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सोमवार, 27 सितंबर 2010
"छोड़ नगर का मोह" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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चलो गाँव की ओर...बड़ी जीवन्तता है इस कविता में..बधाई.
जवाब देंहटाएंगाँव को ही शहर बनायें
जवाब देंहटाएंसारी सुविधाएँ पहुंचाएं
चलें गाँव की ओर
बहुत खूबसूरत रचना .
सही कहा है आपने! अगर हम गाँव को शहर में परिवर्तन कर दें तो सबसे अच्छा रहेगा! बहुत ख़ूबसूरत रचना! मन प्रसन्न हो गया!
जवाब देंहटाएंभाभी भोजन लेकर आयें,
जवाब देंहटाएंमट्ठा बाट रहा है जोह!
मट्ठा के नाम से मुँह मे पानी आगया। बधाई इस रचना के लिये।
शास्त्री जी,
जवाब देंहटाएंक्या हम गाँव के मोह से मुक्त हो पाए हैं, वहाँ कुछ भी नहीं सही फिर भी वहाँ वो है जिसके लिए हम नगर में तरसते है. बस न सही बैलगाड़ी की सैर आज भी याद आती है. चनों के बूंट अभी भूले नहीं है. आपने फिर यादताजा कर दी.
सच कहा…………अगर ज़िन्दगी मे दो पल का सुकून चाहिये तो वो वहीं मिलेगा॥बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर शब्द रचना, भावमय प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंमुझे भी जाना है गाँव...बहुत सुन्दर कविता.
जवाब देंहटाएंअभी नहीं शास्त्री जी, जब रिटायर होने की उम्र आयेगी तब, मैंने तो अभी से इंतजाम कर रखा है ! ख़ूबसूरत सन्देश देती रचना !
जवाब देंहटाएंहम तो गांव में ही रहते हैं। अब के गांव इंटरनेटी गांव हैं।
जवाब देंहटाएंभई बहुत खूब लिखा है
जवाब देंहटाएंछोड़ नगर का मोह
आओ चलें गांव की ओर
http://veenakesur.blogspot.com/
आदरणीय
जवाब देंहटाएंमयंक जी,
आपने तो इस रचना में ग्राम्यांचल की तस्वीर रेखाचित्रित कर दी है.
- विजय
बहुत सुंदर रचना सुंदर संदेश देती, वेसे मेरी तो बहुत सि जिन्दगी गांव मै ही बीती है, आज भी गांव मै ही हुं, धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंइसना सुन्दर चित्र खींचा है, सब भागने भी लगे हैं, गाँव की ओर।
जवाब देंहटाएंगाँव की ज़िन्दगी प्रकृति के अनुकूल है और मानव भी उसी का अंग है,जबकि शहर तो कृत्रिम व मशीनी साँस पर चलता है...
जवाब देंहटाएंआपकी इस कविता को पढ़कर गांव का दृश्य सजीव हो उठा।
जवाब देंहटाएंछोटे शहर का हमेशा यह दुख होता है कि वह बड़ा शहर क्यों न हुआ , वह सोचता है इससे अच्छा तो गाँव होता ।
जवाब देंहटाएं" behatarin ..gaon ko nazaroan ke samne khaa kar diya aapne
जवाब देंहटाएंbadhai
----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
आपने इस कविता में ग्राम्य जीवन का इतना सुन्दर चित्रण किया है कि अब तो हमारा भी मन करने लगा है कि कम से कम कुछ दिन अब अपने गाँव का आनन्द लिया जाए....
जवाब देंहटाएंग्रामीण अंचल की बहुत सुन्दर झाँकी प्रस्तुत की आपने....सच में गाँव का एक अपना ही अलग सुख है, जो शहरी जीवन में नहीं मिल सकता.
जवाब देंहटाएंबढिया प्रस्तुति!
गाँव का आकर्षण और उसकी विविधता खींचती ही है.
जवाब देंहटाएंचले गाँव की और ...
जवाब देंहटाएंएक सार्थक अपील ...!
kavita ke madhyam se achcha bhaav purn sandesh diya hai.shayad gaon se shahar aane vaale logon ko kuch samajh aaye.sahi kaha hai akanksha ji ne gaon ko hi shahar bana sakte hain,prayas ki jarurat hai.
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता.
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी
जवाब देंहटाएंआपने तो बचपन की याद तजा कर दी ,शायद अब वो दिन कभी लौट के ना आयें अब तो गाँव भी बदल गए है
कहते है हमारा देश गाँव में बस्ता है और अब तो खुद गाँव ही शहर में बसने की जिद पे अड़ा हुआ है ..
भावों में बहुत कशिश है आपके
आपकी कविता पढ़कर मुझे अपनी कुछ पंक्तियाँ याद आ गयी आप भी देखिये मेरी ख़ुशी के लिए
http://nirjharneer.blogspot.com/2008/10/blog-post_14.html
चलो.. बहुत सही..
जवाब देंहटाएंहमारा भी मन गांव की ओर जा रहा है.. लेकिन मजबूरी है.. जरुरत शहर और गांव के बीच सन्तुलन की है.. सुन्दर कविता के लिये बधाई!
जवाब देंहटाएंवाह...बहुत ही मोहक आह्वान ...
जवाब देंहटाएंइस सुन्दर कविता के लिए आभार आपका.
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंयहाँ भी पधारें:-
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