सौम्य शीतल व्यक्तित्व के धनी- डा.
मयंक
"आचार्य देवेन्द्र देव"
परिवर्तिनि खलु संसारे मृतः को वा न जायते।
स एव जातो यस्य जातेंन याति वंशं
समुद्भवम्।
अर्थात् इस परिवर्तनशील संसार में
कौन मरता नहीं है और कौन जन्म नहीं लेता है (सभी मरते-पैदा होते है) किन्तु जन्म
उसी का सफल होता है जो अपने वंश को उन्नति की ओर ले गया है।यहाँ 'वंश' का
प्रयोग यद्यपि सीमित (परिवार,कुल) के लिए हुआ है किन्तु यह घटित
विश्व के विराट परिवार पर होता है। इस प्रकार इसके फलितार्थ विशद व्यापकता लिए
हुए हैं।
मनुष्य (जीवात्मा) परमात्मा द्वारा निर्मित एक सामाजिक प्राणी है।इसको
प्रतिभा,क्षमता, योग्यता
सृष्टि के समग्र हित और विकास के लिए प्राप्त हूई है। इस पर माता-पिता,गुरु
के अतिरिक्त देश व समाज का भी ऋण है किन्तु युगीन भौतिकता में पड़कर उसने स्वयं
को पेट, प्रजनन तक और उससे जुड़े हुए लोगों तक
उन गुणों व सामर्थ्यों को सीमित कर रखा है। उन्हीं के भविष्य, उन्हीं
की उन्नति और विकास में अहर्निश लगा है। ऐसा कि उसे चिन्ता नहीं अपने विराट
परिवार अर्थात् मानवता की ,देश व समाज की, यहाँ
तक कि वह स्वयं को भी पूर्णतया विस्मृत किये हुए है।
साहित्य, संगीत,कला
केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं कि वह जीवन में रस घोलती है, इस
दृष्टि से अधिक उपयोगी है कि वह व्यक्ति को सामाजिकता से, राष्ट्रीयता
से जुड़ने-जोड़ने के अवसर प्रदान करके हृदय में संवेदना जगाती है। इसीलिए इससे 'विहीनाः' जन को
पशु की श्रेणी में रखा गया है।
संकेतगत 'विहीनाः
जन' की बहुतायत होते हुए भी हमारे बीच
अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जो इस बहुतायत पर भारी हैं। जिन्होंने मानवीय संवेदनाओं से
आलोड़ित कार्य-व्यापार, व्यवहार और सजग सक्रियता से प्रबुद्ध
समाज म़े अपनी पृथक पहचान बनायी है और इन्हीं भावक, श्रावक, शब्द-शावकों
में एक नाम है खटीमा (जनपद ऊधमसिंह नगर,उत्तराखण्ड) को अपनी कर्मभूमि बनाने
वाले आद्यार्य डा. रूपचन्द शास्त्री जी 'मयंक' का जो व्यक्ति के रूप म़े एक
सम्पूर्ण संस्था हैं।
शास्त्री जी का मुझसे एकपक्षीय परिचय
वर्ष लगभग 43 वर्ष पूर्व 1985 में
तब हुआ था जब उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के डी.ए.वी.कालेज में आयोजित और डा.
ब्रजेन्द्र अवस्थी द्वारा संचालित अखिल भारतीय कवि-सम्मेलन में प्रो.सारस्वत
मोहन 'मनीषी', प्रो. राजवीर 'क्रान्तिकारी' आदि
ओजस्वी कवियों के साथ उन्होंने मुझे सुना था। तदनन्तर खटीमा में आयोजित
काव्यायोजन में उन्होंने मुझे आमन्त्रित किया और लखनऊ वाले कार्यक्रम की
रिकर्डिंग सुनायी। मुझ बहुत अच्छा लगा, विशेषकर कविता और कवियों के प्रति
उनका अनुराग व समर्पण देखकर।
शास्त्री जी 'उच्चारण' नाम
से एक पाक्षिक पत्र भी उन दिनों बड़े उत्साह से निकाला करते थे जिसमें मेरी
रचनाएँ भी उन्होंने बड़े आदर और आत्मीयता के साथ प्रकाशित कीं। मयंक जी के स्नेह
और सहृदयता ने मेरे मन पर स्थाई छाप छोड़ी। संस्कार भारती की प्रवास-यात्राओं में
वर्ष में तीन-चार बार भेंट वार्ता हो जाती थी। खटीमा में जब भी रात्रि विश्राम
की योजना बनी तो आग्रहपूर्वक उन्होंने अपने सान्निध्य-सत्कार से कृतार्थ किया।
तब नये-पुराने कवियों व साहित्यकारों के बारे में ख़ूब चर्चाएँ होती थीं और
यदा-कदा गोष्ठी भी उनके वैदिक विद्यालय में जमती थी।
शास्त्री जी आरम्भ से ही पारिवारिक
सांस्कारिकता के एक उदारण बने हुए हैं। माता-पिता,पुत्र-पत्नी,मित्र
सबको, उनके हिस्से का मान सम्मान, स्नेहादर
दे रहे हैं। परिवार के अस्वास्थ्यकर संकटों में भी उन्होंने अपने मन को कभी
