अब हवाओं में फैला गरल ही गरल।
क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।
गन्ध से अब, सुमन की-सुमन है डरा,
भाई-चारे में, कितना जहर है भरा,
वैद्य ऐसे कहाँ, जो पिलायें सुधा-
अब तो हर मर्ज की है, दवा ही अजल।
क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।
धर्म की कैद में, कर्म है अध-मरा,
हो गयी है प्रदूषित, हमारी धरा,
पंक में गन्दगी तो हमेशा रही-
अब तो दूषित हुआ जा रहा, गंग-जल।
क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।
आम, जामुन जले जा रहे, आग में,
विष के पादप पनपने, लगे बाग मे,
आज बारूद के, ढेर पर बैठ कर-
ढूँढते हैं सभी, प्यार के चार पल।
क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।
शिव अभयदान दो, आज इन्सान को,
जग की यह दुर्गति देखकर, हे प्रभो!
नेत्र मेरे हुए जा रहे हैं, सजल।
क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।
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गुरुवार, 3 जनवरी 2013
"मेरा एक पुराना गीत" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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पोस्ट दिल को छू गयी.कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने.बहुत खूब
जवाब देंहटाएंपूरे माहौल को आज भी समेटे है यह गजल .आभार .
जवाब देंहटाएंbahut khoob
जवाब देंहटाएंकिसी के चले जाने से यह दुनिया भला कब रुकी है जो अब रुकेगी, वो कहते है न "द शो मस्ट गो ऑन"
जवाब देंहटाएंऐसी स्तब्धता में भाव नहीं बह पाते हैं।
जवाब देंहटाएंशिव अभयदान दो, आज इन्सान को,
जवाब देंहटाएंजग की यह दुर्गति देखकर, हे प्रभो!
नेत्र मेरे हुए जा रहे हैं, सजल।
क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।
बहुत खूब ...उम्दा
अन्दर तक झकझोरने वाली रचना।
जवाब देंहटाएंअब हवाओं में फैला गरल ही गरल।
जवाब देंहटाएंक्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।
भावपूर्ण रचना.....
बहुत खूब ...उम्दा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंक्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।.....haan, wakayee samay ki kathin dhara bah rahi hai.....
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