गुमनामों की इस बस्ती में, नेकनाम बदनाम हो गये! जो मक्कारी में अव्वल थे, वो अव्वल सरनाम हो गये! जो करते हैं दगा-फरेबी, वो पाते हैं दूध-जलेबी, सच्चाई के सारे जेवर, महफिल में नीलाम हो गये! न्यायालय में न्याय बिक रहा, सरे-आम अन्याय टिक रहा, पंच और सरपंच अधिकतर, पक्के बेईमान हो गये! नेता अभिनय सीख रहे हैं, दोराहों पर चीख रहे हैं, ऊपर से इन्सान लग रहे, भीतर से हैवान हो गये! चौराहों से गांधी-बाबा, देख रहे हैं खून-खराबा, सत्य-अहिंसा वाले गुलशन, बेमौसम वीरान हो गये! |
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बुधवार, 2 जून 2010
“बेमौसम वीरान हो गये!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
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ऊपर से इन्सान लग रहे,
जवाब देंहटाएंभीतर से हैवान हो गये!
यही सच है
सुन्दर रचना
रचना सामयिक स्थिति की जीवन्त तस्वीर है ।
जवाब देंहटाएंक्रोध पर नियंत्रण स्वभाविक व्यवहार से ही संभव है जो साधना से कम नहीं है।
जवाब देंहटाएंआइये क्रोध को शांत करने का उपाय अपनायें !
नेता अभिनय सीख रहे हैं,
जवाब देंहटाएंदोराहों पर चीख रहे हैं,
ऊपर से इन्सान लग रहे,
भीतर से हैवान हो गये!
सटीक और समयानुकूल रचना...ये सब देख कर कष्ट होता है..
चौराहों से गांधी-बाबा,
जवाब देंहटाएंदेख रहे हैं खून-खराबा,
सत्य-अहिंसा वाले गुलशन,
बेमौसम वीरान हो गये!
सटीक बात कही , यही हो रहा है !
sateek nishane pe laga hai teer...waise kaafi kuch inhi gaandhi baba ki den hai...
जवाब देंहटाएंक्या कहने रचना के, बेमिसाल
जवाब देंहटाएंgazab ke bhav preshit kiye hain..........aaj ke jaroorat hai.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा है शास्त्री जी । बधाई।
जवाब देंहटाएंफिर नतमस्तक होता हूं..
जवाब देंहटाएंसटीक बात कही
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा जी.
जवाब देंहटाएंन्यायालय में न्याय बिक रहा,
जवाब देंहटाएंसरे-आम अन्याय टिक रहा,
पंच और सरपंच अधिकतर,
पक्के बेईमान हो गये!
बिल्कुल सही कहा है आपने! बहुत सुन्दरता से आपने सच्चाई को प्रस्तुत किया है!
sach ko khoobsurati se pesh kiya hai sir :)
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