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मंगलवार, 31 जुलाई 2012
सोमवार, 30 जुलाई 2012
"उलट-पलटकर देख ज़रा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बिन परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।। हर पत्थर हीरा बन जाता, जब किस्मत नायाब हो, मोती-माणिक पत्थर लगता, उतर गई जब आब हो, इम्तिहान में पास हुआ वो, तपकर जिसका तन निखरा। बिन परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।। नंगे हैं अपने हमाम में, नागर हों या बनचारी, कपड़े ढकते ऐब सभी के, चाहे नर हों या नारी, पोल-ढोल की खुल जाती तो, आता साफ नज़र चेहरा। बिन परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।। गर्मी की ऋतु में सूखी थी, पेड़ों-पौधों की डाली, बारिश के मौसम में, छा जाती झाड़ी में हरियाली, पानी भरा हुआ गड्ढा भी, लगता सागर सा गहरा। बिन परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।। |
रविवार, 29 जुलाई 2012
"जैविक पिता और लांछित पिता की त्रासदी" (दयानन्द पाण्डेय)
लेखक के बारे में
दयानंद पांडेय न सिर्फ वरिष्ठ पत्रकार तथा उपन्यासकार हैं. अगर आप उन्हें पढेंगे उन्हें जानेंगे तो पाएंगे कि वो समकालीन पत्रकारिता के लिए एक पूरी संस्था हैं| दयानंद से संपर्क 09415130127, 09335233424 और dayanand.pandey@yahoo.com के जरिए किया जा सकता है
"साफ सफाई करता बेहतर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आज 29 जुलाई को उड़नतश्तरी वाले समीर लाल जी का जन्म दिन है। इस अवसर पर मैं उनको हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाइयाँ प्रेषित करता हूँ! लगभग 2 वर्ष पूर्व उन्होंने मेरी बालकृति “नन्हे सुमन” की भूमिका लिखी थी! सबसे पहले देखिए नन्हे सुमन से यह बालकविता कौआ बहुत सयाना होता। कर्कश इसका गाना होता।। पेड़ों की डाली पर रहता। सर्दी, गर्मी, वर्षा सहता।। कीड़े और मकोड़े खाता। सूखी रोटी भी खा जाता।। सड़े मांस पर यह ललचाता। काँव-काँव स्वर में चिल्लाता।। साफ सफाई करता बेहतर। काला-कौआ होता मेहतर।। एक अद्भुत संसार - ’नन्हें सुमन’ आज की इस भागती दौड़ती दुनिया में जब हर व्यक्ति अपने आप में मशगूल है। वह स्पर्धा के इस दौर में मात्र वही करना चाहता है जो उसे मुख्य धारा में आगे ले जाये, ऐसे वक्त में दुनिया भर के बच्चों के लिए मुख्य धारा से इतर कुछ स्रजन करना श्री रुपचन्द्र शास्त्री’मयंक’ जैसे सहृदय कवियों को एक अलग पहचान देता है। ‘मयंक’ जी ने बच्चों के लिए रचित बाल रचनाओं के माध्यम से न सिर्फ उनके ज्ञानवर्धन एवं मनोरंजन का बीड़ा उठाया है बल्कि उन्हें एक बेहतर एवं सफल जीवन के रहस्य और संदेश देकर एक जागरूक नागरिक बनाने का भी बखूबी प्रयास किया है। पुस्तक ‘नन्हें सुमन’ अपने शीर्षक में ही सब कुछ कह जाती है कि यह नन्हें-मुन्नों के लिए रचित काव्य है। परन्तु जब इसकी रचनायें पढ़ी तो मैंने स्वयं भी उनका भरपूर आनन्द उठाया। बच्चों के लिए लिखी कविता के माध्यम से उन्होंने बड़ों को भी सीख दी है! ‘डस्टर’ बहुत कष्ट देता है’’ कविता का यह अंश बच्चों की कोमल पीड़ा को स्पष्ट परिलक्षित करता है- ‘‘कोई तो उनसे यह पूछे, क्या डस्टर का काम यही है? कोमल हाथों पर चटकाना, क्या इसका अपमान नही है?’’ ‘नन्हें सुमन’ में छपी हर रचना अपने आप में सम्पूर्ण है और उनसे गुजरना एक सुखद अनुभव है। उनमें एक जागरूकता है, ज्ञान है, संदेश है और साथ ही साथ एक अनुभवी कवि की सकारात्मक सोच है। आराध्य माँ वीणापाणि की आराधना करते हुए कवि लिखता है- ‘‘तार वीणा के सुनाओ कर रहे हम कामना। माँ करो स्वीकार नन्हे सुमन की आराधना।। इस धरा पर ज्ञान की गंगा बहाओ, तम मिटाकर सत्य के पथ को दिखाओ, लक्ष्य में बाधक बना अज्ञान का जंगल घना। माँ करो स्वीकार नन्हे सुमन की आराधना।।’’ मेरे दृष्टिकोण से तो यह एक संपूर्ण पुस्तक है जो बाल साहित्य के क्षेत्र में एक नया प्रतिमान स्थापित करेगी। मुझे लगता है कि इसे न सिर्फ बच्चों को बल्कि बड़ों को भी पढ़ना चाहिये। मेरा दावा है कि आप एक अद्भुत संसार सिमटा पायेंगे ’नन्हें सुमन’ में, बच्चों के लिए और उनके पालकों के लिए भी! कवि ‘‘मयंक’’ को इस श्रेष्ठ कार्य के लिए मेरा साधुवाद, नमन एवं शुभकामनाएँ! -समीर लाल ’समीर’ http://udantashtari.blogspot.com/ 36, Greenhalf Drive Ajax, ON Canada |
शनिवार, 28 जुलाई 2012
"घास खाना जानते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
हम गधे इस देश के है, घास खाना जानते हैं। लात भूतों के सहजता से, नहीं कुछ मानते हैं।। मुफ्त का खाया हमॆशा, कोठियों में बैठकर. भाषणों से खेत में, फसलें उगाना जानते हैं। कृष्ण की मुरली चुराई, गोपियों के वास्ते, रात-दिन हम, रासलीला को रचाना जानते हैं। राम से रहमान को, हमने लड़ाया आजतक, हम मज़हव की आड़ में, रोटी पकाना जानते हैं। देशभक्तों को किया है, बन्द हमने जेल में, गीदड़ों की फौज से, शासन चलाना जानते हैं। सभ्यता की ओढ़ चादर, आ गये बहुरूपिये, छद्मरूपी “रूप” से, दौलत कमाना जानते हैं। |
शुक्रवार, 27 जुलाई 2012
"परबत बनेंगे, सड़क धीरे-धीरे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जुबाँ से खुलेंगे, हरफ धीरे-धीरे।। नया है मुसाफिर, नयी जिन्दगी है, नया फलसफा है, नयी बन्दगी है, पढ़ेंगे-लिखेंगे, बरक धीरे-धीरे। जुबाँ से खुलेंगे, हरफ धीरे-धीरे।। उल्फत की राहों की सँकरी गली है, अभी सो रही गुलिस्ताँ की कली है, मिटेगा दिलों का फरक धीरे-धीरे। जुबाँ से खुलेंगे, हरफ धीरे-धीरे।। दुर्गम डगर में हैं चट्टान भारी, हटानी पड़ेंगी, परत आज सारी, परबत बनेंगे, सड़क धीरे-धीरे। जुबाँ से खुलेंगे, हरफ धीरे-धीरे।। |
गुरुवार, 26 जुलाई 2012
“रूप” को छूकर नहीं मैला करो" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
तुम कभी तो प्यार से बोला करो। राज़ दिल के तो कभी खोला करो।। हम तुम्हारे वास्ते घर आये हैं, मत तराजू में हमें तोला करो। ज़र नहीं है पास अपने तो ज़िगर है, चासनी में ज़हर मत घोला करो। डोर नाज़ुक है उड़ो मत फ़लक में, पेण्डुलम की तरह मत डोला करो। राख में सोई हैं कुछ चिंगारियाँ, मत हवा देकर इन्हें शोला करो। आँख से देखो-सराहो दूर से, “रूप” को छूकर नहीं मैला करो। |
"उल्लुओं सी सोच मत रक्खा करो" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
हौसले के साथ में आगे बढ़ो। फासले इतने न अब पैदा करो। जिन्दगी तो है हकीकत पर टिकी, मत इसे जज्बात में रौंदा करो। चाँद-तारों से भरी इस रात में, उल्लुओं सी सोच मत रक्खा करो। बुलबुलों से ज़िन्दगी की सीख लो, राग अंधियारों का मत छेड़ा करो। उलझनों का नाम ही है जिन्दगी, हारकर, थककर न यूँ बैठा करो। छोड़कर शिकवें-गिलों की बात को, मुल्क पर जानो-जिगर शैदा करो। खूबसूरत दिल सजा हर जिस्म में, “रूप” पर इतना न मत ऎंठा करो। |
