(१) "चिड़िया बैठी गा रही, करती यही पुकार। सदा महकता ही रहे, जीवन का संसार।।" (२) "गेहूँ की है दुर्दशा, महँगाई की मार। देख रही है शान से, भारत की सरकार।।" (३) "धरती प्यासी थी बहुत, जन-जीवन बेहाल। धान लगाने के लिए, लालायित गोपाल।।" (४) "माँगा पानी जब कभी, लपटें आयीं पास। जलते होठों की यहाँ, कौन बुझाये प्यास।। (५) "बात-बात में हो रही, आपस में तकरार। प्यार-प्रीत की राह में, आया है व्यापार।।" (६) "उमड़-घुमड़कर आ रहे, अब नभ में घनश्याम। दुनिया को मिलने लगा, गर्मी से आराम।।" (७) “झुकी पत्तियाँ पेड़ की, करती है प्रणाम। बरसो बारिस जोर से, मिलता है आराम।।“ (८) "धरा-गगन में हो रहा, उत्सव का माहौल। चपला देती रौशनी, बादल बोले बोल।।" (९) "बैठा जीवन शाख पे, पाखी गाता गीत। बीते युग को याद कर, बजा रहा संगीत।।" (१०) "बीज उगा जब धरा में, शुरू हो गया चक्र। लेकिन मानव कर रहा, अपनी भौहें वक्र।।" (११) "नेह हमारा साथ है, ईश्वर पर विश्वास। अन्धकार को चीर के, फैले धवल उजास।।" (१२) "सावन आया झूमकर, बम-भोले का नाद। चौमासे में मनुज तू, शंकर को कर याद।।" (१३) "कदम-कदम पर सुलगते, जीवन में अंगार। अश्कों से कैसे बुझें, ज्वाला के अम्बार।। (१४) “उल्लू को भाता नहीं, दिन का प्यारा साथ। अंधकार को खोजता, सदा मनाता रात।।" (१५) "तेला जी ने रच दिये, हास्य-व्यंग्य के रंग। अपने भारत देश के, बिगड़ गये हैं ढंग।।" (१६) "सहज योग की प्रेरणा, करती है कुलश्रेष्ठ। आओ जन्म सुधार लें, सीख सिखाते ज्येष्ठ।।" (१७) "दौलत पाने के लिए, तान रहे बन्दूक। जीवित माता-पिता का, लूट रहे सन्दूक।।" (१८) "अपने झण्डे के लिए, डण्डे रहे सँभाल। जनमानस को ठग रहे, भरते घर में माल।।" (१९) "राजनीति की बिछ रहीं, चारों ओर बिसात। आम आदमी पर पड़ी, केवल शह और मात।।" (२०) "नौका लहरों में फँसी, बेबस खेवनहार। ऐसा नाविक चाहिए, जो ले जाये पार।।" (२१) "काली छतरी ओढ़ के, आते गोरे लोग। बारिश में करते सभी, छाते का उपयोग।।" (२२) "सपन सलोने नैन में, आते हैं दिन-रात। लेकिन सच होती नहीं, इन सपनों की बात।।" (२३) "सूरज आया गगन में, फैला धवल प्रकाश। मूरख दीपक हाथ ले, खोज रहा उजियास।।“ (२४) "कब तक बीनेगा इसे, पूरी काली दाल। बैठा है जिस शाख पे, काट रहा वो डाल।।" (२५) "महँगाई की मार से, जन-जीवन है त्रस्त। निर्धन, श्रमिक-किसान के, हुए हौसले पस्त।।" |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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शनिवार, 7 जुलाई 2012
"दोहा पच्चीसी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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यथार्थ उजागर करती रचना...
जवाब देंहटाएंसभी दोहे बहुत शानदार है...
और जीवन की सच्चाई है.
शानदार पोस्ट....
:-)
शानदार सार्थक दोहे....आभार शास्त्री जी...
जवाब देंहटाएंक्या बात
जवाब देंहटाएंसार्थक संदेश देते दोहे
बहुत बढिया
गहरी बातें.
जवाब देंहटाएंदोहे चर्चा मंच से, चोरी हुवे पचीस ।
जवाब देंहटाएंदर्ज करता हूँ रपट, दोहे बड़े नफीस ।
दोहे बड़े नफीस, यहाँ न फीस दे गया ।
शामिल धीर-सुशील, छोड़ते हैं शरम - हया ।
रविकर करे अपील, मिले दोहा पच्चीसी ।
मत दे देना ढील, काढ़ कर पढ़िए खीसी ।।
लाठी तो चलती रहे, पर आवाज न आय,
जवाब देंहटाएंमंहगाई की मार से, जनता मरती जाय!
जनता मरती जाय, होय काला बाजारी,
रोते रहे किसान,देखो हँस रहे ब्यापारी!
नेता व्यापारी, के कारण मंहगाई आती
होय तभी सुधार, लेय जब जनता लाठी,
यथार्थ का वर्णन करती सुंदर रचना|||
जवाब देंहटाएंबहुत खूब व दमदार दोहे..
जवाब देंहटाएंझुकी पत्तियाँ पेड़ की, करती है प्रणाम।
जवाब देंहटाएंबरसो बारिस जोर से, मिलता है आराम।।
बढ़िया दोहे ...आभार आपका !
sundar doha pachchiisii ...
जवाब देंहटाएंनिशा जी नमस्कार!
जवाब देंहटाएंकृपया अब उच्चारण को देखकर बताइए कि कमेंट पास हो रहे हैं या नहीं।
आभार!
kamennt ho raha hai-
जवाब देंहटाएंगागर में सागर भरे, दो छंदों के दोहे !
जवाब देंहटाएंगद्द पद्द सोना चांदी हैं, दोहे कडवे लोहे !!
"Dips"
एक से एक श्रेष्ठ दोहे। बधाई।
जवाब देंहटाएंदोहे लिख कर आपने कह दी सच्ची बात।
जवाब देंहटाएंऐसे ही रचते रहें दिन हो चाहे रात।
कदम-कदम पर सुलगते, जीवन में अंगार।
जवाब देंहटाएंअश्कों से कैसे बुझें, ज्वाला के अम्बार।।
(१४)
“उल्लू को भात नहीं, दिन का प्यारा साथ।
अंधकार को खोजता, सदा मनाता रात।।"
सभी दोहे लाजवाब ………शानदार
mazedaar dohe, satya pradarshit karte hain
जवाब देंहटाएं