कोई फूलों का प्रेमी है, कोई कलियों का दीवाना! मगर हम उसके आशिक हैं, वतन का हो जो परवाना!! जवाँमर्दी उसी की है, जो रक्खे आग को दिल मे, हमारी शान का परचम था, ऊधम सिंह वो मरदाना! मुमताजमहल लाखों देंगे, बदले में एक पद्मिनी के, निज आन-बान की रक्षा को, देना प्रताप सा महाराणा! धारण त्रिशूल कर, दुर्गा बन, रिपु-दमन कला में, हे माता! पारंगत मुझको कर जाना! |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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बुधवार, 30 जून 2010
“ग़ज़ल में प्रार्थना” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
मंगलवार, 29 जून 2010
“मेरी बहुत पुरानी रचना” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)
“भारत के बालकों की कामना”
हम भारत के भाग्य विधाता, नया राष्ट्र निर्माण करेंगे । देश-प्रेम के लिए न्योछावर, हँस-हँस अपने प्राण करेंगे ।। गौतम, गाँधी, इन्दिरा जी की, हम ही तो तस्वीर हैं, हम ही भावी कर्णधार हैं, हम भारत के वीर हैं, भेद-भाव का भूत भगा कर, चारु राष्ट्र निर्माण करेंगे । देश-प्रेम के लिए न्योछावर, हँस-हँस अपने प्राण करेंगे ।। चम्पा, गेन्दा, गुल-गुलाब ने, पुष्प-वाटिका महकाई, हिन्द, मुस्लिम, सिख, ईसाई, आपस में भाई-भाई, सब मिल-जुल कर आपस में, सुदृढ़ राष्ट्र निर्माण करेगे । देश-प्रेम के लिए न्योछावर, हँस-हँस अपने प्राण करेंगे ।। भगतसिंह, अशफाक -उल्ला की, आन न हम मिटने देगे, धर्म-मजहब की खातिर अपनी ,शान न हम मिटने देंगे, कौमी -एकता को अपना कर, नवल राष्ट्र निर्माण करेंगे । देश-प्रेम के लिए न्योछावर,हँस-हँस अपने प्राण करेंगे ।। दिशा-दिशा में, नगर-ग्राम में, बीज शान्ति के उपजायेंगे, विश्व शान्ति की पहल करेंगे, राष्ट्र पताका लहरायेंगे, भारत के सच्चे प्रहरी बन, स्वच्छ राष्ट्र निर्माण करेंगे । देश-प्रेम के लिए न्योछावर, हँस-हँस अपने प्राण करेंगे ।। |
सोमवार, 28 जून 2010
“नभ में काले बादल छाये!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
रविवार, 27 जून 2010
"कुछ आगे बढ़कर देखो तो!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
तुम मनको पढ़कर देखो तो! कुछ आगे बढ़कर देखो तो!! चन्दा है और चकोरी भी, रेशम की सुन्दर डोरी भी, सपनों में चढ़कर देखो तो- कुछ आगे बढ़कर देखो तो!! कुछ छन्द अधूरे से होंगे, अनुबन्ध अधूरे से होंगे, तुम आगे गढ़कर देखो तो! कुछ आगे बढ़कर देखो तो!! सागर से मोती चुन लेना, माला को फिर से बुन लेना, लहरों से लड़कर देखो तो! कुछ आगे बढ़कर देखो तो!! |
शनिवार, 26 जून 2010
“आसमान में छाये बादल!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
शुक्रवार, 25 जून 2010
“इसे तो.. गांधी की सन्तान कहते हुए भी….” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
एक पादप साल का, जिसका अस्तित्व नही मिटा पाई, कभी भी, समय की आंधी । ऐसा था, हमारा राष्ट्र-पिता, महात्मा गान्धी ।। कितना है कमजोर, सेमल के पेड़ सा- आज का नेता । जो किसी को, कुछ नही देता ।। दिया सलाई का- नाज़ुक बक्सा, सेंमल द्वारा निर्मित, एक भवन । माचिस दिखाओ, और कर लो हवन । आग ही तो लगानी है, चाहे- तन, मन, धन हो या वतन।। यह बहुत मोटा, ताजा है, परन्तु, सूखे सालरूपी, गांधी की तरह बलिष्ट नही, इसे तो गांधी की सन्तान कहते हुए भी- ….....! |
