जाल-जगत पर जाने कितने, उच्चारण होते होंगे। रचनाओं में जाने कितने, शब्दों को ढोते होंगे। लेख, कथा, नाटक से और कुछ काव्य-कुंज संधानों से, चुन-चुनकर उन्नत बीजों को धरती पर बोते होंगे। वन्दन और चन्दन दोनों का जब तक होगा मेल नही। बिन कोल्हू में पिसे तिलों से, कभी निकलता तेल नही। तन भी महके, मन भी चहके ऐसा कोई विधान करो, शब्द-साधना करना कोई चरवाहों का खेल नही। |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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मंगलवार, 31 अगस्त 2010
“दो मुक्तक” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
सोमवार, 30 अगस्त 2010
"स्वतन्त्रता का नारा है बेकार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
जिस उपवन में पढ़े-लिखे हों रोजी को लाचार। उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।। जिनके बंगलों के ऊपर, बेखौफ ध्वजा लहराती, रैन-दिवस चरणों को जिनके, निर्धन सुता दबाती, जिस आँगन में खुलकर होता सत्ता का व्यापार। उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।। मुस्टण्डों को दूध-मखाने, बालक भूखों मरते, जोशी, मुल्ला, पीर, नजूमी, दौलत से घर भरते, भोग रहे सुख आजादी का, बेईमान मक्कार। उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।। गूँज रहीं हैं द्वारे-द्वारे, बेटों की किलकारी, सूखी रोटी खाकर पलतीं, ललनाएँ बेचारी, भेद-भाव बेटा-बेटी में, भेद भरा है प्यार। उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।। |
रविवार, 29 अगस्त 2010
"करते-करते यजन, हाथ जलने लगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
करते-करते भजन, स्वार्थ छलने लगे। करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। झूमती घाटियों में, हवा बे-रहम, घूमती वादियों में, हया बे-शरम, शीत में है तपन, हिम पिघलने लगे। करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। उम्र भर जख्म पर जख्म खाते रहे, फूल गुलशन में हरदम खिलाते रहे, गुल ने ओढ़ी चुभन, घाव पलने लगे। करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। हो रहा हर जगह, धन से धन का मिलन, रो रहा हर जगह, भाई-चारा अमन, नाम है आचमन, जाम ढलने लगे। करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। |
शनिवार, 28 अगस्त 2010
“आज का समय” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
आज समय का, कुटिल - चक्र चल निकला है। संस्कार का दुनिया भर में, दर्जा सबसे निचला है।। नैतिकता के स्वर की लहरी मंद हो गयी। इसीलिए नूतन पीढ़ी, स्वच्छन्द हो गयी।। अपनी गलती को कोई स्वीकार नही करता है। अपने दोष, सदा औरों के माथे पर धरता है।। सबके अपने नियम और सबका अन्दाज निराला है। बिके हुए हर नेता के मुँह पर तो लटका ताला है।। पत्रकार का मतलब था, निष्पक्ष और विद्वान-सुभट। नये जमाने में इसकी, परिभाषाएँ सब गई पलट।। नटवर लाल मीडिया पर, छा रहे बलात् बाहुबल से। गाँव शहर का छँटा हुआ, अब जुड़ा हुआ है चैनल से।। गन्दे नालों और नदियों की, बहती है अविरल धारा। नहाने वाले पर निर्भर है, उसको क्या लगता प्यारा?? |
