कहीं है ज्वार और भाटा कहीं है, कहीं है सुमन और काँटा कहीं है, करीने से सजने लगी गन्दगी है! जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!! जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!! कहीं है अन्धेरा कहीं चाँदनी है, कहीं शोक की धुन कहीं रागनी है, मगर गुम हुई गीत से नगमगी है! जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!! जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!! दरिन्दों की चक्की में, घुन पिस रहे हैं, चन्दन को बगुले भगत घिस रहे हैं, दिलों में इबादत नही तिश्नगी है! जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!! जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!! धरा रो रही है, गगन रो रहा है, अमन बेचकर आदमी सो रहा है, सहमती-सिसकती हुई बन्दगी है! जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!! जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!! (चित्र गूगल सर्च से साभार) 5 COMMENTS:
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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010
"जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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शास्त्री जी प्रणाम, कविताओ में खास रूचि नहीं है. लेकिन जिंदगी और जुगाड़ का जिक्र देखा तो पढने का मन किया. भाव विभोर कर देने वाली रचना. मेरी बधाई स्वीकार करे.
जवाब देंहटाएंwww.gooftgu.blogspot.com
मानवीय त्रासदी के सफल चित्रण की नई परिभाषा गढ़ती है।
जवाब देंहटाएंबहुत सही चित्रण.
जवाब देंहटाएंरामराम.
करीने से सजने लगी गन्दगी है! शास्त्री जी इस एक ही पंक्ति के अनेक अर्थ हैं ।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब और बहुत सुंदर लिखा आपने....
जवाब देंहटाएंनोट: लखनऊ से बाहर होने की वजह से .... काफी दिनों तक नहीं आ पाया ....माफ़ी चाहता हूँ....
गीत के साथ-साथ तस्वीर भी बहुत अच्छी है!
जवाब देंहटाएं--
मुझको बता दो -"
"नवसुर में कोयल गाता है -मीठा-मीठा-मीठा! "
--
संपादक : सरस पायस
वाह. बहुत खूब. बहुत बढिया.
जवाब देंहटाएंकरीने से सजने लगी गन्दगी है!
जवाब देंहटाएंजवानी में थकने लगी जिन्दगी है!!
-बहुत ही सुन्दर, शास्त्री जी.
वाह बहुत खूब लिखा है आपने! इस ख़ूबसूरत और सच्चाई को दर्शाती हुई शानदार रचना के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएंदरिन्दों की चक्की में, घुन पिस रहे हैं,
जवाब देंहटाएंचन्दन को बगुले भगत घिस रहे हैं,
दिलों में इबादत नही तिश्नगी है!
जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!!
जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!!
वाह........क्या कहूँ.........बहुत बहुत सुन्दर....कठोर यथार्थ को आपने ऐसे चित्रित किया है कि वह ह्रदय बेध जाती है...
बहुत ही सुन्दर रचना...वाह.
कड़्वा सच बयां किया है आपने ।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब..।
आभार ।
धरा रो रही है, गगन रो रहा है,
जवाब देंहटाएंअमन बेचकर आदमी सो रहा है,
सहमती-सिसकती हुई बन्दगी है!
जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!!
जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!!
behad sundar prastuti aaj ke halat ko prastut kar diya.
jugaad hi ek aisi cheez hai jo jugaad se nahi chalti
जवाब देंहटाएंयथार्थ को तीखेपन के साथ प्रस्तुत करती सुन्दर रचना के लिए साधुवाद !
जवाब देंहटाएंपढकर लगा जैसे जिंदगी का कच्चा चिटठा बयान कर दिया आपने। बधाई।
जवाब देंहटाएं--------
घूँघट में रहने वाली इतिहास बनाने निकली हैं।
खाने पीने में लोग इतने पीछे हैं, पता नहीं था।
अच्छी कविता। बधाई।
जवाब देंहटाएंजुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है ...
जवाब देंहटाएंजीवन की हक़ीकत खोल दी आपने ............ बहुत कमाल का लिखा है शास्त्री जी .........
सब से पहले जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनायें रचना हमेशा की तरह बहुत अच्छी लगी धन्यवाद्
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