फिर से अपने खेत में। सरसों ने पीताम्बर पाया, फिर से अपने खेत में।। हरे-भरे हैं खेत-बाग-वन, पौधों पर छाया है यौवन, झड़बेरी ने "रूप" दिखाया, फिर से अपने खेत में।। नये पात पेड़ों पर आये, टेसू ने भी फूल खिलाये, भँवरा गुन-गुन करता आया, फिर से अपने खेत में।। धानी-धानी सजी धरा है, माटी का कण-कण निखरा है, मोहक रूप बसन्ती छाया, फिर से अपने खेत में।। पर्वत कितना अमल-धवल है, गंगा की धारा निर्मल है, कुदरत ने सिंगार सजाया, फिर से अपने खेत में।। |
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मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012
"कुदरत ने सिंगार सजाया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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शास्त्री जी, कभी सोचता हूँ कि आप अपनी लेखनी कितने मस्त तरीके से अपने आस-पास के माहौल में ही रमाये रखते है ! हाँ, एक विनती है कि उपरोक्त कविता में " खेत में" की जगह "खेतों में" कर दें तो पठान में और आनंद आयेगा !
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी, बहुत सुंदर प्रस्तुति बेहतरीन रचना,.....
जवाब देंहटाएंक्षमा, कृपया पठान को पठन पढ़े !
जवाब देंहटाएंbadhiya , yoon hi chalti rahe aapki lekhni ...
जवाब देंहटाएंbahut sundar samayik rachna prakarti ki bhi apni chhata nirali hai.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सृजन ,
जवाब देंहटाएंसार्थक पोस्ट, आभार.
मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की नवीनतम पोस्ट पर आप सादर आमंत्रित हैं.
बहुत सुन्दर ..
जवाब देंहटाएंमैं भी अपने लिये ऐसे ही स्थान पर खडे होने का स्वप्न देखता हूं... मधुर रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआप बिलकुल मेरे पिताजी की तरह लिखते हैं..
जवाब देंहटाएंसुन्दर सरल शब्दों का अद्भुत संयोजन..
kalamdaan.blogspot.in
गेहूं जामे गजल सा,
जवाब देंहटाएंसरसों जैसे छंद |
जामे में सोहे भला,
सूट ये कालर बंद ||
सुटवा कालर बंद ||
हटाएंवसंत ऋतु में प्रकृति की छटा निराली होती है आपकी कविता में प्रकृति का बहुत सुंदर चित्रण किया गया है. बधाई इस खूबसूरत पेशकश के लिये.
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है अपने खेत में।
जवाब देंहटाएंआदरणीय रविकर जी ने
जवाब देंहटाएंमेरे चित्र पर टिप्पणी की थी!
रविकर Feb 21, 2012 04:16 AM
गेहूं जामे गजल सा,
सरसों जैसे छंद |
जामे में सोहे भला,
सूट ये कालर बंद ||
प्रत्युत्तर दें
“उत्तर”
रविकर Feb 21, 2012 04:19 AM
सुटवा कालर बंद ||
उसी के उत्तर में पाँच दोहे
आदरणीय “रविकर” जी को
समर्पित कर रहा हूँ!
रविकर जी को भा रहा, अब भी मेरा रूप।
वृद्धावस्था में कहाँ, यौवन जैसी धूप।।
गेहूँ उगता ग़ज़ल सा, सरसों करे किलोल।
बन्द गले के सूट में, ढकी ढोल की पोल।।
मौसम आकर्षित करे, हमको अपनी ओर।
कनकइया डग-मग करे, होकर भावविभोर।।
कड़क नहीं माँझा रहा, नाज़ुक सी है डोर।
पतंग उड़ाने को चले, बिन बाँधे ही छोर।।
पत्रक जब पीला हुआ, हरियाली नहीं पाय।
ना जाने कब डाल से, पका पान झड़ जाय।।
दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
हटाएंhttp://dineshkidillagi.blogspot.in/2012/02/links.html
माता होय कुरूप अति, होंय पिता भी अंध |
हटाएंवन्दनीय ये सर्वदा, अतिशय पावन बंध ||
बंध = शरीर
उच्चारण अतिशय भला, रहे सदा आवाज |
शब्द छीजते हैं नहीं, पञ्च-तत्व कर लाज ||
देव आज देते चले, फिर से पैतिस साल |
स्वस्थ रहेंगे सर्वदा, नौनिहाल सौ पाल ||
खेतों का श्रंगार करती कविता..
जवाब देंहटाएंयौवन जैसा रूप तो, नही वृद्धावस्था का मोहताज़
जवाब देंहटाएंआप गुनो की ख़ान हैं खोल रहे हम राज
चाचा जी का रूप हैं जैसे सुन्दर प्यारा मोर
जवाब देंहटाएंबंद गले का कोट क्या..जचे इन पे सब कोय
बढिया रचना।
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