“… ..नमन है नमन!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
खूब सींचा जिन्होंने लहू से चमन, उन शहीदों को मेरा नमन है नमन। दिल में आजाद भारत की तसबीर थी, दोनों हाथों में दोधारी शमशीर थी, कुछ के लब पे अहिंसा की ताबीर थी, कितने वीरों ने कुर्बान की जान-ओ-तन। उन शहीदों को मेरा नमन है नमन।। कण्ठ पर कौम के थे तराने सजे, साधुओं-सूफियों के थे गाने बजे, नौजवानों ने अपने ठिकाने तजे, धर्मनिरपेक्ष होकर बचाया वतन। उन शहीदों को मेरा नमन है नमन।। मेरे आजाद भारत को अब देखिए, हो रहे कत्ल हैं बेसबब देखिए, अब नई नस्ल को बेअदब देखिए, कैसे आ पायेगा मुल्क में अब अमन। उन शहीदों को मेरा नमन है नमन।। क्या थे कल और क्या आज हम हो गये, देश के लाल गुदड़ी में फिर खो गये, दिन दहाड़े सजग सन्तरी सो गये, हो गया भाई-चारा यहाँ अब दफन। उन शहीदों को मेरा नमन है नमन।। |
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
“मैं कब-कब पागल होता हूँ?” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
जब मन्दिर-मस्जिद जलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ। जब जूते - चप्पल चलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।। त्योहारों की परम्परा में, जो मज़हब को लाये, दंगों के शोलों में, जम कर घासलेट छिड़काये, जब भाषण आग उगलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ। जब जूते-चप्पल चलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।। कूड़ा-कचरा बीन-बीन जो, रोजी कमा रहे हैं, पढ़ने-लिखने की आयु में, जीवन गँवा रहे हैं, जब भोले बचपन ढलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ। जब जूते - चप्पल चलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।। दर्द-दर्द है जिसको होता, वो ही उसको जाने, जिसको कभी नही होता, वो क्या उसको पहचाने, जब सर्प बाँह में पलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ। जब जूते - चप्पल चलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।। |
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
“मेरा बचपन” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
जब से उम्र हुई है पचपन। फिर से आया मेरा बचपन।। पोती-पोतों की फुलवारी, महक रही है क्यारी-क्यारी, भरा हुआ कितना अपनापन। फिर से आया मेरा बचपन।। इन्हें मनाना अच्छा लगता, कथा सुनाना अच्छा लगता, भोला-भाला है इनका मन। फिर से आया मेरा बचपन।। मुन्नी तुतले बोल सुनाती, मिश्री कानों में घुल जाती, चहक रहा जीवन का उपवन। फिर से आया मेरा बचपन।। बादल जब जल को बरसाता, गलियों में पानी भर जाता, गीला सा हो जाता आँगन। फिर से आया मेरा बचपन।। कागज की नौका बन जाती, कभी डूबती और उतराती, ढलता जाता यों ही जीवन। फिर से आया मेरा बचपन।। |
बुधवार, 25 अगस्त 2010
"अतिवृष्टि" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
सोमवार, 23 अगस्त 2010
“मैंने बहुत निभाया उनको” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
