| कुहासे की सफेद चादर मौसम ने ओढ़ ली ठिठुरन से मित्रता भास्कर ने जोड़़ ली निर्धनता खोज रही है आग के अलाव किन्तु लकड़ियों के ऊँचे हैं भाव ठण्ड से काँप रहा है कोमल तन कूड़े में से पन्नियाँ बीन रहा है बचपन इसके बाद वो इन्हें बाजार में बेचेगा फिर जंगल में जाकर लकड़िया बीनेगा तब कहीं उसके घर में चूल्हा जलेगा पेट की आग तो बुझ जायेगी मगर बदन तो ठण्डा ही रहेगा थोड़े दिन में कुहरा छँट जायेगा सूरज अपने असली रूप में आयेगा फिर छायेगी होली की मस्ती दिन मे आयेगी तन में सुस्ती सर्दी में कम्पन गर्मी में पसीना सहना मजबूरी है क्योंकि दाल-रोटी का जुगाड़ भी तो जरूरी है क्या इसी का नाम जीवन है? क्या बूढ़ा हो रहा बचपन है? |
| "उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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सोमवार, 18 जनवरी 2010
“बूढ़ा हो रहा बचपन है?” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
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जवाब देंहटाएंएक सुंदर भाव व्यक्त करती हुई सामाजिक कविता..बधाई हो!!
यह जीवन है ।इस जीवन का यही है रंग - रूप !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना....
जवाब देंहटाएंजो लोग इन स्थितियों के लिए ज़िम्मेदार है उन्हे इस बात की कोई फिक्र नही है । सार्थक रचना है यह ।
जवाब देंहटाएंडॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक” जी नमस्कार
जवाब देंहटाएंआपकी रचना
“बूढ़ा हो रहा बचपन है?”
पढ़ी एक दम सत्य के धरातल पर लिखी रचना बेहद हृदय स्पर्शी है.
वो पंकितियाँ जो मुझे सबसे अच्छी लगीं:-
सर्दी में कम्पन
गर्मी में पसीना
सहना मजबूरी है
क्योंकि
दाल-रोटी का
जुगाड़ भी तो
जरूरी है
मन को झंकृत करने वाली रचना के लिए बधाई.
- विजय तिवारी 'किसलय'
Sochne ko majboor karti bahut hi sundar rachna...
जवाब देंहटाएंAabhar !!!
सच है।
जवाब देंहटाएंlajawaab kavita .......zindagi ki sachchaiyon ko udhedti huyi .........kitni saralta se hakikat bayan kar di.
जवाब देंहटाएंwaakai sochne wali baat hai...kya boodha ho raha hai bachpann!!
जवाब देंहटाएं"मर्मस्पर्शी रचना!"
जवाब देंहटाएं--
मिलत, खिलत, लजियात ... ... ., कोहरे में भोर हुई!
लगी झूमने फिर खेतों में, ओंठों पर मुस्कान खिलाती!
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संपादक : सरस पायस