गुरुवार, 24 जून 2010
“मृत्यु एक मछुआरा-बेंजामिन फ्रैंकलिन” (अनुवाद-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
“DEATH IS A FISHERMAN” – BY BENJAMIN FRANKLIN अनुवाद-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक” |
दुनिया एक सरोवर है, और मृत्यु इक मछुआरा है! हम मछली हैं अवश-विवश सी, हमें जाल ने मारा है!! मछुआरे को हम जीवों पर कभी दया नही आती है! हमें पकड़कर खा जाने को, मौत नही घबराती है!! तालाबों में झूम रहा है जाल मृत्यु बन घूम रहा है! मछुआरा चुन-चुन कर सबको बेदर्दी से भून रहा है!! आये हैं तो जाना होगा मृत्यु अवश्यम्भावी है! इक दिन तो फँसना ही होगा, जाल नही सद्-भावी है!! |
BENJAMIN FRANKLIN (1706-1790) |
बुधवार, 23 जून 2010
“दोहे” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
बेमौसम आँधीं चलें, दुनिया है बेहाल। गीतों के दिन लद गये,गायब सुर और ताल।। ---- नानक, सूर, कबीर के , छन्द हो गये दूर। कर्णबेध संगीत का , युग है अब भरपूर।। ---- रामराज का स्वप्न अब, लगता है इतिहास। केवल इनके नाम का, राजनीति में वास।। |
मंगलवार, 22 जून 2010
“आजादी मुझको खलती है!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
गाँधी बाबा के भारत में , जब - जब मक्कारी फलती है । आजादी मुझको खलती है ॥ वोटों की जीवन घुट्टी पी, हो गये पुष्ट हैं मतवाले , केंचुली पहिन कर खादी की, छिप गए सभी विषधर काले , कुछ काम नही बैठे ठाले , करते है केवल घोटाले , अब विदुर नीति तो रही नही, केवल दुर्नीति चलती है। आजादी मुझको खलती है ॥ प्रियतम का प्यार नसीब नही, कितनी ही प्राण-प्यारियों को,दानव दहेज़ का निगल चुका , कितनी निर्दोष नारियों को , फांसी खाकर मरना पड़ता, अबला असहाय क्वारियों को , निर्धन के घर कफ़न पहन - धरती की बेटी पलती है । आजादी मुझको खलती है ॥ निर्बल मजदूर किसानों के, हिस्से में कोरे नारे हैं , चाटुकार , मक्कारों ही के, होते वारे -न्यारे हैं , ये रक्ष संस्कृति के पोषक, जन-गण-मन के हत्यारे हैं , सभ्यता इन्ही की बंधक बन , रोती है आँखें मलती है। आजादी मुझको खलती है ॥ मैकाले की काली शिक्षा, भिक्षा की रीति सिखाती है , शिक्षित बेकारों की संख्या, दिन -प्रतिदिन बढती जाती है , नौकरी उसी के हिस्से में, जो नेताजी का नाती है , है बाल अरुण बूढ़ा-बूढ़ा, तरुणाई ढलती जाती है। आजादी मुझको खलती है ॥ |
सोमवार, 21 जून 2010
“काँटो की पहरेदारी में, ही गुलाब खिलते हैं” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
आशा और निराशा के क्षण, पग-पग पर मिलते हैं। काँटों की पहरेदारी में, ही गुलाब खिलते हैं। पतझड़ और बसन्त कभी, हरियाली आती है। सर्दी-गर्मी सहने का, सन्देश सिखाती है। यश और अपयश साथ-साथ, दायें-बाये चलते हैं। काँटो की पहरेदारी में, ही गुलाब खिलते हैं। जीवन कभी कठोर कठिन, और कभी सरल सा है। भोजन अमृततुल्य कभी, तो कभी गरल सा है। सागर के खारे जल में, ही मोती पलते हैं। काँटो की पहरेदारी में, ही गुलाब खिलते हैं। |
रविवार, 20 जून 2010
“कसाइयों के देश में?” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