डायरी के पुराने पन्नों से कितना समय व्यतीत हो गया, समझ नही पाया मैं उनको। निभा नही पाये वो मुझको, मैंने बहुत निभाया उनको।। चमकीले खोटे सिक्के को मैंने उपयोगी जाना था, बिन जाने और पहचाने ही, अपना सहयोगी माना था, मेहनत से जो कुछ उपजाया, मैंने वही खिलाया उनको। निभा नही पाये वो मुझको, मैंने बहुत निभाया उनको।। शर्तों की राहों पर चलकर, मैंने माना अनुबन्धों को, मक्कारी से पंखा झलकर, उसने तोड़ा सम्बन्धों को, जब-जब भी दुत्कारा मुझको, मैंने था अपनाया उनको। निभा नही पाये वो मुझको, मैंने बहुत निभाया उनको।। जब भी डगमग पग होते थे, मैं देता था उन्हें सहारा, मैं दुखमोचन बन जाता था, जब भी उसने मुझे पुकारा, पथ पर संभल-संभलकर चलना, मैंने ही सिखलाया उनको। निभा नही पाये वो मुझको, मैंने बहुत निभाया उनको।। |
रविवार, 22 अगस्त 2010
“… ..अच्छी नहीं लगती!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
वफा और प्यार की बातें, किसे अच्छी नहीं लगतीं। तपन के बाद बरसातें, किसे अच्छी नहीं लगतीं। मिलन होता जहाँ बिछड़ी हुई, कुछ आत्माओं का, सुहानी चाँदनी रातें, किसे अच्छी नहीं लगतीं।। ---000--- गुलो-गुलशन की बरबादी, हमें अच्छी नहीं लगती। वतन की बढ़ती आबादी, हमें अच्छी नहीं लगती। जुल्म का सामना करने को, जिसको ढाल माना था- सितम करती वही खादी, हमें अच्छी नहीं लगती।। ---000--- |
शनिवार, 21 अगस्त 2010
"अमरूद" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
"... ..उनको मेरा नमन!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
जो हैं कोमल-सरल उनको मेरा नमन। जो घमण्डी हैं उनका ही होता पतन।। पेड़ अभिमान में थे अकड़ कर खड़े, एक झोंके में वो धम्म से गिर पड़े, लोच वालो का होता नही है दमन। जो घमण्डी हैं उनका ही होता पतन।। सख्त चट्टान पल में दरकने लगी, जल की धारा के संग में लुढ़कने लगी, छोड़ देना पड़ा कंकड़ों को वतन। जो घमण्डी हैं उनका ही होता पतन।। घास कोमल है लहरा रही शान से, सबको देती सलामी बड़े मान से, आँधी तूफान में भी सलामत है तन। जो घमण्डी हैं उनका ही होता पतन।। (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
“देश की स्वतन्त्रता” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
खल रही विदेश को, देश की स्वतन्त्रता। छल रही है देश को, देश की स्वतन्त्रता।। खा रहे हैं देश की, गा रहे विदेश की, खिल्लियाँ उड़ा रहे हैं, भारतीय वेश की, संभल रही है दासता, पिघल रही स्वतन्त्रता। छल रही है देश को, देश की स्वतन्त्रता।। बेड़ियाँ पड़ीं हैं, देवनागरी के पाँव में, सिसक रहे सपूत, आतताइयों के गाँव में, चल रही सरक-सरक के, देश की स्वतन्त्रता। छल रही है देश को, देश की स्वतन्त्रता।। चूना भी वही है और, पानदान भी वही, बागडोर जिनके हाथ, खानदान भी वही, ढल रही शबाब में, स्वदेश की स्वतन्त्रता। छल रही है देश को, देश की स्वतन्त्रता। |
बुधवार, 18 अगस्त 2010
"मेरे दोहे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
मन है मन्दिर ईश का, रहते हैं भगवान। कण-कण में जो रम रहा, वो ही तो है राम।। मन की और मस्तिष्क की,गाथा बहुत विचित्र। मस्तक करता है मनन, मन का भिन्न चरित्र।। जिनको फूलों ने दिये, जख्म हजारों बार। काँटों पर उनको भला, कैसे हो एतबार।। अपने भारत देश में, भाँति-भाँति के लोग। कुछ अपनाते योग को, कुछ अपनाते भोग।। झूठे आँसू आँख से, बहा रहे घड़ियाल। नेता माला-माल हैं, जनता है कंगाल।। सीधे-सादे जीव का, चारा ही था घास। नेता इनको चरे गये, गदहे भये उदास।। जिनके बँगलों में रहें, सुन्दर-सुन्दर श्वान। उनको कैसे भायेंगे, निर्धन,श्रमिक,किसान।। |
मंगलवार, 17 अगस्त 2010
"...गीत गाते हैं जब.." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
छन्द आते नहीं, भाव आते हैं जब। भाव आते नहीं, गीत गाते हैं जब।। देखने मेह को जब गये खेत में, बूँद बारिश की गुम हो गई रेत में, मीत आते नही, हम बुलाते हैं जब। भाव आते नहीं, गीत गाते हैं जब।। दिल धड़कता बहुत, मखमली बात में, मन फड़कता बहुत, नेह-जज्बात में, गुनगुनाते नही, पास आते हैं जब। भाव आते नहीं, गीत गाते हैं जब।। मुस्कराते तो हैं, खिलखिलाते नहीं, टिमटिमाते तो हैं, जगमगाते नहीं, स्वप्न जाते नहीं, याद आते हैं जब। भाव आते नहीं, गीत गाते हैं जब।। |
रविवार, 15 अगस्त 2010
“अपनी आजादी” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
शनिवार, 14 अगस्त 2010
“वन्दना : स्वर-अर्चना चावजी” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
सरस्वती वन्दना मेरी गंगा भी तुम, और यमुना भी तुम, तुम ही मेरे सकल काव्य की धार हो। जिन्दगी भी हो तुम, बन्दगी भी हो तुम,गीत-गजलों का तुम ही तो आधार हो। मुझको जब से मिला आपका साथ है, शह मिली हैं बहुत, बच गईं मात है, तुम ही मझधार हो, तुम ही पतवार हो।गीत-गजलों का तुम ही तो आधार हो।। बिन तुम्हारे था जीवन बड़ा अटपटा, पेड़ आँगन का जैसे कोई हो कटा, तुम हो अमृत घटा तुम ही बौछार हो।गीत-गजलों का तुम ही तो आधार हो।। तुम महकता हुआ शान्ति का कुंज हो, जड़-जगत के लिए ज्ञान का पुंज हो, मेरे जीवन का सुन्दर सा संसार हो। गीत-गजलों का तुम ही तो आधार हो।। तुम ही हो वन्दना, तुम ही आराधना, दीन साधक की तुम ही तो हो साधना, तुम निराकार हो, तुम ही साकार हो।गीत-गजलों का तुम ही तो आधार हो।। आस में हो रची साँस में हो बसी, गात में हो रची, साथ में हो बसी, विश्व में ज्ञान का तुम ही भण्डार हो।गीत-गजलों का तुम ही तो आधार हो।। |
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
मेरे प्यारे वतन (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
मेरे पति (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक") ने स्वाधीनता-दिवस पर यह गीत लिखा था। इसे मैं अपनी आवाज में प्रस्तुत कर रही हूँ- श्रीमती अमर भारती मेरे प्यारे वतन, जग से न्यारे वतन। मेरे प्यारे वतन, ऐ दुलारे वतन।। अपने पावों को रुकने न दूँगा कहीं, मैं तिरंगे को झुकने न दूँगा कहीं, तुझपे कुर्बान कर दूँगा मैं जानो तन। मेरे प्यारे वतन, ऐ दुलारे वतन।। जन्म पाया यहाँ, अन्न खाया यहाँ, सुर सजाया यहाँ, गीत गाया यहाँ, नेक-नीयत से जल से किया आचमन। मेरे प्यारे वतन, ऐ दुलारे वतन।। तेरी गोदी में पल कर बड़ा मैं हुआ, तेरी माटी में चल कर खड़ा मैं हुआ, मैं तो इक फूल हूँ तू है मेरा चमन। मेरे प्यारे वतन, ऐ दुलारे वतन।। स्वप्न स्वाधीनता का सजाये हुए, लाखों बलिदान माता के जाये हुए, कोटि-कोटि हैं उनको हमारे नमन। मेरे प्यारे वतन, ऐ दुलारे वतन।। जश्ने आजादी आती रहे हर बरस, कौम खुशियाँ मनाती रहे हर बरस, देश-दुनिया में हो बस अमन ही अमन। मेरे प्यारे वतन, ऐ दुलारे वतन।। |
