पतझड़ के मौसम में, सुन्दर सुमन कहाँ से लाऊँ मैं? वीराने मरुथल में, कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं? बीज वही हैं, वही धरा है, ताल-मेल अनुबन्ध नही, हर बिरुअे पर धान लदे हैं, लेकिन उनमें गन्ध नही, खाद रसायन वाले देकर, महक कहाँ से पाऊँ मैं? वीराने मरुथल में, कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं? उड़ा ले गई पश्चिम वाली, आँधी सब लज्जा-आभूषण, गाँवों के अंचल में उभरा, नगरों का चारित्रिक दूषण, पककर हुए कठोर पात्र अब, क्या आकार बनाऊँ मैं? वीराने मरुथल में, कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं? गुरुवर से भयभीत छात्र, अब नहीं दिखाई देते हैं, शिष्यों से अध्यापक अब तो, डरे-डरे से रहते हैं, संकर नस्लों को अब कैसे, गीता ज्ञान कराऊँ मैं? वीराने मरुथल में, कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं? पतझड़ के मौसम में, सुन्दर सुमन कहाँ से लाऊँ मैं? वीराने मरुथल में, कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं? |
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सोमवार, 20 सितंबर 2010
"संकर नस्लों को अब कैसे, गीता पाठ पढ़ाऊँ मैं?" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंअच्छा सन्देश भी
सुंदर और सार्थक रचना के लिये आभार.
जवाब देंहटाएंरामराम.
वाह जी वाह बहुत खूब
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना
बहुत ही सुन्दर भावमय प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंखाद रसायन वाले देकर, महक कहाँ से पाऊँ मैं?
जवाब देंहटाएंसुन्दर सन्देश की रचना
बहुत खूब
गीत बहुत अच्छा है लेकिन प्रजेन्टेशन से गीत नहीं लगता है। इसे सुधारेंगे तो पठनीय बनेगा।
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावमयी और सुन्दर सन्देश देती रचना। साथ ही दर्द भी उजागर हो गया।
जवाब देंहटाएंसंकर नस्लों को अब कैसे, गीता ज्ञान कराऊँ मैं?
जवाब देंहटाएंवीराने मरुथल में, कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?
बहुत सुंदर प्रस्तुति !!
एक बेहतरीन भावपूर्ण गीत....बधाई हो
जवाब देंहटाएंआज भौतिक युग है …मनुष्य ही नहीं वनस्पतियों की नस्लों में भी मिलावट है …और आज के माहौल में किसी को ज्ञान देना असंभव स महसूस हो रहा है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता ...सत्य को चरितार्थ करती हुई ...
आपकी यह रचना कल के साप्ताहिक काव्य मंच ...चर्चा मंच पर ली जा रही है ...आभार
अत्यन्त ओजपूर्ण रचना।
जवाब देंहटाएंसंकर नस्लों को अब कैसे,
जवाब देंहटाएंगीता ज्ञान कराऊँ मैं?
इस पंक्ति को छोड़कर पूरी कविता आसानी से समझ आ गयी. धन्यवाद.
वाह यह अपनी नस्ल में एक नये तरह का गीत लग रहा है ।
जवाब देंहटाएंवीराने मरुथल में,
जवाब देंहटाएंकैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?
the dilemma of poetic heart found wonderful expression in this literary creation of yours!
regards,
आप कहां से लाते हैं इतने शब्द, फिर कैसे उन्हें पिरोते हैं...
जवाब देंहटाएंआदरणीय
जवाब देंहटाएंमयंक जी
सादर वन्दे.
बहुत ही सुन्दर रचना है ये
और इन पंक्तियों की कोई सानी नहीं है :
उड़ा ले गई पश्चिम वाली,
आँधी सब लज्जा-आभूषण,
- विजय तिवारी 'किसलय '
http://www.hindisahityasangam.blogspot.com/
बहुत अच्छी लगी यह रचना....
जवाब देंहटाएंसंकर नस्लों को अब कैसे,
जवाब देंहटाएंगीता ज्ञान कराऊँ मैं?
बहुत सुंदर गीत। आभार।
संकर नस्लों को अब कैसे,
जवाब देंहटाएंगीता ज्ञान कराऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?
समय एक और कृष्ण के इन्तजार में है ...!
सुन्दर तस्वीरों के साथ सुन्दर सन्देश देती हुई उम्दा रचना प्रस्तुत किया है आपने!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंSachmuch ek sundar prastuti
जवाब देंहटाएंक्या खूब कहा , क्या खूब कहा , और कहाँ ले जायेगी ये पश्चिमी हवा ?
जवाब देंहटाएंपतझड़ के मौसम में,
जवाब देंहटाएंसुन्दर सुमन कहाँ से लाऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?
क्यों डरते हो मौसम से
कैसे बागबान के माली हो
ना हार जो उस उपरवाले से...
तुम धारा वासी से हारे हो ?
बीज वही हैं, वही धरा है, ताल-मेल अनुबन्ध नही, हर बिरुअे पर धान लदे हैं,लेकिन उनमें गन्ध नही, खाद रसायन वाले देकर, महक कहाँ से पाऊँ मैं?.....bahut sundar aur saarthak bhav.....aabhar
जवाब देंहटाएंवाह जी वाह बहुत खूब
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना