♥ एक पुरानी रचना ♥ नभ में कितने घन-श्याम घिरे, बरसी न अभी जी भर बदली। मुस्कान सघन-घन दे न सके, मुरझाई आशाओं की कली। ------------ प्यासा चातक, प्यासी धरती, प्यास लिए, अब फसल चली। प्यासी निशा - दिवस प्यासे, प्यासी हर सुबह-औ-शाम ढली। ------------- वन, बाग, तड़ाग, सुमन प्यासे, प्यासी ऋषियों की वनस्थली। खग, मृग, वानर, जलचर प्यासे, प्यासी पर्वत की तपस्थली। ---------------- सूखा क्यों जलद तुम्हारा उर, मानव मन की मनुहार सुनो। इतने न बनो घनश्याम निठुर, चातक की करुण पुकार सुनो। ---------------- फिर आओ गगन तले बादल, अब तो मन-तन जी-भर बरसो। विरहिन की ज्वाल, करो शीतल, जाना अपने घर, कल - परसो। |
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शनिवार, 12 जून 2010
“जाना अपने घर, कल - परसो!” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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jaana apne ghar kal parson
जवाब देंहटाएंbahut sundar
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
बहुत सुन्दर रचना है बधाई।
जवाब देंहटाएंbahut sundar sirji...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना है
जवाब देंहटाएंसूखा क्यों जलद तुम्हारा उर,
जवाब देंहटाएंमानव मन की मनुहार सुनो।
इतने न बनो घनश्याम निठुर,
चातक की करुण पुकार सुनो।
Waah, Bahut sundar Shashtri ji.
सही अर्थों में बादलों को पुकारती रचना...बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंइतने न बनो घनश्याम निठुर,
जवाब देंहटाएंचातक की करुण पुकार सुनो।
यह पुकार फलीभूत होगी ही. सुन्दर रचना
bahut he badhiya varnan guru jii
जवाब देंहटाएंजल बिन सब सूना है | बहुत सुंदर भाव लिए कविता
जवाब देंहटाएंआशा
हमें भी इन्तजार है बादलों के बरसने का...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ! बहुत सुन्दर रचना है !
जवाब देंहटाएंसूखा क्यों जलद तुम्हारा उर,
जवाब देंहटाएंमानव मन की मनुहार सुनो।
इतने न बनो घनश्याम निठुर,
चातक की करुण पुकार सुनो।
बहुत ही सुन्दर भावभीनी रचना।
अभी अभी हमारे यहाँ बारिश हो रही है ...सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लिखा है आपने! लाजवाब प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंबारिश की चाह में लिखी रचना अच्छी है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता..आनन्द आया.
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