“1973 में रची हुई एक रचना”
जल में मयंक प्रतिविम्बित था, अरुणोदय होने वाला था। कली-कली पर झूम रहा, एक चंचरीक मतवाला था।। गुंजन कर रहा, प्रतीक्षा में, कब पुष्प बने कोई कलिका। मकरन्द-पान को मचल रहा, मन मोर नाच करता अलि का।। लाल-कपोल, लोल-लोचन, अधरों पर मृदु मुस्कान लिए। उपवन में एक कली आयी, सुन्दरता का वरदान लिए।। देख अधखिली सुन्दर कलिका, भँवरे के मन में आस पली। और अधर-कपोल चूमने को, षट्पद के मन में प्यास पली।। बस रूप सरोवर में देखा, और मुँह में पानी भर आया। प्रतिछाया को समझा असली, और मन ही मन में ललचाया।। आशा-विश्वास लिए पँहुचा, अधरों से अधर मिला बैठा। पर भीग गया लाचार हुआ, जल के भीतर वह जा पैंठा।। सत्यता समझ ली परछाई, कामुकता में वह छला गया। नही प्यास बुझी उस भँवरे की, इस दुनिया से वह चला गया।। |
एक सच्चे, ईमानदार कवि के मनोभावों का वर्णन। बधाई। शीर्षक से ही भावनाओं की गहराई का एह्सास होता है।
जवाब देंहटाएंकविता पढ कर लालची कुत्ते वाली कहानी याद आ गयी । बहुत अच्छी लगी कविता बधाई
जवाब देंहटाएंकविता अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंरसोँ की वर्षा है इस मेँ।आंतरिक एवम् बाहरी लय भी प्रभावित करती है। पठनीय भी है।
बधाई हो !
भाषा बुरी तो नहीँ मगर युगानुकूल नहीँ है।आप तो शास्त्री हैँ । सब समझते हैँ इस लिए अन्यथा नहीँ लेँ।
बढ़िया रचना !
जवाब देंहटाएंवाह! जहाँ न पहुंचे रवि वहाँ पहुंचे कवि.
जवाब देंहटाएंक्या कल्पना और क्या सीख. वाह!
शानदार शाहकार.
जवाब देंहटाएंकिन लफ़्ज़ों मे तारीफ़ करूँ………………।एक बेहतरीन संदेश देती सार्थक कविता।
जवाब देंहटाएंwaah bahut sundar rachna
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर जी
जवाब देंहटाएंचाचाजी
जवाब देंहटाएंचावल जितना पुराना हो वह जानदार होता है।
बेहतर रचना हर कालखंड में बेहतर ही होती है।
यह पुराणी रचना तो अद्भुत है....सुन्दर शब्द संयोजन और सहजता से कही सत्य बात....बहुत अच्छी लगी ये रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर.
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