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धूप नहीं नभ में खिली, अंग ठिठुरता जाय।
सर्दी में दे ऊर्जा, गर्म-गर्म इक चाय।१।
आग सेंकने का चढ़ा, देखो कैसा चाव।
सर्दी में अच्छा लगे, जलता हुआ अलाव।२।
ठिठुरन से जमने लगा, सारे तन का खून।
शीतल ऋतु में आग से, मिलता बहुत सुकून।३।
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बच्चे-बूढ़े आग को, सेंक रहे हैं आज।
भीषण शीत-प्रकोप से, ठिठुरा सकल समाज।४।
पहरा देते रातभर, कभी न मानें हार।
आग सेंकने आ गये, अब ये चौकीदार।५।
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मंगलवार, 8 जनवरी 2013
"चाय और आग" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत ख़ूब वाह!
जवाब देंहटाएंआगे करके हाथ दो, सेंक रहे हैं आग ।
जवाब देंहटाएंशीत-लहर कटु गलन अति, जमते नदी तड़ाग ।
जमते नदी तड़ाग, गर्म कर चाय सुड़कते ।
रहे आग को खोद, आग फिर भी नहिं भड़के ।
दिल्ली दुर्जन आग, बदन में ऐसी लागे ।
करके निकृष्ट-पाप, कहीं पावे नहिं भागे ।।
बहुत खूब...मुझे तो तस्वीर देखकर और ठंड लगने लगी
जवाब देंहटाएंSo Cool Shartiji.
जवाब देंहटाएंतसवीरें देखकर गर्मी आ गई ! मौसम गुनगुना हो उठा !
जवाब देंहटाएंएक ओर ताप और साथ में चाय का साथ ...बहुत बढिया तालमेल
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जवाब देंहटाएंप्राणि मात्र के प्रति प्रेम से आप्लावित दोहे .
वाह बहुत लिखा है...बचपन की सारी अनुभूतियाँ लौट आयी मन में.
जवाब देंहटाएंचाय पीते पीते पढ़ने का आनन्द ही अलग है..
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