मित्रों! कल आपको कुण्डलिया छन्द की परिभाषा बताई थी! जिस पर काफी स्वस्थ विचार टिप्पणी के रूप में मुझे प्राप्त हुए थे। उड़न तश्तरी ब्लॉग के स्वामी भाई समीर लाल 'समीर' की टिप्पणी मेरी तर्क की कसौटी पर खरी उतरी। अतः कुण्डलिया छन्द की परिभाषा बन गई। अधिकांश विद्वान कुण्डलिया छन्द की परिभाषा निम्नवत् देते हैं- कुण्डलिया मात्रिक छंद है। दो दोहों के बीच एक रोला मिला कर कुण्डलिया बनती है। पहले दोहे का अंतिम चरण ही रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होता है। परन्तु यह मेरी समझ के बाहर है। क्योंकि यह तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती है। यह बिल्कुल सत्य है कि कुण्डलिया छन्द का प्रारम्भ दोहे से ही होता है। जिसके प्रथम और तीसरे चरण में 13 मात्राएं और दूसरे तथा चौथे चरण में 11 मात्राएँ होती हैं। परन्तु अन्तिम दो पंक्तियों को हम दोहे की श्रेणी में नहीं रख सकते क्योंकि इसके प्रथम और तीसरे चरण में 11 मात्राएं और दूसरे तथा चौथे चरण में 13 मात्राएँ होती हैं। इसे हम सोरठा कह सकते हैं परन्तु दूसरे और अन्तिम चरण के वर्ण दीर्घ होने चाहिएँ। जिससे की छन्द की लय और गेयता बनी रहे। कुण्डलिया छन्द में जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होता है। इसमें कुण्डलिया का बहुत बड़ा रहस्य छिपा है। सत्य तो यह है कि इसी से इसका कुण्डलिया नाम पड़ा है। सर्प जब कुण्डली बना कर बैठता है तो उसका मुँह और पूँछ बिल्कुल पास में होते हैं। सम्भवतः काव्यशास्त्र के मनीषियों ने यह देख कर ही इसका नाम कुण्डलिया रखा होगा और इसकी उत्पत्ति की होगी। समीर लाल 'समीर' के अनुसार- छन्द का प्रारम्भ होगा एक दोहे से! उसके बाद एक रोला, जिसका पहला चरण दोहे का अंतिम चरण होगा! अन्त में एक रोला जिसमें दोहे का पहला शब्द की इसके अंतिम शब्द के रूप में आवृत्ति होगी! -- रोला मात्रिक सम छंद होता है। इसके विषम चरणों में 11 मात्राएँ और सम चरणों में 13 मात्राएँ होती हैं, अंत दीर्घ से! -- सोरठा में विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। -- सोरठा मात्रिक छंद है और यह दोहा का ठीक उलटा होता है। इसके विषम चरणों चरण में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। आज भी प्रस्तुत कर रहा हूँ अपनी रची हुई दो कुण्डलियाँ! (1) बेटे-बेटी में करो, समता का व्यवहार। बेटी ही संसार की, होती सिरजनहार।। होती सिरजनहार, स्रजन को सदा सँवारा। जिसने ममता को उर में जीवन भर धारा।। कह 'मयंक' दामन में कँटक रही समेटे। बेटी माता बनकर जनती बेटी-बेटे।। उपवन में हँसते सुमन, सबको करें विभोर।। सबको करें विभोर, प्रदूषण हर लेते हैं। कंकड़-पत्थर खाकर, मीठे फल देते हैं।। कह 'मयंक' आचरण, विचार साफ-सुथरे हों। उपवन के सारे, पादप नित हरे-भरे हों।। |
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मंगलवार, 8 मार्च 2011
"कुण्डलिया छन्द और परिभाषा-2" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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एक बार फिर सार्थक और सुन्दर प्रस्तुति…………हमे तो इसका ज्ञान नही है मगर लयबद्ध लिखे कुण्डलिया छन्द पढने मे आनन्द बहुत आता है …………आभार्।
जवाब देंहटाएंहमे तो इसका ज्ञान नही है मगर लयबद्ध लिखे कुण्डलिया छन्द पढने मे आनन्द बहुत आता है …………आभार्।
जवाब देंहटाएंआनन्ददायी, स्वस्थ एवं ज्ञानवर्धक विमर्श रहा. आपका आभार.
जवाब देंहटाएंजानकारी देने के लिए आभारी हूँ आपकी शास्त्री जी ... छंद बहुत सुंदर हैं .. शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंरोचक और ज्ञानवर्धक !
जवाब देंहटाएंइस तरह के रोचक और ज्ञानवर्धक बहसें हमारे ज्ञान में इजाफ़ा कर जाती हैं. बहुत ही शानदार कोशीश, आभार.
जवाब देंहटाएंरामराम.
आपकी रचनाओं में बहुत आनन्द आता है.
जवाब देंहटाएंछंद परम्परा का सम्यक ज्ञान मिला।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएंइस ज्ञान का ब्लॉग जगत को बहुत ज़रूरत थी।
साथ में जो उदाहरण दिए गए है, वह तो कमाल की रचनाएं है।
सही, कुन्डलिया छंद दोहा व रोला से बना मिश्र-छंद है, मात्रिक ..
