“25 साल पुरानी मेरी एक रचना”
आदमी के प्यार को, रोता रहा है आदमी। आदमी के भार को, ढोता रहा है आदमी।। आदमी का विश्व में, बाजार गन्दा हो रहा। आदमी का आदमी के साथ, धन्धा हो रहा।। आदमी ही आदमी का, भूलता इतिहास है। आदमी को आदमीयत का नही आभास है।। आदमी पिटवा रहा है, आदमी लुटवा रहा। आदमी को आदमी ही, आज है लुटवा रहा।। आदमी बरसा रहा, बारूद की हैं गोलियाँ। आदमी ही बोलता, शैतानियत की बोलियाँ।। आदमी ही आदमी का,को आज है खाने लगा। आदमी कितना घिनौना, कार्य अपनाने लगा।। आदमी था शेर भी और आदमी बिल्ली बना। आदमी अजमेर था और आदमी दिल्ली बना।। आदमी था ठोस, किन्तु बर्फ की सिल्ली बना। आदमी के सामने ही, आदमी खिल्ली बना।। आदमी ही चोर है और आदमी मुँह-जोर है । आदमी पर आदमी का, हाय! कितना जोर है।। आदमी आबाद था, अब आदमी बरबाद है। आदमी के देश में, अब आदमी नाशाद है।। आदमी की भीड़ में, खोया हुआ है आदमी। आदमी की नीड़ में, सोया हुआ है आदमी।। आदमी घायल हुआ है, आदमी की मार से। आदमी का अब जनाजा, जा रहा संसार से।। |
sahi kaha sir aadmi mar chuka...ab to uske bhi jeevashm khoje ja rahe honge....bahut sundar rachna
जवाब देंहटाएंएक ही बात कहूंगा कि हर बात सच लिखी है....
जवाब देंहटाएंdepicting very real
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी, आप आज भी कमाल का काव्य लिखते हैं और तब भी लाजवाब लिखते थे
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया कविता शास्त्री जी बिल्कुल सही कहा आपने आज ला आदमी कुछ इसी तरह से होता जा रहा है..सुंदर कविता के लिए आभार..
जवाब देंहटाएंसच्चाई को कितनी सुन्दरता से शब्दों मे पिरोया है शास्त्री जी आपनें.
जवाब देंहटाएंबधाई.
२५ साल पहले कही गयी आज की सच्चाई ! आभार !
जवाब देंहटाएंआदमी घायल हुआ है, आदमी की मार से।
जवाब देंहटाएंआदमी का अब जनाजा, जा रहा संसार से।।
यही तो बिडम्बना है कि मार खाकर जिन्दा रहता है आदमी
बहुत बेहतरीन!
जवाब देंहटाएं25 saal pehle ki rachnaa bhi bilkul nayi jaisi lagti hai!
जवाब देंहटाएंbahut hee sundar guru ji!
बहुत बढ़िया कविता शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएं25 साल पहले भी यही था और आज भी...एक कालजयी रचना है ...सुंदरता से अभिव्यक्त किया है
जवाब देंहटाएंकुछ सच हर काल मे अटल रहते हैं और ये उन मे से एक है……………बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआदमी को आदमीयत का नही आभास है।।
जवाब देंहटाएंआदमी था ठोस, किन्तु बर्फ की सिल्ली बना।
behtareen panktiyaan
हिन्दी के गजलकार दुष्यंत की याद ताजा हो गई आपकी यह रचना पढ़कर। यूं ही लिखते रहे।
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