जन्मदिन को मनाते बहुत लाड़ से, साड़ी लाते हमेशा ही बाज़ार से। किन्तु इस बार उपहार है कुछ अलग, गाड़ी लाये तुम्हारे लिए प्यार से।। |
श्रीमती अमर भारती जी! यह रहा आपका जन्मदिन का तोहफा! |
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जन्मदिन को मनाते बहुत लाड़ से, साड़ी लाते हमेशा ही बाज़ार से। किन्तु इस बार उपहार है कुछ अलग, गाड़ी लाये तुम्हारे लिए प्यार से।। |
श्रीमती अमर भारती जी! यह रहा आपका जन्मदिन का तोहफा! |
विदा हुई बरसात, महीना अब असौज का आया। जल्दी ढलने लगा सूर्य, जाड़े ने शीश उठाया।। श्राद्ध गये, नवरात्र आ गये, मंचन करते, पात्र भा गये, रामचन्द्र की लीलाओं ने, सबका मन भरमाया। जल्दी ढलने लगा सूर्य, जाड़े ने शीश उठाया।। विजयादशमी आने वाली, दस्तक देने लगी दिवाली, खेत और खलिहानों ने, कंचन सा रूप दिखाया। जल्दी ढलने लगा सूर्य, जाड़े ने शीश उठाया।। मूँगफली के होले भाये, हरे सिंघाड़े बिकने आये, नया-नया गुड़ खाने को, अब मेरा मन ललचाया। जल्दी ढलने लगा सूर्य, जाड़े ने शीश उठाया।। |
आज मेरे देश को क्या हो गया है? मख़मली परिवेश को क्या हो गया है?? पुष्प-कलिकाओं पे भँवरे, रात-दिन मँडरा रहे, बागवाँ बनकर लुटेरे, वाटिका को खा रहे, सत्य के उपदेश को क्या हो गया है? मख़मली परिवेश को क्या हो गया है?? धर्म-मज़हब का हमारे देश में सम्मान है, जियो-जीने दो, यही तो कुदरती फरमान है, आज इस आदेश को क्या हो गया है? मख़मली परिवेश को क्या हो गया है?? खोजते दैर-ओ-हरम में राम और रहमान को, एकदेशी समझते हैं, लोग अब भगवान को, धार्मिक सन्देश को क्या हो गया है? मख़मली परिवेश को क्या हो गया है?? |
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सत्ता के रास्तों से, वो दूर हो गये हैं। सुख के हसीन सपने, सब चूर हो गये हैं।। अब ठाठ-बाट सारे, सब हो गये किनारे, मशहूर थे कभी जो, मजबूर हो गये हैं। सुख के हसीन सपने, सब चूर हो गये हैं।। लगते थे जो गरल से, अब हो गये सरल से, जागीरदार भी अब, मजदूर हो गये हैं। सुख के हसीन सपने, सब चूर हो गये हैं।। छल-छद्म के बहाने, जग को लगे डराने, सच्चाइयों के आगे, बेनूर हो गये हैं। सुख के हसीन सपने, सब चूर हो गये हैं।। |
जब आता है दुःख तभी, लोचन तन-मन धोता है। आँसू का अस्तित्व, नहीं सागर से कम होता है।। हार नही मानी जिसने, बहती नदियों-नहरों से, जल को लिया समेट स्वयं, गिरती-उठती लहरों से, रत्न वही पाता है जो, मंथक सक्षम होता है। आँसू का अस्तित्व, नहीं सागर से कम होता है।। जो फूलों के संग काँटों को, सहन किये जाता है, जो अमृत के साथ गरल का, घूँट पिये जाता है, शीत, ग्रीष्म और वर्षा में, वो नहीं असम होता है। आँसू का अस्तित्व, नहीं सागर से कम होता है।। |
रचना बाँच सुवासित मन हो! पागलपन में भोलापन हो! ऐसा पागलपन अच्छा है!! घर जैसा ही बना भवन हो! महका-चहका हुआ वतन हो! ऐसा अपनापन अच्छा है!! प्यारा सा अपना आँगन हो! निर्भय खेल रहा बचपन हो! ऐसा बालकपन अच्छा है!! निर्मल सारा नील-गगन हो! खुशियाँ बरसाता सा घन हो! ऐसा ही सावन अच्छा है!! खिला हुआ अपना उपवन हो! प्यार बाँटता हुआ सुमन हो! ऐसा ही तो मन अच्छा है!! मस्ती में लहराता वन हो! हरा-भरा सुन्दर कानन हो! ऐसा ही कानन अच्छा है!! ऐसे बगिया-बाग-चमन हों! जिसमें आम-नीम-जामुन हों! ऐसा ही उपवन अच्छा है!! छाया चारों ओर अमन हो! शब्दों से सज्जित आनन हो! ऐसा जन-गण-मन अच्छा है!! ऐसा पागलपन अच्छा है!! |
पतझड़ के मौसम में, सुन्दर सुमन कहाँ से लाऊँ मैं? वीराने मरुथल में, कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं? बीज वही हैं, वही धरा है, ताल-मेल अनुबन्ध नही, हर बिरुअे पर धान लदे हैं, लेकिन उनमें गन्ध नही, खाद रसायन वाले देकर, महक कहाँ से पाऊँ मैं? वीराने मरुथल में, कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं? उड़ा ले गई पश्चिम वाली, आँधी सब लज्जा-आभूषण, गाँवों के अंचल में उभरा, नगरों का चारित्रिक दूषण, पककर हुए कठोर पात्र अब, क्या आकार बनाऊँ मैं? वीराने मरुथल में, कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं? गुरुवर से भयभीत छात्र, अब नहीं दिखाई देते हैं, शिष्यों से अध्यापक अब तो, डरे-डरे से रहते हैं, संकर नस्लों को अब कैसे, गीता ज्ञान कराऊँ मैं? वीराने मरुथल में, कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं? पतझड़ के मौसम में, सुन्दर सुमन कहाँ से लाऊँ मैं? वीराने मरुथल में, कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं? |
आषाढ़ से आकाश अब तक रो रहा है।बादलों को इस बरस क्या हो रहा है?आज पानी बन गया जंजाल है,भूख से पंछी हुए बेहाल हैं,रश्मियों को सूर्य अपनी खो रहा है।बादलों को इस बरस क्या हो रहा है?कब तलक नौका चलाएँ मेह में,भर गया पानी गली और गेह में,इन्द्र जल-कल खोल बेसुध सो रहा है।बादलों को इस बरस क्या हो रहा है?बिन चुगे दाना गगन में उड़ चले,घोंसलों की ओर पंछी मुड़ चले,दिन-दुपहरी दिवस तम को ढो रहा है।बादलों को इस बरस क्या हो रहा है?धान खेतों में लरजकर पक गया है,घन गरजकर और बरसकर थक गया है,किन्तु क्यों नगराज छागल ढो रहा है?बादलों को इस बरस क्या हो रहा है?देखकर अतिवृष्टि क्यों हैरान इतना हो रहा,पुण्य सलिला में निरन्तर पाप अपने धो रहा,उग रही वैसी फसल जैसी धरा में बो रहा है।बादलों को इस बरस क्या हो रहा है? |