जवाब देंहटाएं---हां इसे पहले कुन्डली छंद भी कहा जाता था ...यह भी आवश्यक नहीं कि प्रथम शव्द ही अन्तिम आव्रत्ति में हो पांचवीं पन्क्ति के अन्त्यानुप्रास से भी अन्तिम पन्क्ति की तुकान्त हो सकती है...
सब से पहले देरी से आने के लिए क्षमा चाहता हूँ| और साधुवाद आप सभी का जो लुप्त होते छन्दों को पुनर्जीवन प्रदान करने में प्रयास रत हैं|
जवाब देंहटाएंकुण्डलिया को ले कर अलग अलग जगह पर अलग परिभाषाएं पढ़ने में आईं, तो मैने सोचा कि मैं भी अपने अर्जित ज्ञान और अनुभव को अन्य लोगों से बाँटने का प्रयास करता हूँ|
कुण्डलिया छन्द को सब से ज़्यादा चर्चा में लिया जाता रहा है वो है प्रख्यात कवि 'गिरिधर' जी की कुण्डलिया| आइए उन की ही एक कुण्डलिया को पढ़ते हैं और उसी कुण्डलिया के ज़रिए इस छन्द के विधान को समझते हैं|
साईं बैर न कीजियै; गुरु, पण्डित, कवि, यार|
२२ २१ १ २१२=१३/ ११ ११११ ११ २१=११
बेटा, बनिता, पौरिया, यज्ञ करावन हार||
२२ ११२ २१२ = १३ / २१ १२११ २१ = ११
यज्ञ करावन हार, राज मंत्री जो होई|
२१ १२११ २१ = ११ / २१ २२ २ २२ = १३
जोगी, तपसी, बैद, आप कों तपें रसोई|
२२ ११२ २१ = ११ / २१ २ १२ १२२ = १३
कहँ गिरिधर कविराय, जुगन सों यों चल आई|
११ ११११ ११२१ =११ / १११ २ २ ११ २२ = १३
इन तेरह कों तरह, दिएं बन आवै साईं||
११ २११ २ १११=११/ १२ ११ २२ २२ = १३
उपरोक्त कुण्डलिया को पढ़ कर प्रतीत होता है कि:
१. ये मात्रिक छन्द है|
२. पहली दो पंक्ति दोहा की हैं|
३. तीसरी से छठी पंक्ति रोला की है| दोहे के आख़िरी चरण का रोला का प्रथम चरण बनना अनिवार्य| रोला चार चरण का होता है|
४. यदि पाँचवी और छठी पंक्ति को हम रोला की जगह सोरठा समझें तो उस के पहले और तीसरे चरण के अंत में समान शब्दांत का पालन करना ज़रूरी होगा जो कि गिरिधर जी ने नहीं किया है|
५. यदि पाँचवी और छठी पंक्ति को सोरठा की जगह दोहा समझा जाए तो भी इस के दूसरे और चौथे चरण के अंत में गुरु और लघु का पालन अनिवार्य हो जाएगा, इसे भी नहीं किया है गिरिधर जी ने|
६. तो मुझे लगता है कि तीसरी- चौथी - पाँचवी और छठी पंक्ति रोला की ही हुई|
7. रोला की पन्क्तियों के पहले वाले [फर्स्ट हाफ़] चरणों के अंत में यदि हम गुरु और लघु या तीन लघु जैसे शब्द नहीं लेते तो हम काका हाथारसी जी का समर्थन करेंगे, जिनकी रचनाओं को कुण्डलिया नहीं माना गया|
8. कुण्डलिया के शुरू और अंत के शब्द समान होने चाहिए| प्राचीन काल से इस छन्द को यूँ ही लिखा गया है| एक मत और भी चलता रहा है कि नयी कुण्डलिया में इस विधान की [शुरू और अंतिम का शब्द समान] छूट दी जानी चाहिए| खैर ये विद्वानों और उन से भी ज़्यादा जनता जनार्दन का प्रश्न है जिसका हल सिर्फ़ और सिर्फ़ समय के पास है|
विशेष:-
एक और विशेष बात आप लोगों से साझा करना चाहूँगा कि एक और भी छन्द है जो दिखता तो कुण्डलिया जैसा ही है परंतु अपने विशेष शिल्प के कारण उसे 'अमृत ध्वनि' छन्द कहते हैं| मेरे ब्लॉग पर इन छन्दों को पढ़ सकते हैं आप लोग|
ये मेरा मत है, अन्य व्यक्तियों को असहमत होने का पूर्ण अधिकार है|
सही व स्पष्ट कहा नवीन जी.....
जवाब देंहटाएं---वास्तव में ही कुन्डलिया छंद...एक दोहा व एक रोला का मिश्र छंद है....रोला चार चरण वाला छन्द है ,११-१३, ११-१३..अन्त गुरु-गुरु । इसे सोरठा से भ्रमित नहीं होना चाहिये...
---उप्रोक्त पोस्ट में उदाहरण में--रोला में मात्रायें तो सही २४ हैं परन्तु ११-१३ का संयोजन नहीं है...
---सही कहा आज कल -- प्रारम्भ का शब्द ही छन्द के अन्त में अवश्यमेव आये इसका पालन अनिवार्य नहीं हो रहा अपितु पांच्वी पन्क्ति से छटवीं पन्क्ति का तुकान्त किया जारहा है...हां लयवद्धता बनी रहनी चाहिये...