सब्जी, चावल और गेँहू की, सिमट रही खेती सारी। शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।। बाग आम के-पेड़ नीम के आँगन से कटते जाते हैं, जीवन देने वाले वन भी, दिन-प्रतिदिन घटते जाते है, लगी फूलने आज वतन में, अस्त्र-शस्त्र की फुलवारी। शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।। आधुनिक कहलाने को, पथ अपनाया हमने विनाश का, अपनाकर पश्चिमीसभ्यता नाम दिया हमने विकास का, अपनी सरल-शान्त बगिया में सुलगा दी है चिंगारी। शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।। दूध-दही की दाता गइया, बिना घास के भूखी मरती, कूड़ा खाने वाली मुर्गी, पुष्टाहार मजे से चरती, सुख के सूरज की आशाएँ तकती कुटिया बेचारी। शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।। बालक तरसे मूँगफली को, बिल्ले खाते हैं हलवा, सत्ता की कुर्सी हथियाकर, काजू खाता है कलवा, निर्धन कृषक कमाता माटी, दाम कमाता व्यापारी। शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।। मुख में राम बगल में चाकू, कर डाला बरबाद सुमन, आचारों की सीख दे रहा, अनाचार का अब उपवन, गरलपान करना ही अब तो जन-जन की है लाचारी। शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।। |
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बुधवार, 1 दिसंबर 2010
“उग रहे भवन भारी..” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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उत्कृष्ट भाव ,उत्तम रचना .Hats off to you Sir!
जवाब देंहटाएंबालक तरसे मूँगफली को, बिल्ले खाते हैं हलवा,
जवाब देंहटाएंसत्ता की कुर्सी हथियाकर, काजू खाता है कलवा,
बेहतरीन समसामयिक रचना
स्थिति यहीं है और अवसर भी तो हमी दे रहे हैं
आज के हालात का सटीक चित्रण्……………सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंसब्जी, चावल और गेँहू की, सिमट रही खेती सारी।
जवाब देंहटाएंशस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।।
सही बात है शायद कभी ऐसा समय भी आयेगा जब सब कुछ हमे गमलों मे उगाना पडेगा। बडःाती हुयी आबादी और विकास से जगह ही कहाँ बचेगी। बहुत अच्छी रचना । बधाई।
सारी वस्तुस्थिति लिख डाली !!!
जवाब देंहटाएंसारगर्भित रचना!
सादर!
शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी.nice
जवाब देंहटाएंइस पीड़ा क कोई अन्त भी तो नहीं दीखता.
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
अच्छी रचना, थोड़ी सपाट है इसमें बिम्बों का कुछ प्रयोग होता तो और अच्छी होती।
जवाब देंहटाएंमन-संस्कृति में बदलाव आ रहा है।
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंसार्थक एवं सामयिक कविता। समाज जिस तेजी से गर्त में जा रहा है , उसका बेहतरीन चित्रण किया है आपने इस कविता में। अब तो आम जनता गरलपान के लिए ही मजबूर है।
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abhi to aur ugne baaki hai guru ji...dekhte rahiye!
जवाब देंहटाएंआज कि परिस्थिति को सहज और अरलता से सटीक शब्द दिए हैं ...सुन्दर छंद बद्ध रचना ..
जवाब देंहटाएंउग रहे भवन भारी -भारी
जवाब देंहटाएंमिटाकर खूबसूरत वन उपवन
कर रहे अपकार भारी ....
बिगड़ते प्राकृतिक संतुलन पर अच्छी कविता
आभार !
बालक तरसे मूँगफली को, बिल्ले खाते हैं हलवा,
जवाब देंहटाएंसत्ता की कुर्सी हथियाकर, काजू खाता है कलवा,
निर्धन कृषक कमाता माटी, दाम कमाता व्यापारी।
शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।।
आज की सामाजिक व्यवस्था पर सटीक व्यंग्य..आभार