कैसे मैं दो शब्द लिखूँ और कैसे उनमें भाव भरूँ? परिवेशों के रिसते छालों के, कैसे मैं अब घाव भरूँ? मौसम की विपरीत चाल है, धरा रक्त से हुई लाल है, दस्तक देता कुटिल काल है, प्रजा तन्त्र का बुरा हाल है, बौने गीतों में कैसे मैं, लाड़-प्यार और चाव भरूँ? परिवेशों के रिसते छालों के, कैसे मैं अब घाव भरूँ? पंछी को परवाज चाहिए, बेकारों को काज चाहिए, नेता जी को राज चाहिए, कल को सुधरा आज चाहिए, उलझे ताने और बाने में, कैसे सरल स्वभाव भरूँ? परिवेशों के रिसते छालों के, कैसे मैं अब घाव भरूँ? भाँग कूप में पड़ी हुई है, लाज धूप में खड़ी हुई है, आज सत्यता डरी हुई है, तोंद झूठ की बढ़ी हुई है, रेतीले रजकण में कैसे, शक्कर के अनुभाव भरूँ? परिवेशों के रिसते छालों के, कैसे मैं अब घाव भरूँ? |
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बुधवार, 3 फ़रवरी 2010
“कैसे मैं घाव भरूँ?” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
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पंछी को परवाज चाहिए,
जवाब देंहटाएंबेकारों को काज चाहिए,
नेता जी को राज चाहिए,
कल को सुधरा आज चाहिए,
उलझे ताने और बाने में, कैसे सरल स्वभाव धरूँ?
परिवेशों के रिसते छालों के, कैसे मैं घाव भरूँ?
वक्त के तकाजे का सुन्दर चित्रण शास्त्री जी !
सटीक चित्रण किया आपने.
जवाब देंहटाएंरामराम.
Appki kavita me aapki aur aap jaisi soch rakhnewale kaiyo ki sanvedena jhalkti hai. kya ab kuch nahi hosakta?
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी कविता, आनन्द आ गया। इतनी सधी हुई कविता बहुत दिनों बाद पढ़ी, बधाई।
जवाब देंहटाएंभाँग कूप में पड़ी हुई है,
जवाब देंहटाएंलाज धूप में खड़ी हुई है,
आज सत्यता डरी हुई है,
तोंद झूठ की बढ़ी हुई है,
कटु यथार्थ है. वाकई सत्यता तो आज डरी ही है
बहुत सुन्दर
सत्य को दर्शाती सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंमौसम की विपरीत चाल है,
जवाब देंहटाएंधरा रक्त से हुई लाल है,
दस्तक देता कुटिल काल है,
प्रजा तन्त्र का बुरा हाल है,
बौने गीतों में कैसे मैं, लाड़-प्यार और चाव भरूँ?
परिवेशों के रिसते छालों के, कैसे मैं अब घाव भरूँ...
vaah ,badhiya rchna.
boht he badhiya shastri jii
जवाब देंहटाएंयथार्थपरक रचना ..वर्तमान परिपेक्ष्य की कमजोरियों का बहुत सही बखान किया आपने!
जवाब देंहटाएंआभार !!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
aaj to shastri ji kamaal hi kar diya hai ...........sare riste zakhmo ko ek baar hi dikha diya hai magar aaj ke parivesh mein ye ghav itni aasani se bharne wale nhi hain.
जवाब देंहटाएंपंछी को परवाज चाहिए,
जवाब देंहटाएंबेकारों को काज चाहिए,
नेता जी को राज चाहिए,
कल को सुधरा आज चाहिए,
सच कहा आपने बेकारों को काज चाहिए... बहुत सुंदर और सटीक कविता...
वाह!
जवाब देंहटाएंपंछी को परवाज चाहिए,
बेकारों को काज चाहिए,
नेता जी को राज चाहिए,
कल को सुधरा आज चाहिए,
सत्य वचन
पंछी को परवाज चाहिए,
जवाब देंहटाएंबेकारों को काज चाहिए,
नेता जी को राज चाहिए,
कल को सुधरा आज चाहिए,
शानदार गीत
बधाई
रेतीले रजकण में कैसे, शक्कर के अनुभाव भरूँ?
जवाब देंहटाएंपरिवेशों के रिसते छालों के, कैसे मैं अब घाव भरूँ
अहह सटीक,सुंदर,सच्ची ...बहुत सुंदर.....
वाह शास्त्री जी,,बेहतरीन कविता...बिल्कुल सच सच बात कह डाली आपने इस सुंदर कविता के माध्यम से....बधाई हो
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता।
जवाब देंहटाएंbehtarin ! :)
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