नम्रता उदारता का पाठ, अब पढ़ाये कौन? उग्रवादी छिपे जहाँ सन्तों के वेश में। साधु और असाधु की पहचान अब कैसे हो, दोनो ही सुसज्जित हैं, दाढ़ी और केश में। कैसे खेलें रंग-औ-फाग, रक्त के लगे हैं दाग, नगर, प्रान्त, गली-गाँव, घिरे हत्या-क्लेश में। गांधी का अहिंसावाद, नेहरू का शान्तिवाद, हुए निष्प्राण, हिंसा के परिवेश में । इन्दिरा की बलि चढ़ी, एकता में फूट पड़ी, प्रजातन्त्र हुआ बदनाम देश-देश में। मासूमों की हत्यायें दिन-प्रतिदिन होती, कैसे जी पायेंगे, कसाइयों के देश में। |
शनिवार, 19 जून 2010
“कौन राक्षस चाट रहा?” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
आज देश में उथल-पुथल क्यों, क्यों हैं भारतवासी आरत? कहाँ खो गया रामराज्य, और गाँधी के सपनों का भारत? आओ मिलकर आज विचारें, कैसी यह मजबूरी है? शान्ति वाटिका के सुमनों के, उर में कैसी दूरी है? क्यों भारत में भाई, भाई के, लहू का आज बना प्यासा? कहाँ खो गयी कर्णधार की, मधु रस में भीगी भाषा? कहाँ गयी सोने की चिड़िया, भरने दूषित-दूर उड़ाने? कौन ले गया छीन हमारे, अधरों की मीठी मुस्काने? किसने हरण किया गान्धी का, कहाँ गयी इन्दिरा प्यारी? प्रजातन्त्र की नगरी की, क्यों आज दुखी जनता सारी? कौन राष्ट्र का हनन कर रहा, माता के अंग काट रहा? भारत माँ के मधुर रक्त को, कौन राक्षस चाट रहा? |
शुक्रवार, 18 जून 2010
“कामुकता में वह छला गया” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
“1973 में रची हुई एक रचना”
जल में मयंक प्रतिविम्बित था, अरुणोदय होने वाला था। कली-कली पर झूम रहा, एक चंचरीक मतवाला था।। गुंजन कर रहा, प्रतीक्षा में, कब पुष्प बने कोई कलिका। मकरन्द-पान को मचल रहा, मन मोर नाच करता अलि का।। लाल-कपोल, लोल-लोचन, अधरों पर मृदु मुस्कान लिए। उपवन में एक कली आयी, सुन्दरता का वरदान लिए।। देख अधखिली सुन्दर कलिका, भँवरे के मन में आस पली। और अधर-कपोल चूमने को, षट्पद के मन में प्यास पली।। बस रूप सरोवर में देखा, और मुँह में पानी भर आया। प्रतिछाया को समझा असली, और मन ही मन में ललचाया।। आशा-विश्वास लिए पँहुचा, अधरों से अधर मिला बैठा। पर भीग गया लाचार हुआ, जल के भीतर वह जा पैंठा।। सत्यता समझ ली परछाई, कामुकता में वह छला गया। नही प्यास बुझी उस भँवरे की, इस दुनिया से वह चला गया।। |
गुरुवार, 17 जून 2010
“कहीं सो न जाना!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
सूचनाः- 17 जून से 19 जून तकलुधियाना में रहूँगा!21 जून को हीब्लॉगिस्तान में वापिस लौटूँगा!मेरे मोबाइल नम्बर हैं-9997996437, 9368499921, 9456383898चमक और दमक में, कहीं खो न जाना! कलम के मुसाफिर, कहीं सो न जाना! जलाना पड़ेगा तुझे, दीप जगमग, दिखाना पड़ेगा जगत को सही मग, तुझे सभ्यता की, अलख है जगाना!! कलम के मुसाफिर...................!! सिक्कों की खातिर कलम बेचना मत, कलम में छिपी है ज़माने की ताकत, भटके हुओं को सही पथ दिखाना! कलम के मुसाफिर...................!! झूठों की करना कभी मत हिमायत, अमानत में करना कभी मत ख़यानत, हकीकत से अपना न दामन बचाना! कलम के मुसाफिर...................!! |
बुधवार, 16 जून 2010
“बादल तो बादल होते हैं” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक)
सूचनाः- 17 जून से 19 जून तक लुधियाना में रहूँगा!