बुधवार, 11 अगस्त 2010
“दोहावली” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
(1) गौतम, गांधी, बोस की, हैं सच्ची तस्वीर। नन्हे सुमन जगायेंगे, भारत की तकदीर।। (2) बेरंग होने में सदा, आता है आनन्द। झंझावातो में भला, किसे सुहाते रंग।। (3) हँसने से कट जायंगे, सारे दिल के रोग। तन-मन को भोजन मिले, काया रहे निरोग।। (4) धन के स्वामी हो गये, अपने धन के दास। लोग पुरातन सभ्यता, का कर रहे विनाश।। (5) कैसे तुम्हें भुलाउँगा,ओ मेरे मनमीत। प्रतिदिन तेरी याद में, मैं लिखता हूँ गीत।। (6) भोले पक्षी छिप गये, खुले घूमते बाज़। पढ़े-लिखे नौकर हुए, आया जंगल राज।। (7) गुलशन माली का रहा, युगों-युगों से संग। बिन माली के वाटिका, हो जाती बेरंग।। |
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
“अपना पुराना गीत सुनने का मन है” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
"बादल" शीर्षक से यह गीत लिखा था। इसे मैं अपनी आवाज में प्रस्तुत कर रही हूँ- श्रीमती अमर भारती बड़ी हसरत दिलों में थी, गगन में छा गये बादल। हमारे गाँव में भी आज, चल कर आ गये बादल।। गरज के साथ आयें हैं, बरस कर आज जायेंगे, सुहानी चल रही पुरवा, सभी को भा गये बादल। हमारे गाँव में भी आज, चल कर आ गये बादल।। धरा में जो दरारें थी, मिटी बारिश की बून्दों से, किसानों के मुखौटो पर, खुशी चमका गये बादल। हमारे गाँव में भी आज, चल कर आ गये बादल।। पवन में मस्त होकर, धान लहराते फुहारों में, पहाड़ों से उतर कर, मेह को बरसा गये बादल। हमारे गाँव में भी आज, चल कर आ गये बादल।। |
सोमवार, 9 अगस्त 2010
“बादल” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
कहीं-कहीं छितराये बादल, कहीं-कहीं गहराये बादल। काले बादल, गोरे बादल, अम्बर में मँडराये बादल। उमड़-घुमड़कर, शोर मचाकर, कहीं-कहीं बौराये बादल। भरी दोपहरी में दिनकर को, चादर से ढक आये बादल। खूब खेलते आँख-मिचौली, ठुमक-ठुमककर आये बादल। दादुर, मोर, पपीहा को तो, मेघ-मल्हार सुनाये बादल। जिनके साजन हैं विदेश में, उनको बहुत सताये बादल। |
रविवार, 8 अगस्त 2010
“हमको आपने भारत पे नाज़ है” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
धर्मनिरपेक्ष राज-काज है। जनता का जनता पे राज है। हमको अपने भारत पे नाज़ है।। नीलकण्ठ गंगा सवाँरता, चरणों को सागर पखारता, सिर पर हिमालय का ताज है। हमको अपने भारत पे नाज़ है।। मस्जिद में गूँजती अजान हैं, मन्दिरों में राम और श्याम हैं, एकता परोसता समाज है। हमको अपने भारत पे नाज़ है।। पूजनीय लाल, बाल, पाल हैं, वन्दनीय माता के लाल हैं, जिन्होंने बचाई माँ की लाज है। हमको अपने भारत पे नाज़ है।। |
शनिवार, 7 अगस्त 2010
“आया है चौमास!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
