेसू की डालियाँ फूलतीं, खेतों में बालियाँ झूलतीं, लगता है बसन्त आया है! केसर की क्यारियाँ महकतीं, बेरों की झाड़ियाँ चहकती, लगता है बसन्त आया है! आम-नीम पर बौर छा रहा, प्रीत-रीत का दौर आ रहा, लगता है बसन्त आया है! सूरज फिर से है मुस्काया , कोयलिया ने गान सुनाया, लगता है बसन्त आया है! (यह चित्र सरस पायस से साभार) शिव का होता घर-घर वन्दन, उपवन में छाया स्पन्दन, लगता है बसन्त आया है! (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
बुधवार, 27 जनवरी 2010
“मौसम डूबा प्यार में” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
मंगलवार, 26 जनवरी 2010
“वरिष्ठ गणतन्त्र-दिवस” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
आज हमने मनाया इकसठवाँ गणतन्त्र फूँक दिया जन-मानस में वरिष्ठता का मन्त्र यह तन्त्र हो गया सेवा निवृत्त बाहर कर दिया परिधि से वृत्त नही कह पा रहे खुलकर शब्द हो रहे मौन हैं क्योंकि आज बुजुर्ग की मानता ही कौन है?? ( चित्र गूगल सर्च से साभार) |
सोमवार, 25 जनवरी 2010
“अपना गणतन्त्र महान!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
रविवार, 24 जनवरी 2010
“… …सूरज ने मुँहकी खाई!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
सूरज और कुहरा कुहरे और सूरज में,जमकर हुई लड़ाई। जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।। ज्यों ही सूरज अपनी कुछ किरणें चमकाता, लेकिन कुहरा इन किरणों को ढकता जाता, बासन्ती मौसम में सर्दी ने ली अँगड़ाई। जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।। साँप-नेवले के जैसा ही युद्ध हो रहा, कभी सूर्य और कभी कुहासा क्रुद्ध हो रहा, निर्धन की ठिठुरन से होती हाड़-कँपाई। जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।। कुछ तो चले गये दुनिया से, कुछ हैं जाने वाले, ऊनी वस्त्र कहाँ से लायें, जिनको खाने के लाले, सुरसा के मुँह सी बढ़ती ही जाती है मँहगाई। जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।। |
शनिवार, 23 जनवरी 2010
“नवगीत” (ड़ॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”
छा रहा मधुमास में, कुहरा घना है। दिन दुपहरी में दिवाकर अनमना है। रश्मियों के शाल की आराधना है। छा रहा मधुमास में कुहरा घना है।। सेंकता है आग फागुन में बुढ़ापा, चन्द्रमा ने ओढ़ ली मोटी रजाई, खिल नही पाया चमन ऋतुराज में, टेसुओं ने भी नही रंगत सजाई, कोप सर्दी का हवाओं में बना है। छा रहा मधुमास में कुहरा घना है।। |
शुक्रवार, 22 जनवरी 2010
"सच्चे दोहे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
बुधवार, 20 जनवरी 2010
""शारदे जग का करो उद्धार!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
बन्द ना हो जायें माँ के द्वार!
|
मंगलवार, 19 जनवरी 2010
“वन्दना वीणा-पाणि की पढ़ता रहा!” (ड़ॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
वन्दना वीणा-पाणि की पढ़ता रहा।।
|
सोमवार, 18 जनवरी 2010
“बूढ़ा हो रहा बचपन है?” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
कुहासे की सफेद चादर मौसम ने ओढ़ ली ठिठुरन से मित्रता भास्कर ने जोड़़ ली निर्धनता खोज रही है आग के अलाव किन्तु लकड़ियों के ऊँचे हैं भाव ठण्ड से काँप रहा है कोमल तन कूड़े में से पन्नियाँ बीन रहा है बचपन इसके बाद वो इन्हें बाजार में बेचेगा फिर जंगल में जाकर लकड़िया बीनेगा तब कहीं उसके घर में चूल्हा जलेगा पेट की आग तो बुझ जायेगी मगर बदन तो ठण्डा ही रहेगा थोड़े दिन में कुहरा छँट जायेगा सूरज अपने असली रूप में आयेगा फिर छायेगी होली की मस्ती दिन मे आयेगी तन में सुस्ती सर्दी में कम्पन गर्मी में पसीना सहना मजबूरी है क्योंकि दाल-रोटी का जुगाड़ भी तो जरूरी है क्या इसी का नाम जीवन है? क्या बूढ़ा हो रहा बचपन है? |