हताश-निराश नहीं होने दिया। उनका तन, मन, वचन ,कर्म सदैव सजग और सक्रिय रहे। आज भी
वह ट्विटर, ब्लाग जैसे सोशल मीडिया पर सजगता के
सौम्य उदाहरण बने हुए हैं। यद्यपि वह कांग्रेस के शासन में उत्तराखण्ड के पिछड़ा
वर्ग आयोग के सम्मानित सदस्य वर्ष 2005
से 2008 तक
रहे जो राजनैतिक उपकारिता का एक प्रकार होता है किन्तु लोक-व्यवहार जनसामान्य के
हित में उन्होंने कभी राजनीति को हावी नहीं होने दिया। इसी कारण शास्त्री जी की
आयुर्वेदिक चिकित्सक एवं सामाजिक रूप में लोकप्रियता सदाबहार रही। स्व. कवि भाई
देवदत्त प्रसून हमारे उभयनिष्ठ आत्मीय मित्र के
साथ शास्त्री जी के एम.ए. के सहपाठी भी रहे, साहित्यिक और सामाजिक आयोजनों में
बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे।
यह तो रहा डा. रूपचन्द शास्त्री 'मयंक' के
व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य।शास्त्री जी का कृतित्व सदैव साहित्य और पत्रकारिता जो
प्रकारान्तर से साहित्य का ही एक स्वरूप है, के लिए समर्पित रहा। समसामयिक विषयों
के साथ-साथ प्रकृति, विश्व पारिवारिकता, सामाजिकता, शिक्षा, संस्कारिकता, राष्ट्रीयता
के प्रति उनके अनुराग-समर्पण का प्रामाण्य उनके द्वारा रचित हज़ारों दोहे, बाल
कविताएँ व गीत, ग़ज़ल, मुक्तक आदि 'सुख
का सूरज', 'धरा के रंग','नन्हें
सुमन','हँसता-गाता बचपन', 'कदम-कदम
पर घास','खिली रूप की धूप','गज़लियात-ए-रूप' आदि
कविता संग्रह साक्षीरूप में दे रहे हैं।।
मयंक जी की सहजता, सहृदयता, संवेदनशीलता
और समर्पण का एक और सबसे बड़ा प्रतीक है हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक मुँहफट, फक्कड़,घुमक्कड़
कवि बाबा नागार्जुन की उनके प्रति आत्मीयता जिनसे सम्बन्धित संस्मरण शास्त्री जी
ने अपने सद्यःप्रकाशित 'स्मृति-उपवन' में
दिये है। छद्मचारण, कृत्रिम भावनाओं का कोई व्यक्ति बाबा
नागार्जुन के साथ एक घण्टा क्या, एक पल भी नहीं टिक सकता था, जबकि
बाबा जीवन के अन्तकाल तक शास्त्री के यहाँ आते, ठहरते और उन्हें साथ लेकर रमते रहे
हैं।
कविता में मयंक जी का शिल्प चौकस
और पैना होने के साथ-साथ सन्देशगर्भित कथ्य की गहनता का प्रभाव भी छोड़ता है। वह
गुणी तो हैं ही, इसके साथ वह गुणग्राहक भी हैं और
गुणाग्रही भी। वह केवल व्यवसाय से ही नहीं,शील, स्वभाव से भी चिकित्सक हैं कदाचित्
इसलिए कि वह आर्य संस्कारों मे दीक्षित हैं। समाज एवं शासन से सम्मान उन्होंने
चाटुकारिता से नहीं, बल्कि नैसर्गिक योग्यता के बल पर
प्राप्त किया है। मेरे एक गुरुभाई स्व.शौकत अली 'शौक़त' कहा करते थेः-
चीज़ अच्छी है तो सब प्यार किया करते
हैं।
क्या हक़ीक़त से भी इनकार किया करते
हैं।।
और संस्कृत में भी एक सूक्ति
हैः-
सन्ति यदि गुणाः पुंसां विकसन्ति
स्वयमेव च।
न हि कस्तूरिकामोदः शपथेन विभाव्यते।
भाई शास्त्री जी अपने जीवन
को ऐसी ही कस्तूरिका बनाए हुए हैं जो अनन्तकाल तक अपना सौरभ बिखेरती रहेगी। उनके
स्वस्थ और सक्रिय दीर्घायुष्य की हार्दिक मंगल कामनाएँ।
(देवेन्द्र
देव)
केन्द्रीय साहित्य विधा प्रमुख,
संस्कार भारती
चलभाष 9412870495
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निसंदेह शास्त्री जी सौम्य शीतल व्यक्तित्व के धनी है , ...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति
शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंमंगलकामनाएं।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 05.08.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2931 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद