अनज़ान रास्तों पे निकलना न परिन्दों
मंजिल
को हँसी-खेल समझना न परिन्दों
आगे
कदम बढ़ाना ज़रा देख-भाल कर
काँटों
से तुम कभी भी उलझना न परिन्दों
भोले
कबूतरों के लिए ज़ाल हैं बिछे
लालच
की उस जमीं पे उतरना न परिन्दों
आजकल
के आदमी, शैतान हो गये
भरकर
चटक-लिबास, सँवरना न परिन्दों
अब
मीत-मीत का ही गला काट रहे हैं
यूँ
ही सभी के साथ, विचरना न परिन्दों
भेड़ों
के “रूप” में छिपे हैं भेड़िये यहाँ
फूलों
को देख करके मचलना न परिन्दों
|
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शनिवार, 18 मई 2013
"मंजिल को हँसी-खेल समझना न परिन्दों " (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आज के सन्दर्भ में बहुत सुन्दर रचना मयंक जी :)
जवाब देंहटाएंभोले कबूतरों के लिए ज़ाल हैं बिछे
जवाब देंहटाएंलालच की उस जमीं पे उतरना न परिन्दों
आजकल के आदमी, शैतान हो गये
भरकर चटक-लिबास, सँवरना न परिन्दों
वाह ... बेहतरीन
वर्तमान सन्दर्भ में सटीक रचना मयंक जी !
जवाब देंहटाएंlatest post वटवृक्ष
सुन्दर सटीक प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (19-05-2013) के चर्चा मंच 1249 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
जवाब देंहटाएंपरिन्दों को माध्यम बनाकर जन मानस को सचेत करती सार्थक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसोच समझ कर चलना होगा।
जवाब देंहटाएंअब मीत-मीत का ही गला काट रहे हैं
जवाब देंहटाएंयूँ ही सभी के साथ, विचरना न परिन्दों
सत्य.....सार्थक पोस्ट...
बहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंअच्छी सीख।
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया पाठ पढा दिया आपने इस रचना द्वारा.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंक्या कहने