खल रही विदेश को, देश की स्वतन्त्रता। छल रही है देश को, देश की स्वतन्त्रता।। खा रहे हैं देश की, गा रहे विदेश की, खिल्लियाँ उड़ा रहे हैं, भारतीय वेश की, संभल रही है दासता, पिघल रही स्वतन्त्रता। छल रही है देश को, देश की स्वतन्त्रता।। बेड़ियाँ पड़ीं हैं, देवनागरी के पाँव में, सिसक रहे सपूत, आतताइयों के गाँव में, चल रही सरक-सरक के, देश की स्वतन्त्रता। छल रही है देश को, देश की स्वतन्त्रता।। चूना भी वही है और, पानदान भी वही, बागडोर जिनके हाथ, खानदान भी वही, ढल रही शबाब में, स्वदेश की स्वतन्त्रता। छल रही है देश को, देश की स्वतन्त्रता। |
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गुरुवार, 19 अगस्त 2010
“देश की स्वतन्त्रता” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
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बहुत सुन्दर.....स्वतंत्रता के दोनों जगह माइने बदल जाते हैं .
जवाब देंहटाएंआप की रचना 20 अगस्त, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंढल रही शबाब में, स्वदेश की स्वतन्त्रता।
छल रही है देश को, देश की स्वतन्त्रता।
बड़ी ही सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना धन्यवाद जी
जवाब देंहटाएंbahut sundar rachan....vartamaan sthiti ko bayaan karati hai!
जवाब देंहटाएंAabhar
बहुत खूबसूरती से आपने देश के हालात लिख दिए हैं ...सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसुन्दर गीत है शास्त्री जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गीत ..
जवाब देंहटाएंसुंदर सार्थक रचना!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने देश की हालत को बखूबी शब्दों में पिरोया है!
जवाब देंहटाएंखल रही विदेश को, देश की स्वतन्त्रता।
जवाब देंहटाएंछल रही है देश को, देश की स्वतन्त्रता।।
padhkar mazaa aaya.
खा रहे हैं देश की, गा रहे विदेश की,
जवाब देंहटाएंखिल्लियाँ उड़ा रहे हैं, भारतीय वेश की,
संभल रही है दासता, पिघल रही स्वतन्त्रता।
छल रही है देश को, देश की स्वतन्त्रता।।
सच कहा…………आज सबका यही दर्द है और कुछ ना कर पाने की विवशता से लाचार हैं……………बेहतरीन अभिव्यक्ति।
कटु यथार्थ को प्रभावशाली ढंग से ह्रदय तक पहुंचा उसे उद्वेलित करती अतिसुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंप्रवाहमयी बहुत ही सुन्दर गीत....
खा रहे हैं देश की, गा रहे विदेश की,
जवाब देंहटाएंखिल्लियाँ उड़ा रहे हैं, भारतीय वेश की,
संभल रही है दासता, पिघल रही स्वतन्त्रता।
छल रही है देश को, देश की स्वतन्त्रता।।
एक और बढ़िया रचना शास्त्री जी,
खा रहे इस देश का , जमा कर रहे विदेश में
परिंदों को खा रहे बाज, कबूतरों के भेष में !!
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.