रविवार, 17 जनवरी 2010
“विदेश-यात्रा” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
आज अचानक बन गया एक संयोग घर में आ गये कुछ परिचित लोग विदेश-यात्रा का बन गया कार्यक्रम कार में बैठ गये उनके साथ हम कुछ रुपये जेब में लिए डाल आनन-फानन में पहुँच गये नेपाल सामने दिखाई दिया एक शहर नाम था उसका महेन्द्रनगर वहाँ बहुत थे आलीशान मकान एक खोके में थी चाय की दुकान दुकान में अजीब नजारा था रंगीन बोतलों का शरारा था गर्म चाय थी लिबासों में ठण्डी चाय थी गिलासों में हर दूकान पर थी एक बाला उडेल रही थी रूप की हाला यह देखकर मन में हुआ मलाल और अपने देश का आया ख्याल पश्चिम की होड़ में सभ्यता की दौड़ में हम भले ही पिछड़े हैं लेकिन चरित्र में हम आज भी अगड़े हैं। |
शनिवार, 16 जनवरी 2010
“मन सुमन की गन्ध को पहचानता है।” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
आइना छल और कपट को जानता है। मन सुमन की गन्ध को पहचानता है।। झूठ, मक्कारी, फरेबी फल रही, भेड़ियों को भेड़ बूढ़ी छल रही, जुल्म कब इंसानियत को मानता है। मन सुमन की गन्ध को पहचानता है।। पिस रहा खुद्दार है, सुख भोगता गद्दार है, बदले हुए हालात में गुम हो गया किरदार है, बाप पर बेटा दुनाली तानता है। मन सुमन की गन्ध को पहचानता है।। बेसुरा सुर साज से आने लगा, पेड़ अपने फल स्वयं खाने लगा, भाई से तकरार भाई ठानता है। मन सुमन की गन्ध को पहचानता है।। |
शुक्रवार, 15 जनवरी 2010
"सब्जी-मण्डी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
गुरुवार, 14 जनवरी 2010
सुरेन्द्र "मुल्हिद" की एक ग़ज़ल (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
surender chawla मुझे
शास्त्री जी,
आपके चरणों में सादर प्रणाम अर्पण करता हूँ, जब से मालूम चला है की आपकी रचनाएँ कोई चोरी कर के अपने ब्लॉग पर लगा रहा है, तब से ही मैं सोच रहा हूँ की कैसे शब्दों को कागज़ पे उतार के अपनी वेदना का व्याख्यान करूँ!
सुरेन्द्र "मुल्हिद"
- Age: 30
- Gender: Male
- Astrological Sign: Virgo
- Zodiac Year: Sheep
- Industry: Telecommunications
- Occupation: head-change management
- Location: gurgaon : haryana : India
- Blog: my own creation
शास्त्री जी,
ब्लॉग चोरी के खिलाफ मुहिम में मैं आपके साथ हूँ, और इसी लिए अपनी एक तुच्छ रचना आपके उच्चारण के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ!
आशा करता हूँ आपके सभी प्रशंसकों को पसंद आएगी!
आभार!
सुरेन्द्र "मुल्हिद" पेश है: "ये कोई क्या कर के चलता बना" कितनी शिद्दत से मैंने कुछ आफ्रीनिशें(१) लिखीं, कोई और उन्हें अपना बना के चलता बना, गम्माज्गिरी(२) मेरे सीने में कर के वो, गोया ही अपना बना के चलता बना, न जाने कितने गहरे सोच के पुलिंदे बांधे, कोई डाकिया बने उन्हें समेट चलता बना, उसकी रूह को भी ख़याल-इ-पारसाई(३) न रहा, बे-गैरती में अपना ब्लॉग सजा के चलता बना, मेरी नज्में जो मेरे सजदों की हर पल जानिब हैं, वो बे-परवाह खुदा से दीगर(४) कर चलता बना, दुआ करता हूँ उसकी ईमाँ से वस्ल(५) मुक़र्रर हो, जो खुद को ही दग़ा दे के यूँ चलता बना! (१) रचनाएँ (२) छुरा भोंकना (३) आत्म सम्मान का ख्याल (४) दूर (५) मुलाकात ************************************** शुक्रिया!
