कहीं है ज्वार और भाटा कहीं है, कहीं है सुमन और काँटा कहीं है, करीने से सजने लगी गन्दगी है! जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!! जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!! कहीं है अन्धेरा कहीं चाँदनी है, कहीं शोक की धुन कहीं रागनी है, मगर गुम हुई गीत से नगमगी है! जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!! जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!! दरिन्दों की चक्की में, घुन पिस रहे हैं, चन्दन को बगुले भगत घिस रहे हैं, दिलों में इबादत नही तिश्नगी है! जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!! जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!! धरा रो रही है, गगन रो रहा है, अमन बेचकर आदमी सो रहा है, सहमती-सिसकती हुई बन्दगी है! जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!! जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!! (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010
"जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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धरा रो रही है, गगन रो रहा है,
जवाब देंहटाएंअमन बेचकर आदमी सो रहा है,
सहमती-सिसकती हुई बन्दगी है!
यौवन में थकने लगी जिन्दगी है!!
क्या खूब लिखा आपने !!
कहीं ज्वार है और भाटा कहीं है,
जवाब देंहटाएंकहीं है सुमन और काँटा कहीं है,
यौवन में थकने लगी जिन्दगी है! nice
दरिन्दों की चक्की में, घुन पिस रहे हैं,
जवाब देंहटाएंचन्दन को बगुले भगत घिस रहे हैं,
दिलों में इबादत नही तिश्नगी है!
यौवन में थकने लगी जिन्दगी है!!
बहुत सुन्दर, मगर क्या कोई क्रान्ति के लिए उठेगा, सवाल यह भी है ?
बहुत सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंbahut badhiya rachna he ji.
जवाब देंहटाएंkintu AMAN bech kar koi kese so saktaa he? isaka javaab bhi he aapne upar ki panktiyo me kuchh is tarah de diya ki-दरिन्दों की चक्की में, घुन पिस रहे हैं,
चन्दन को बगुले भगत घिस रहे हैं.
ye bagule bhagat hi so sakte he...
lazavab
धरा रो रही है, गगन रो रहा है,
जवाब देंहटाएंअमन बेचकर आदमी सो रहा है,
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अत्यंत कटु यथार्थ
विषमताओं को रेखांकित करती रचना
करीने से सजने लगी गन्दगी है!
जवाब देंहटाएंजवानी में थकने लगी जिन्दगी है!!
बहुत उम्दा बात कही!