बस टीस सी उठती है, और दर्द उभरता है भट्टी में पिघलकर ही, तो स्वर्ण निखरता है सच्चाई अगर है तो, कुछ आँच नहीं आती अग्नि की परीक्षा से, तो खोट ही डरता है कलियुग हो या हो सतयुग, त्रेता हो या हो द्वापर प्रह्लाद भक्त का तो, कुछ भी न बिगड़ता है सच्ची लगन अगर हो, दिल में भी आग हो कुछ उसका ही दो-जहाँ में, बस प्यार सँवरता है आशिक है “रूप” का जो, मजनूँ वो क्या बनेगा शीशा चटक गया तो, हरग़िज़ न सुधरता है "विनीत संग पल्लवी-सत्यकथा" |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
Linkbar
फ़ॉलोअर
शनिवार, 7 जनवरी 2012
"दर्द उभरता है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
लोकप्रिय पोस्ट
-
दोहा और रोला और कुण्डलिया दोहा दोहा , मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) मे...
-
लगभग 24 वर्ष पूर्व मैंने एक स्वागत गीत लिखा था। इसकी लोक-प्रियता का आभास मुझे तब हुआ, जब खटीमा ही नही इसके समीपवर्ती क्षेत्र के विद्यालयों म...
-
नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
-
समास दो अथवा दो से अधिक शब्दों से मिलकर बने हुए नए सार्थक शब्द को कहा जाता है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि &qu...
-
आज मेरे छोटे से शहर में एक बड़े नेता जी पधार रहे हैं। उनके चमचे जोर-शोर से प्रचार करने में जुटे हैं। रिक्शों व जीपों में लाउडस्पीकरों से उद्घ...
-
इन्साफ की डगर पर , नेता नही चलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा , उस ओर जा मिलेंगे।। दिल में घुसा हुआ है , दल-दल दलों का जमघट। ...
-
आसमान में उमड़-घुमड़ कर छाये बादल। श्वेत -श्याम से नजर आ रहे मेघों के दल। कही छाँव है कहीं घूप है, इन्द्रधनुष कितना अनूप है, मनभावन ...
-
"चौपाई लिखिए" बहुत समय से चौपाई के विषय में कुछ लिखने की सोच रहा था! आज प्रस्तुत है मेरा यह छोटा सा आलेख। यहाँ ...
-
मित्रों! आइए प्रत्यय और उपसर्ग के बारे में कुछ जानें। प्रत्यय= प्रति (साथ में पर बाद में)+ अय (चलनेवाला) शब्द का अर्थ है , पीछे चलन...
-
“ हिन्दी में रेफ लगाने की विधि ” अक्सर देखा जाता है कि अधिकांश व्यक्ति आधा "र" का प्रयोग करने में बहुत त्र...
बहुत सुन्दर रचना शास्त्री जी | आभार |
जवाब देंहटाएंसच्चाई अगर है तो, कुछ आँच नहीं आती
जवाब देंहटाएंअग्नि की परीक्षा से, तो खोट ही डरता है.
सटीक अभिब्यक्ति - वाह !
Nice , very nice .
जवाब देंहटाएंखरे की पहचान कसौटी पर ही होती हैं.
जवाब देंहटाएंबस टीस सी उठती है, और दर्द उभरता है
जवाब देंहटाएंभट्टी में पिघलकर ही, तो स्वर्ण निखरता है
बहुत सुन्दर,
शास्त्री जी,...आपके दर्द को मै समझ सकता हूँ,
जवाब देंहटाएंजाके पैर न फटे बेवाई,वो क्या जाने पीर पराई,
मन के उठते भावनाओं की सुंदर प्रस्तुति,--काव्यान्जलि--जिन्दगीं--
यह गीत बहुत दर्दीला है,
जवाब देंहटाएंनायक भी बहुत शर्मीला है.
जिगर तो मुह में आता है
पर शब्द नहीं कह पाता है.
अन्दर ही अन्दर घुटता है,
मन ही मन में तडपता है.
देख के उसका निश्छल प्यार,
देने को साथ हम हैं तैयार.
बहुत बढ़िया रचना सर..
जवाब देंहटाएंसादर.
बड़े ही नीतिपरक दोहे, सार गर्भित
जवाब देंहटाएंbahut sundar
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना सर..
जवाब देंहटाएंसमय मिले तो मेरे ब्लॉग पर भी पधारने की कृपा किजियेगा..
http://palchhin-aditya.blogspot.com/
सत्य तो अटल है उसको किसी भी कसौटी की जरूरत नहीं होती. बड़े नीतिपरक रचना है. कुछ सिखा जाती है आपकी कृति.
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब. बेहद सुंदर भाव.
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ती
जवाब देंहटाएंबढिया रचना।
जवाब देंहटाएंवो टूटे आईने के सामने सजता-सँवरता है
जवाब देंहटाएंदरकते आईने की आह पर भी वाह करता है
कभी शीशे के मन के आईने में झाँक कर देखो
हृदय-भट्टी में जलता रूप,सोने सा निखरता है.
धमनभट्टी में पिघला और शीशा बन के था निकला
किसी अग्नि-परीक्षा से नहीं शीशा ये डरता है.
आदरणीय शास्त्री जी, आपकी कविता की टीस ,दर्द और शीशे की चटकन ने मन को झकझोर कर रख दिया.मन में उपजे भावों को टिप्पणी के रूप में लिख दिया है.
बहुत सुन्दर रचना शास्त्री जी | आभार |
जवाब देंहटाएंसच्चाई अगर है तो, कुछ आँच नहीं आती
जवाब देंहटाएंअग्नि की परीक्षा से, तो खोट ही डरता है
इन दो वाक्यों में बहुत सच्चाई है..
कितने लोग सचमुच समझते हैं..
अफ़सोस ! बहुत कम !!
kalamdaan.blogspot.com
बहुत बढिया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंdard ki anubhuti krati sarthak post .
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएं