-- तुम कभी तो प्यार से बोला करो। राज़ दिल के भी कभी खोला करो।। -- हम तुम्हारे वास्ते घर आये हैं, मत तराजू में हमें तोला करो। -- ज़र नहीं है पास अपने पर ज़िगर है, चासनी में ज़हर मत घोला करो। -- डोर नाज़ुक है उड़ो मत फ़लक में, पेण्डुलम की तरह मत डोला करो। -- राख में सोई हैं कुछ चिंगारियाँ, मत हवा देकर इन्हें शोला करो। -- आँख से देखो-सराहो दूर से, “रूप” को छूकर नहीं मैला करो। -- |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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शुक्रवार, 30 जून 2023
ग़ज़ल "चासनी में ज़हर मत घोला करो" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बुधवार, 28 जून 2023
दोहे "मना रहा है ईद" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- मेले से लाता नहीं, चिमटा आज हमीद। हथियारों के साथ अब, मना रहा है ईद।। -- खून-खराबे का चला, रमजानों में दौर। आयत पर कुरआन की, नहीं किसी का गौर।। -- दहशत फैलाने चले, मजहब की ले आड़। मुसलमान इसलाम को, खुद ही रहे पछाड़।। -- मुसलमान जब देश में, खेलें खूनी खेल। भाई-भाई में भला, कैसे हो फिर मेल।। -- मुसलमान पर उँगलियाँ, उठती चारों ओर। मानवता की आज तो, टूट रही है डोर।। -- हिन्दू-सिख-ईसाइ सब, करते अंगीकार। मुसलमान का विश्व में, खिसक रहा आधार।। -- बिगड़ा अब भी कुछ नहीं, बचा लीजिए शाख। पत्थर को ज्वालामुखी, कर देता है राख।। -- भगवा बहुत उदार है, भगवे में हैं सन्त। भगवा नाइंसाफ का, कर देता है अन्त।। -- चाल-चलन ईमान के, होते हैं कुछ ढंग। जप-तप, पूजा-वन्दना, मानवता के
अंग।। -- देश विभाजन के समय, मिला नाम था पाक। अपनी हरकत से हुआ, पाक आज नापाक।। -- भूल गया इंसान अब, रब के नेक उसूल। कारगुजारी देखकर, आहत हुआ रसूल।। -- बेमन से होते जहाँ, रोजे और नमाज। मुसलमान की थम गई, दुनिया में परवाज।। -- आजादी हर पन्थ को, ऐसा हिन्दुस्तान। इसीलिए है जगत में, भारत देश महान।। -- |
दोहे "पड़ने लगी फुहार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
-- नभ में बादल छा गये, गाओ राग मल्हार। मानसून अब आ गया, पड़ने लगी फुहार।। -- लोगों के अब हो गया, इन्तजार का अन्त। आनन्दित होने लगे, निर्धन और महन्त।। -- घनी घटाओं से हुआ, श्यामल अब आकाश। सूरज ने भी ले लिया, अकस्मात अवकाश।। -- चम-चम बिजली चमकती, बादल करते शोर। लहराते हैं पेड सब, होकर भाव-विभोर।। -- इन्द्र देवता ने दिया, खेतों को उपहार। सूखी धरती की भरी, जल ने सभी दरार।। -- नैसर्गिक सुख का हुआ, लोगों को आभास। आमों में भी आ गयी, अब कुदरती मिठास।। -- पहली बारिश से खुली, इन्तजाम की पोल। जलभराव से नगर का, बदल गया भूगोल।। -- |
मंगलवार, 27 जून 2023
‘ग़ज़लियात-ए-रूप’ "रूप के पास एक विपुल जीवनानुभव है" (डॉ. सिद्धेश्वर सिंह)