21 जून को ही ब्लॉगिस्तान में वापिस लौटूँगा!
मंगलवार, 15 जून 2010
‘‘आदमी का अब जनाजा, जा रहा संसार से’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
“25 साल पुरानी मेरी एक रचना”
आदमी के प्यार को, रोता रहा है आदमी। आदमी के भार को, ढोता रहा है आदमी।। आदमी का विश्व में, बाजार गन्दा हो रहा। आदमी का आदमी के साथ, धन्धा हो रहा।। आदमी ही आदमी का, भूलता इतिहास है। आदमी को आदमीयत का नही आभास है।। आदमी पिटवा रहा है, आदमी लुटवा रहा। आदमी को आदमी ही, आज है लुटवा रहा।। आदमी बरसा रहा, बारूद की हैं गोलियाँ। आदमी ही बोलता, शैतानियत की बोलियाँ।। आदमी ही आदमी का,को आज है खाने लगा। आदमी कितना घिनौना, कार्य अपनाने लगा।। आदमी था शेर भी और आदमी बिल्ली बना। आदमी अजमेर था और आदमी दिल्ली बना।। आदमी था ठोस, किन्तु बर्फ की सिल्ली बना। आदमी के सामने ही, आदमी खिल्ली बना।। आदमी ही चोर है और आदमी मुँह-जोर है । आदमी पर आदमी का, हाय! कितना जोर है।। आदमी आबाद था, अब आदमी बरबाद है। आदमी के देश में, अब आदमी नाशाद है।। आदमी की भीड़ में, खोया हुआ है आदमी। आदमी की नीड़ में, सोया हुआ है आदमी।। आदमी घायल हुआ है, आदमी की मार से। आदमी का अब जनाजा, जा रहा संसार से।। |
सोमवार, 14 जून 2010
“पिता और बच्चा-William Butler Yeats” (अनुवाद-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
Father and Child a poem by William Butler Yeats अनुवाद-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक” |
जब-जब भी प्रतिबन्धों का रहस्य खोला है नारी बँधी हुई है इनसे बालक ने यह बोला है अच्छी महिलाएँ भी पुरुषों के अधीन हैं कहने को स्वाधीन मगर सब पराधीन हैं थामा हाथ पुरुष का महिलाओं ने जब-जब दुर्व्यवहार बदले में पाया उसने तब-तब सबको उसका रूप और यौवन ही भाया आँखों को शीतल हवा और बालों को सुन्दर बतलाया |
William Butler Yeats (1865-1939) was born in Dublin into an Irish Protestant family. His father, John Butler Yeats, a clergyman's son, was a lawyer turned to an Irish Pre-Raphaelite painter. Yeats's mother, Susan Pollexfen, came from a wealthy family - the Pollexfens had a prosperous milling and shipping business. His early years Yeats spent in London and Slingo, a beautiful county on the west coast of Ireland, where his mother had grown and which he later depicted in his poems. In 1881 the fami.. |
रविवार, 13 जून 2010
“टीस” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