बुधवार, 13 जनवरी 2010
“गजल के उदगार ढो रहे हैं।” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
"चुरा लीजिए नटवरलाल! लाया हूँ मैं ताजा माल!!"
|
सोमवार, 11 जनवरी 2010
“ठहर गया जन-जीवन” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
कुहरे की फुहार से ठहर गया जन-जीवन शीत की मार से काँप रहा मन और तन माता जी लेटी हैं ओढ़कर रजाई काका ने तसले में लकड़ियाँ सुलगाई गलियाँ हैं सूनी सड़कें वीरान हैं टोपों से ढके हुए लोगों के कान हैं खाने में खिचड़ी मटर का पुलाव है जगह-जगह जल रहे आग के अलाव है राजनीतिक भिक्षुओं के भरे हुए पेट हैं जमाखोरी करके लोग बन गये सेठ हैं विलम्बित उड़ाने हैं ट्रेन सभी लेट हैं ठण्डक से दिनचर्या हुई मटियामेट है मँहगाई की आग में सेंकते रहो बदन कुहरे की फुहार से ठहर गया जन-जीवन |
रविवार, 10 जनवरी 2010
“अब बसन्त आयेगा” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
|
शनिवार, 9 जनवरी 2010
"हो गया क्यों देश ऐसा ?" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
देख कर परिवेश ऐसा।
हो गया क्यों देश ऐसा ??
लग रहा चीत्कार सा है।
षट्पदों का गीत गाना ,
आज हा-हा कार सा है।
गीत उर में रो रहे हैं,
शब्द सारे सो रहे हैं,
देख कर परिवेश ऐसा।
हो गया क्यों देश ऐसा ??
सुमन हर एक प्यारा,
विश्व सारा एक स्वर से,
गीत गाता था हमारा,
कट गये सम्बन्ध प्यारे,
मिट गये अनुबन्ध सारे ,
देख कर परिवेश ऐसा।
हो गया क्यों देश ऐसा ??
स्वदेशी हो गया है ?
रक्त क्यों अपना,
विदेशी हो गया है ?
पन्थ है कितना घिनौना,
हो गया इन्सान बौना,
देख कर परिवेश ऐसा।
हो गया क्यों देश ऐसा ??
पावस लग रही है ,
चाँदनी फिर क्यों,
अमावस लग रही है ?
शस्त्र लेकर सन्त आया,
प्रीत का बस अन्त आया,
देख कर परिवेश ऐसा।
हो गया क्यों देश ऐसा ??
शुक्रवार, 8 जनवरी 2010
"हम हृदय में प्यार लेकर आ रहे हैं।" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
प्रीत और मनुहार लेकर आ रहे हैं। |
गाँव का होने लगा शहरीकरण, |
मत प्रदूषित ताल में गोता लगाना, |
जिन्दगी में फिर बहारें आयेंगी, |
लोकप्रिय पोस्ट
-
दोहा और रोला और कुण्डलिया दोहा दोहा , मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) मे...
-
लगभग 24 वर्ष पूर्व मैंने एक स्वागत गीत लिखा था। इसकी लोक-प्रियता का आभास मुझे तब हुआ, जब खटीमा ही नही इसके समीपवर्ती क्षेत्र के विद्यालयों म...
-
नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
-
समास दो अथवा दो से अधिक शब्दों से मिलकर बने हुए नए सार्थक शब्द को कहा जाता है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि ...
-
आज मेरे छोटे से शहर में एक बड़े नेता जी पधार रहे हैं। उनके चमचे जोर-शोर से प्रचार करने में जुटे हैं। रिक्शों व जीपों में लाउडस्पीकरों से उद्घ...
-
इन्साफ की डगर पर , नेता नही चलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा , उस ओर जा मिलेंगे।। दिल में घुसा हुआ है , दल-दल दलों का जमघट। ...
-
आसमान में उमड़-घुमड़ कर छाये बादल। श्वेत -श्याम से नजर आ रहे मेघों के दल। कही छाँव है कहीं घूप है, इन्द्रधनुष कितना अनूप है, मनभावन ...
-
"चौपाई लिखिए" बहुत समय से चौपाई के विषय में कुछ लिखने की सोच रहा था! आज प्रस्तुत है मेरा यह छोटा सा आलेख। यहाँ ...
-
मित्रों! आइए प्रत्यय और उपसर्ग के बारे में कुछ जानें। प्रत्यय= प्रति (साथ में पर बाद में)+ अय (चलनेवाला) शब्द का अर्थ है , पीछे चलन...
-
“ हिन्दी में रेफ लगाने की विधि ” अक्सर देखा जाता है कि अधिकांश व्यक्ति आधा "र" का प्रयोग करने में बहुत त्र...