खेतों में हरियाली लेकर आया है चौमास! जीवन में खुशहाली लेकर आया है चौमास!! सन-सन, सन-सन चलती पुरुवा, जिउरा लेत हिलोर, इन्द्रधनुष के रंग देखकर, नाचे मनका मोर, पकवानों की थाली लेकर आया है चौमास! जीवन में खुशहाली लेकर आया है चौमास!! झूले ने उपवन चहकाया, महका है परिवेश, सावन के गीतों ने गाया, मिलने का सन्देश, चोटी, बिन्दी, लाली लेकर आया है चौमास! जीवन में खुशहाली लेकर आया है चौमास!! सूरज आँख-मिचौली करता, श्याम घटा के संग, तालाबों में कमल खिले हैं, भरकर नूतन रंग, नभ में बदली काली लेकर आया है चौमास! जीवन में खुशहाली लेकर आया है चौमास!! |
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
“अपना-अपना भाग्य” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
खिल रहे हैं चमन में हजारों सुमन, भाग्य कब जाने किस का बदल जायेगा! कोई श्रृंगार देवों का बन जायेगा, कोई जाकर के माटी में मिल जायेगा!! कोई यौवन में भरकर हँसेगा कहीं, कोई खिलने से पहले ही ढल जायेगा! कोई अर्थी पे होगा सुशोभित कहीं, कोई पूजा की थाली में इठलायेगा! हार पुष्पांजलि का बनेगा कोई, कोई जूड़े में गोरी के गुँथ जायेगा! |
बुधवार, 4 अगस्त 2010
“मेरे कुछ दोहे” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
(1) जाति-पाँति के जाल में, जकड़ा अपना देश। आरक्षण की आड़ में, बिगड़ रहा परिवेश।। (2) जूता केवल पाँव में, पाता है सम्मान। जूता जब सिर पर चढ़े, कर देता अपमान।। (3) दूल्हा-दुल्हिन में रहे, सौ वर्षों तक प्यार। सप्तपदी हो सार्थक, जीवन का आधार।। (4) भगदड़ दुनिया में मची, मारा-मारी होय। क्रूर-काल के चक्र से, नही अछूता कोय।। (5) दस्तक देती मौत को, रोक सका नही कोय। ऐसी धरती है कहाँ, मृत्यु जहाँ नही होय।। (6) रिमझिम सावन बरसता, पुरवाई का जोर। मक्का की सोंधी महक, फैली है चहुँ ओर।। (7) ब्रह्मा जी ने रच दिए, अलग-अलग आकार। किन्तु एक ही रूप के, रचता पात्र कुम्हार।। (8) वर्तमान जो आज है, कल हो जाए अतीत। कालचक्र के चक्र में, जीवन हुआ व्यतीत।। (9) धवल चन्द्रमा में लगे, कुछ काले से दाग। क्रोधित सूरज हो रहा, उगल रहा है आग।। (10) पढ़-लिखकर ज्ञानी बने, सीखा जीवन मर्म। जगत नियन्ता जानता, क्या है धर्म-अधर्म।। |
मंगलवार, 3 अगस्त 2010
“अतीत” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
सोमवार, 2 अगस्त 2010
“कैसी है यह लाचारी?” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
पढ़े-लिखों पर खादी भारी! कैसी है यह लाचारी? छिपी हुई खाकी वर्दी में, दुनियाभर की मक्कारी! बदल गये हैं मानक सारे, बदल गईं हैं परिभाषा, गांधी को मुँह चिढ़ा रही है, खुद उनकी ही अभिलाषा, गोरे चले गए भारत से, कालों की दहशत जारी! पढ़े-लिखों पर खादी भारी! कैसी है यह लाचारी? छिपी हुई खाकी वर्दी में, दुनियाभर की मक्कारी! मेजबान जिनको होना था, वो सारे मेहमान हो गये, सत्ता की भागीदारी में, शामिल सब शैतान हो गये, सहमें-सहमें से हैं साधू, चोरों की नम्बरदारी! पढ़े-लिखों पर खादी भारी! कैसी है यह लाचारी? छिपी हुई खाकी वर्दी में, दुनियाभर की मक्कारी! सोन-चिड़ैय्या भागी घर से, स्विटजर में यह छिपी पड़ी है, चील और कौओं के डर से, इसीलिए तो निर्धनता की, फैल रही है बीमारी! पढ़े-लिखों पर खादी भारी! कैसी है यह लाचारी? छिपी हुई खाकी वर्दी में, दुनियाभर की मक्कारी! |
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