नोट-कलाई में मोच आ जाने के कारण केवल आपको पढ़ ही रहा हूँ! चाह कर भी टिप्पणी नही कर पा रहा हूँ! किसी तरह से कृतिदेव मे लिखी हुई इस रचना को किसी से यूनिकोड में बदलवा कर ब्लॉग पर लगवा दिया है! टीस उठ रही है तन-मन में, पोर-पोर में दर्द भरा है! बाहर से सब ठीक-ठाक है, भीतर घाव बहुत गहरा है!! लोभी भँवरों ने कलियों को, गुञ्जन करके लूट लिया है, जितना कुछ सौरभ था उनमें, असमय में ही घूँट लिया है, भरी जवानी में उपवन का, बदल गया चेहरा-मोहरा है! बाहर से सब ठीक-ठाक है, भीतर घाव बहुत गहरा है!! स्याही, कलम और खत भी हैं, लेकिन कुछ मजमून नही है, ज़र्द दिखाई देते क़ातिब, तन में मानो खून नही है, रंगत उड़ी हुई मुखड़े की, सिर पर ओढ़ लिया सेहरा है! बाहर से सब ठीक-ठाक है, भीतर घाव बहुत गहरा है!! सोये चादर तान श्रमिक हैं, तोड़ दिया श्रम से नाता है, सूदखोर हो गये धनिक हैं, जिन्दाबाद बही-खाता है, सच बन्दी है कारागृह में, संविधान गूँगा-बहरा है! बाहर से सब ठीक-ठाक है, भीतर घाव बहुत गहरा है!! बेटा डाँट रहा बाबुल को, बहू सास को नोच रही है, आँसू बहा रही मर्यादा, सहमी-सहमी सोच रही है, सब सीमाएँ लाँघ-लाँघकर वक्त कहाँ आकर ठहरा है! बाहर से सब ठीक-ठाक है, भीतर घाव बहुत गहरा है!! |
शनिवार, 12 जून 2010
“जाना अपने घर, कल - परसो!” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
♥ एक पुरानी रचना ♥ नभ में कितने घन-श्याम घिरे, बरसी न अभी जी भर बदली। मुस्कान सघन-घन दे न सके, मुरझाई आशाओं की कली। ------------ प्यासा चातक, प्यासी धरती, प्यास लिए, अब फसल चली। प्यासी निशा - दिवस प्यासे, प्यासी हर सुबह-औ-शाम ढली। ------------- वन, बाग, तड़ाग, सुमन प्यासे, प्यासी ऋषियों की वनस्थली। खग, मृग, वानर, जलचर प्यासे, प्यासी पर्वत की तपस्थली। ---------------- सूखा क्यों जलद तुम्हारा उर, मानव मन की मनुहार सुनो। इतने न बनो घनश्याम निठुर, चातक की करुण पुकार सुनो। ---------------- फिर आओ गगन तले बादल, अब तो मन-तन जी-भर बरसो। विरहिन की ज्वाल, करो शीतल, जाना अपने घर, कल - परसो। |
शुक्रवार, 11 जून 2010
“वो चमन चाहिए!” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
♥ एक पुराना गीत ♥ मन-सुमन हों खिले, उर से उर हों मिले, लहलहाता हुआ वो चमन चाहिए। ज्ञान-गंगा बहे, शन्ति और सुख रहे- मुस्कराता हुआ वो वतन चाहिए।। दीप आशाओं के हर कुटी में जलें, राम-लछमन से बालक, घरों में पलें, प्यार ही प्यार हो, प्रीत-मनुहार हो- देश में सब जगह अब अमन चाहिए। लहलहाता हुआ वो चमन चाहिए।। छेनियों और हथौड़ों की झनकार हो, श्रम-श्रजन-स्नेह दें, ऐसे परिवार हों, खेत, उपवन सदा सींचती ही रहे- ऐसी दरिया-ए गंग-औ-जमुन चाहिए। लहलहाता हुआ वो चमन चाहिए।। आदमी से न इनसानियत दूर हो, पुष्प, कलिका सुगन्धों से भरपूर हो, साज सुन्दर सजें, एकता से बजें, चेतना से भरे, मन-औ-तन चाहिए। लहलहाता हुआ वो चमन चाहिए।। |
गुरुवार, 10 जून 2010
“ऊष्म और संयुक्ताक्षर” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
बुधवार, 9 जून 2010
“व्यञ्जनावली-अन्तस्थ” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
“य” से यति वो ही कहलाते! जो नित यज्ञ-हवन करवाते! वातावरण शुद्ध हो जाता, कष्ट-क्लेश इससे मिट जाते! “र” |
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