कुहासे की सफेद चादर मौसम ने ओढ़ ली ठिठुरन से मित्रता भास्कर ने जोड़़ ली निर्धनता खोज रही है आग के अलाव किन्तु लकड़ियों के ऊँचे हैं भाव ठण्ड से काँप रहा है कोमल तन कूड़े में से पन्नियाँ बीन रहा है बचपन इसके बाद वो इन्हें बाजार में बेचेगा फिर जंगल में जाकर लकड़िया बीनेगा तब कहीं उसके घर में चूल्हा जलेगा पेट की आग तो बुझ जायेगी मगर बदन तो ठण्डा ही रहेगा थोड़े दिन में कुहरा छँट जायेगा सूरज अपने असली रूप में आयेगा फिर छायेगी होली की मस्ती दिन मे आयेगी तन में सुस्ती सर्दी में कम्पन गर्मी में पसीना सहना मजबूरी है क्योंकि दाल-रोटी का जुगाड़ भी तो जरूरी है क्या इसी का नाम जीवन है? क्या बूढ़ा हो रहा बचपन है? |
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सोमवार, 18 जनवरी 2010
“बूढ़ा हो रहा बचपन है?” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
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जवाब देंहटाएंएक सुंदर भाव व्यक्त करती हुई सामाजिक कविता..बधाई हो!!
यह जीवन है ।इस जीवन का यही है रंग - रूप !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना....
जवाब देंहटाएंजो लोग इन स्थितियों के लिए ज़िम्मेदार है उन्हे इस बात की कोई फिक्र नही है । सार्थक रचना है यह ।
जवाब देंहटाएंडॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक” जी नमस्कार
जवाब देंहटाएंआपकी रचना
“बूढ़ा हो रहा बचपन है?”
पढ़ी एक दम सत्य के धरातल पर लिखी रचना बेहद हृदय स्पर्शी है.
वो पंकितियाँ जो मुझे सबसे अच्छी लगीं:-
सर्दी में कम्पन
गर्मी में पसीना
सहना मजबूरी है
क्योंकि
दाल-रोटी का
जुगाड़ भी तो
जरूरी है
मन को झंकृत करने वाली रचना के लिए बधाई.
- विजय तिवारी 'किसलय'
Sochne ko majboor karti bahut hi sundar rachna...
जवाब देंहटाएंAabhar !!!
सच है।
जवाब देंहटाएंlajawaab kavita .......zindagi ki sachchaiyon ko udhedti huyi .........kitni saralta se hakikat bayan kar di.
जवाब देंहटाएंwaakai sochne wali baat hai...kya boodha ho raha hai bachpann!!
जवाब देंहटाएं"मर्मस्पर्शी रचना!"
जवाब देंहटाएं--
मिलत, खिलत, लजियात ... ... ., कोहरे में भोर हुई!
लगी झूमने फिर खेतों में, ओंठों पर मुस्कान खिलाती!
--
संपादक : सरस पायस