अणु और परमाणु-बम भी, सफल नही हो पायेंगे।। सागर में डुबो फेंक दो अब, तलवार तोप और भालों को। सेना में भर्ती कर लो, कुछ खादी वर्दी वालों को।। शासन से कह दो अब, करना सेना का निर्माण नही। छाँट-छाँट कर वीर-सजीले, भरती करना ज्वान नही।। फौजों का निर्माण, शान्त उपवन में आग लगा देगा। उज्जवल धवल पताका में, यह काला दाग लगा देगा। नही चाहिए युद्ध-भूमि में, कुछ भी सैन्य सामान हमें। युद्ध-क्षेत्र में, कर्म-क्षेत्र में, करना है आराम हमें।। शत्रु नही भयभीत कदापि, तोप, टैंक और गोलों से। इनको भय लगता है केवल, नेताओं के बोलों से।। रण-भूमि में कुछ कारीगर, मंच बनाने वाले हों। लाउड-स्पीकर शत्रु के दिल को दहलाने वाले हों।। सजे-धजे अब युद्ध-मंच पर, नेता अस्त्र-शस्त्र होंगे। सिर पर शान्ति-ध्वजा टोपी, खादी के धवल-वस्त्र होंगे। गोलों की गति से जब नेता, भाषण ज्वाला उगलेंगे। तरस बुढ़ापे पर खाकर, शत्रु के दिल भी पिघलेंगे।। मोतिया-बिन्द वाली आँखों से, वैरी नही बच पायेगा। भारी-भरकम भाषण से ही, जीते-जी मर जायेगा।। सेना में इन वृद्धजनों को, निज जौहर दिखलाना है। युवकों के दिन बीत गये, बुड्ढों को पाँव जमाना है।। |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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बुधवार, 29 फ़रवरी 2012
"बुड्ढों को पाँव जमाना है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012
"निर्वाचन का दौर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
![]() भारत की महानता का, नही है अतीत याद, वोट माँगने को, नेता आया बिनबुलाया है। देश का कहाँ है ध्यान, होता नित्य सुरापान, जाति, धर्म, प्रान्त जैसे, मुद्दों को भुनाया है। युवराज-सन्त चल पड़े, गली-हाट में, निर्वाचन के दौर ने, ये दिन भी दिखाया है। |
सोमवार, 27 फ़रवरी 2012
"मुझको दर्पण दिखलाया क्यों?" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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मेरे वैरागी उपवन में,
दिन-रैन चैन नही आता था,
रविवार, 26 फ़रवरी 2012
"होली लेकर, फागुन आया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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फागों और फुहारों की।।
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गूँज सुनाई देती अब भी,
बम-भोले के नारों की।।
पवन बसन्ती मन-भावन है,
मुदित हो रहा सबका मन है,
चहल-पहल फिर से लौटी है,
घर - आँगन, बाजारों की।।
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कोयल की मीठी बानी है,
परिवेशों में सुन्दरता है,
दुल्हिन के श्रृंगारों की।।
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शनिवार, 25 फ़रवरी 2012
"होली आई है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
तीन दिनों के लिए बाहर जा रहा हूँ!
मैंने रचनाओं को शैड्यूल कर दिया है,
जो रोज प्रकाशित होती रहेंगी!
शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012
"कुछ तराने नये मचलते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
![]() बेक़रारी के खाद-पानी से, कुछ तराने नये मचलते हैं। पत्थरों के जिगर को छलनी कर, नीर-निर्झर नदी में ढलते हैं।। आह पर वाह-वाह! करते हैं, जब भी हम करवटें बदलते हैं। वो समझते हैं पीड़ को मस्ती, नग़मग़ी राग जब निकलते हैं। दिल की लगी, दिल्लगी समझते हैं, कब्र पर जब च़राग जलते हैं। अपनी गर्दन झुका नहीं पाते, “रूप” को देख हाथ मलते हैं। |
"आ जाएगा जीने का ढंग!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
![]() भावनाओं का ज्वार बढ़ जाता है तब बुद्धि मन्द हो जाती है लाचारगी और बेचारगी का साया मन पर अधिकार कर लेता है निश्चय और अनिश्चय में झूलने लगता है मन प्राण और देह आते रहते हैं नकारात्मक भाव लेकिन कुछ समय बाद ज्वार निकल जाता है सोच बदलने लगती है तो बुद्धि भी काम करने लगती है ![]() हो जाता है समस्याओं का हल खिल जाता है मन का कमल मिल जाता है आशातीत परिणाम विषम परिस्थियों में धैर्य और विवेक रखना होगा अपने संग तो खुद-ब-खुद आ जाएगा जीने का ढंग!! |
बुधवार, 22 फ़रवरी 2012
"अब भी हमारे गाँव में...." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
चाक-ए-दामन सी रहा अब भी हमारे गाँव में।। सभ्यता के ज़लज़लों से लड़ रहा है रात-दिन, रंज-ओ-ग़म को पी रहा अब भी हमारे गाँव में। मिल रही उसको तसल्ली देखकर परिवार को, इसलिए ही जी रहा अब भी हमारे गाँव में। जानता है ज़िन्दगी की हो रही अब साँझ है, हाड़ अपने धुन रहा अब भी हमारे गाँव में। “रूप” में ना नूर है, तेवर नहीं अब वो रहे, थान मखमल बुन रहा अब भी हमारे गाँव में। |
मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012
"आदरणीय “रविकर” जी को समर्पित-पाँच दोहे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
मेरे चित्र पर दो टिप्पणियाँ की थी! गेहूं जामे गजल सा, सरसों जैसे छंद | जामे में सोहे भला, सूट ये कालर बंद || प्रत्युत्तर दें “उत्तर” सुटवा कालर बंद || उसी के उत्तर में पाँच दोहे समर्पित कर रहा हूँ! -0-0-0-0-0- वृद्धावस्था में कहाँ, यौवन जैसी धूप।१। गेहूँ उगता ग़ज़ल सा, सरसों करे किलोल। बन्द गले के सूट में, ढकी ढोल की पोल।२। मौसम आकर्षित करे, हमको अपनी ओर। कनकइया डग-मग करे, होकर भावविभोर।३। कड़क नहीं माँझा रहा, नाज़ुक सी है डोर। पतंग उड़ाने को चला, बिन बाँधे ही छोर।४। पत्रक जब पीला हुआ, हरियाली नहीं पाय। ना जाने कब डाल से, पका पान झड़ जाय।५। |
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