बुधवार, 25 जुलाई 2012
"उन्हें हम प्यार करते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
हमारा ही नमक खाते, हमीं पर वार करते हैं। जहर मॆं बुझाकर खंजर, जिगर के पार करते हैं।। शराफत ये हमारी है, कि हम बर्दाश्त करते हैं, नहीं वो समझते हैं ये, उन्हें हम प्यार करते हैं। हमारी आग में तपकर, कभी पिघलेंगे पत्थर भी, पहाड़ों के शहर में हम, चमन गुलज़ार करते हैं। कहीं हैं बर्फ के जंगल, कहीं ज्वालामुखी भी हैं, कभी रंज-ओ-अलम का हम, नहीं इज़हार करते हैं। अकीदा है छिपा होगा, कोई भगवान पत्थर में, इसी उम्मीद में हम, रोज ही बेगार करते हैं। नहीं है “रूप” से मतलब, नहीं है रंग की चिन्ता, तराशा है जिसे रब ने, उसे स्वीकार करते हैं। |
मंगलवार, 24 जुलाई 2012
"धोखा मिला चाँदनी रात में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरी पुरानी डायरी से एक ग़ज़ल मन हुआ अनमना बात ही बात में। खो गया मैं कहाँ जाने ज़ज्बात में।। दिल की दौलत लुटाई बड़े चाव से, उसने लूटा खजाना मुलाकात में। जाल पर जाल वो फेंकते ही गये, कितना जादू था उनके ख़यालात में। देर से ही सही सच उजागर हुआ, सिर्फ छल-छद्म था उनकी सौगात में। “रूप” पर उनके दिल था दिवाना हुआ, मुझको धोखा मिला चाँदनी रात में। |
सोमवार, 23 जुलाई 2012
"धरती आज तरसती है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
नदिया-नाले सूख रहे हैं, जलचर प्यासे-प्यासे हैं। पौधे-पेड़ बिना पानी के, व्याकुल खड़े उदासे हैं।। चौमासे के मौसम में, सूरज से आग बरसती है। जल की बून्दें पा जाने को, धरती आज तरसती है।। नभ की ओर उठा कर मुण्डी, मेंढक चिल्लाते हैं। बरसो मेघ धड़ाके से, ये कातर स्वर में गाते हैं।। दीन-कृषक है दुखी हुआ, बादल की आँख-मिचौली से। पानी अब तक गिरा नही, क्यों आसमान की झोली से? तितली पानी की चाहत में दर-दर घूम रही है। फड़-फड़ करती तुलसी की ठूँठों को चूम रही है।। दया करो घनश्याम, सुधा सा अब तो जम करके बरसो। रिमझिम झड़ी लगा जाओ, अब क्यों करते कल-परसों? |
रविवार, 22 जुलाई 2012
"आई तीजो हरियाली" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शुरू हुए रमजान मुकद्दस, आई तीजो हरियाली।। अब आँगन में नहीं, पड़े छत के कुण्डे में झूले हैं, सखियों के संग झूलीं बाला, मन खुशियों से फूले हैं, मेंहदी रची हथेली, अधरों पर लगती प्यारी लाली। शुरू हुए रमजान मुकद्दस, आई तीजो हरियाली।। मेघ-मल्हारों के गानों से, चहका है घर और आँगन, सोंधी-सोंधी गन्ध समायी, महका सारा वन-उपवन, पुरवय्या के झोंके पाकर, झूम रही डाली-डाली। शुरू हुए रमजान मुकद्दस, आई तीजो हरियाली।। बैठी हुई घरों में अपने, बुलबुल गातीं राग मधुर, लहराते हैं धान खेत में, झींगुर बजा रहे नूपुर, टर्र-टर्र मेढक चिल्लाते, घटा देख काली-काली। शुरू हुए रमजान मुकद्दस, आई तीजो हरियाली।। परदेसों में साजन जिनके, उनको विरह सताता है, रिमझिम मस्त फुहारों वाला, पानी आग लगाता है, भँवरों का मीठी गुंजन भी, लगती जैसे हो गाली। शुरू हुए रमजान मुकद्दस, आई तीजो हरियाली।। |
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