आज एक पुरानी ग़ज़ल
दिल-ए-ज़ज़्बात जब पिघलते हैं
लब्ज़ तब शायरी में ढलते हैं
चैन मिलता नहीं है रातों को
ख़वाब में करवटें बदलते हैं
संग-ए-दिल में दबे हुए शोले
वक्त के साथ ही मचलते हैं
ग़म की बदली या धूप हो सुख की
अश्क आँखों से ही निकलते हैं
ईद-क्रिसमस हो या दिवाली हो
जब खुशी हो चराग़ जलते हैं
“रूप” ग़ुल का वहाँ निखरता है
शोख़ अरमान जहाँ पलते हैं
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शुक्रवार, 10 मई 2013
"लब्ज़ तब शायरी में ढलते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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लाजवाब रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत ही सुंदर....
जवाब देंहटाएंग़म की बदली या धूप हो सुख की
जवाब देंहटाएंअश्क आँखों से ही निकलते हैं
बहुत सुन्दर.....
ग़म की बदली या धूप हो सुख की
जवाब देंहटाएंअश्क आँखों से ही निकलते हैं
bahut sundar .
सुंदर प्रस्तुतिकरण !!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंक्या ही सुंदर गजल है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर गजल..
जवाब देंहटाएं:-)
बहुत ही सुन्दर कथ्य व शिल्प आदरणीय गुरुदेव।
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुन्दर शेर
जवाब देंहटाएंखुशी हो चाहे गम आसूं तो निकलते ही हैं,बहुत ही सुन्दर गज़ल की प्रस्तुति,आभार.
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति !!
जवाब देंहटाएंbahut sundar
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर ग़ज़ल सर!
जवाब देंहटाएं~सादर!!!
सबको सहज डुलाती कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब सर
जवाब देंहटाएं