“ग़ज़लियात-ए-रूप” ‘चेहरा चमक उठा, दमक उठा है रूप भी’ संसार की समस्त काव्यविधाओं में ग़ज़ल का एक विशिष्ट स्थान है। अपनी उत्स भूमि से उर्वरा लेकर यह काव्य रूप विभिन्न भाषाओं के साहित्य का एक ऐसा अहम अंग बन गया है जिसे ‘साधारण’ और ‘आम’ कहकर अनदेखा नहीं किया जा सकता है। यदि हिन्दी साहित्य की बात करें तो हिन्दी ग़ज़ल अपने आप में एक सुदृढ़ काव्यरूप बन चुका है जिसने अपने व्यक्तित्व से देश, काल, समाज की सच्चाइयों से जनमानस को अत्यन्त प्रभावित किया है। हिन्दी के अधिकांश कवियों ने ग़ज़ल में हाथ आजमाया है। जिसमें ‘रसा’ उपनाम से लिखनेवाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लेकर निराला, शमशेर बहादुर सिंह, बलवीर सिंह रंग, दुष्यन्तकुमार, राजेश ऐरी, बल्ली सिंह चीमा, ज्ञानप्रकाश विवेक, जहीर कुरैशी और अदम गोंडवी जैसे नाम सदैव स्मरण किये जायेंगे। मेरे समक्ष ग़ज़लों की एक पांडुलिपि है-‘ग़ज़लियात-ए-रूप’। इसके रचयिता हैं डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’। इस पुस्तक का प्रकाशनपूर्व पाठक होना मेरे लिए सुखकर है। किसी भी नई किताब का आगमन निश्चितरूप से इस संसार को देखने के लिए एक नई खिड़की का खुलना होता है, क्योंकि कवि/लेखक की निगाह वहाँ तक पहुँचती है जहाँ कि साधारणजन की सोच का संचरण भी प्रायः नहीं होता है। इस पुस्तक में कवि ने अपनी सोच-समझ और संवेदना के विभिन्न आयामों को ग़ज़लों के माध्यम से अपनी वाणी दी है साथ ही उसने नकली कवियों से भी सचेत रहने की हिदायत दी है जो कि कविता के प्रति प्रतिब( नहीं हैं और न ही उन्हें छन्दशास्त्रा का ज्ञान है- ‘‘हुनर की जरूरत न सीरत से मतलब महज रूप से ही ग़ज़ल हो गयी क्या’’ ‘ग़ज़लियात-ए-रूप’ की ग़ज़लों से एक पाठक के रूप में गुजरते हुए मुझे इस बात का बार-बार भान होता है कि ‘रूप’ के पास एक विपुल जीवनानुभव है और चिकित्सा जैसे पेशे का सफल निर्वाह करते हुए, राजनीतिक सक्रियता के बल पर उन्होंने एक दृष्टि अर्जित की है जिसका दर्शन यह पुस्तक सहज ही कराती है। हमारे परिवेश के कार्यकलाप की विविधवर्णी छवियाँ इस संग्रह की ग़ज़लों में सहज ही देखी जा सकती है- ‘‘यूँ अपनी इबादत का दिखावा न कीजिए ईमान भी तो लाइए अपने हुजूर पे’’ -- ‘‘कहीं से कुछ उड़ा करके, कहीं से कुछ चुरा करके सुनाता जो तरन्नुम में, वही शायर कहाता है’’ -- ‘‘सोने की चिड़िया इसलिए कंगाल हो गयी कुदरत की सल्तनत के इशारे बदल गये’’ प्रस्तुत ग़ज़ल संग्रह अपनी भाषा के नये तेवर और विचार की वैविध्यपूर्ण प्रस्तुति के कारण हिन्दी साहित्य के पटल पर अपनी उपस्थिति का अहसास प्रभावपूर्ण तरीके से करायेगा ऐसा मेरा विश्वास है। अशेष शुभकामनाओं के साथ- डॉ. सिद्धेश्वर सिंह एसोशियेट प्रोफेसर (हिन्दी) राजकीय महाविद्यालय, बनबसा (चम्पावत) |
सोमवार, 26 जून 2023
विविध दोहे "धन में से कुछ दान" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- जब भी लड़ने के लिए, लहरें हों तैयार। कस कर तब मैं थामता, हाथों में पतवार।। -- बैरी के हर ख्वाब को, कर दूँ चकनाचूर। जब अपने हो सामने, हो जाता मजबूर।। -- जब भी लड़ने के लिए, होता हूँ तैयार। धोखा दे जाते तभी, मेरे सब हथियार।। -- साधन हो पैसा भले, मगर नहीं है साध्य। हिरती-फिरती छाँव को, मत समझो आराध्य।। -- राज़-राज़ जब तक रहे, तब तक ही है राज़। बिना छन्द के साज भी, हो जाता नाराज।। -- वाणी में जिनकी नहीं, सच्चाई का अंश। आस्तीन में बैठ कर, देते हैं वो दंश।। -- बैठे गंगा घाट पर, सन्त और शैतान। देना सदा सुपात्र को, धन में से कुछ दान।। -- बन्द कभी मत कीजिए, आशाओं के द्वार। मजबूती से थामना, लहरों में पतवार।। -- लोकतान्त्रिक देश में, कहाँ रहा जनतन्त्र। गलियारों में गूँजते, जाति-धर्म के मन्त्र।।। -- हँसकर जीवन को जियो, रहना नहीं उदास। नीरसता को त्याग कर, करो हास-परिहास।। -- आड़ी-तिरछी हाथ में, होतीं बहुत लकीर। कोई है राजा यहाँ, कोई बना फकीर।। -- सीधे-सादे हों भले, लेकिन चतुर सुजान। लोग उत्तराखण्ड के, रखते हैं ईमान।। -- सुलगे जब-जब हृदय में, मेरे कुछ अंगार। तब तुकबन्दी में करूँ, भावों को साकार।। -- |
रविवार, 25 जून 2023
दोहे "बोते संकर बीज" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सम्बन्धों को लोग अब, देते नहीं महत्व। इसीलिए सौहार्द्र का, बिगड़ा हुआ घनत्व। -- दौलत पाने की लगी, दुनिया भर में होड़। नैतिकता को स्वार्थ में, लोग रहे अब छोड़।। -- इंसानों के आज तो, बड़े हो गये पेट। मानवता का कर रहे, मनुज स्वयं आखेट।। -- भगवा चोला पहन कर, सन्त बने शैतान। अब खुद को कहने लगे, पापी भी भगवान।। -- कलियुग कल का युग हुआ, निर्धन हैं मजबूर। रोटी-रोजी के लिए, भटक रहे मजदूर।। -- पिघल रहे हैं ग्लेशियर, दरक रहे हैं शैल। खेत-गाँव से हो गये, गायब अब हल-बैल।। -- अधिक उपज के लोभ में, पागल हुआ किसान। जहर छिड़कता खेत में, नवयुग का इंसान।। -- नहीं बची अब देश में, कोई देशी चीज। जान-बूझकर कृषक अब, बोते संकर बीज।। -- |
शनिवार, 24 जून 2023
दोहे "बारिश अब घनघोर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- बादल
छाये गगन में, बीती काली रात। सुख
बरसाने के लिए, आयेगी बरसात।। -- उमड़-घुमड़
कर आ रहे, नभ में अब घनश्याम। मिल जायेगा खेत में, मजदूरों को काम।। -- हवा
सुहानी बह रही, बादल करते शोर। चपला
चमकी गगन में, वन में नाचें मोर।। -- पौध
धान की हो गयी, अब बिल्कुल तैयार। फिर
से वीरान चमन, होगा अब गुलजार।। -- आसमान
से बरसती, बारिश अब घनघोर। रोपाई
करने चले, कृषक खेत की ओर।। -- बारिश
से गदगद हुए, काफल-सेब-अनार। मिट
जायेंगी धरा की, अब तो सभी दरार।। -- मेघों
ने अब कर दिया, पावस का आगाज। पवन बसन्ती
चल रहा, झूम रहा वनराज।। -- |
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