जमाना है तिजारत का, तिज़ारत ही तिज़ारत है तिज़ारत में सियासत है, सियासत में तिज़ारत है ज़माना अब नहीं, ईमानदारी का सचाई का खनक को देखते ही, हो गया ईमान ग़ारत है हुनर बाज़ार में बिकता, इल्म की बोलियाँ लगतीं वजीरों का वतन है ये, दलालों का ही भारत है प्रजा के तन्त्र में कोई, नहीं सुनता प्रजा की है दिखाने को लिखी मोटे हरफ में बस इबारत है हवा का एक झोंका ही धराशायी बना देगा खड़ी है खोखली बुनियाद पर ऊँची इमारत है लगा है घुन नशेमन में, फक़त अब “रूप” है बाकी लगी अन्धों की महफिल है, औ’ कानों की सदारत है |
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रविवार, 31 जुलाई 2011
"सियासत में तिज़ारत है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
शनिवार, 30 जुलाई 2011
“पंछी उड़ता नील गगन में” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
कोई ख्याल नहीं है मन में! पंछी उड़ता नील गगन में!! ना चिट्ठी है, ना परवाना, मंजिल है ना कोई ठिकाना, मुरझाए हैं फूल चमन में! पंछी उड़ता नील गगन में!! बिछुड़ गया नदियों का संगम, उजड़ गया हैं दिल का उपवन, धरा नहीं है कुछ जीवन में! पंछी उड़ता नील गगन में!! मार-काट है बस्ती-बस्ती, जान हो गई कितनी सस्ती, मौत घूमती घर-आँगन में! पंछी उड़ता नील गगन में!! खोज रहा हूँ मैं वो सागर, जहाँ प्रीत की भर लूँ गागर, गन्ध भरी हो जहाँ सुमन में! पंछी उड़ता नील गगन में!! |
शुक्रवार, 29 जुलाई 2011
"मम्मी मैं झूलूँगी झूला" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
अब हरियाली तीज आ रही, मम्मी मैं झूलूँगी झूला। देख फुहारों को बारिश की, मेरा मन खुशियों से फूला।। कई पुरानी भद्दी साड़ी, बहुत आपके पास पड़ी हैं। इतने दिन से इन पर ही तो, मम्मी मेरी नजर गड़ी हैं।। |
गुरुवार, 28 जुलाई 2011
“सावन की ग़जलिका” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
बुधवार, 27 जुलाई 2011
"राजनीति के दोहे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
सड़कछाप भी बन गये, अब तो लक्ष्मीदास। उल्लू बैठा शीश पर, करता भोग-विलास।1। वाणी में ताकत बढ़ी, देह हुई बेडौल। सत्ता पाने के लिए, रहा बोलियाँ बोल।2। आखिर पद मिल ही गया, देकर ऊँचे दाम। अब अपने सुख के लिए, ही होंगे सब काम।3। पौत्र और पड़पौत्र भी, अब भोगेंगे राज। पुश्त और दरपुश्त तक, करना पड़े न काज।4। यदि घोटाले खुल गये, मैं जाऊँगा जेल। लेकिन कुछ दिन बाद ही, मिल जाएगी बेल।5। जनता की होती बहुत, याददास्त कमजोर। बिसरा देती है सदा, कपटी-कामी-चोर।6। जितना चाहे लूट ले, तेरी है सरकार। सरकारी धन-सम्पदा, पर तेरा अधिकार।7। |
मंगलवार, 26 जुलाई 2011
“अब भी बाकी है........” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
सोमवार, 25 जुलाई 2011
“पथ निखर ही जाएगा” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
आज अपना हम सँवारें, कल सँवर ही जायेगा आप सुधरोगे तो सारा, जग सुधर ही जाएगा जो अभी कुछ घट रहा है, वही तो इतिहास है देखकर नक्श-ए-कदम को, रथ उधर ही जाएगा रास्ते कितने मिलेंगे, सोचकर पग को बढ़ाना आओ मिलकर पथ बुहारें, पथ निखर ही जाएगा एकता और भाईचारे में, दरारें मत करो वरना ये गुलदान पल भर में, बिखर ही जाएगा चमन में फूलों का सबको “रूप” भाता है बहुत गर मिलेगी गन्ध तो, भँवरा पसर ही जाएगा |
रविवार, 24 जुलाई 2011
"नाराज नहीं होकर जाना" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
हँसी-खुशी से आये हो, नाराज नहीं होकर जाना जीवन के अनुरक्त तरानों को, खुश हो करके गाना मंजिल को यदि पाना है तो, चलते ही रहना होगा मत होना निराश, पथ की बाधाओं से मत घबराना चलने का है का नाम ज़िन्दगी, रुकना मौत कहाता है बहती नदियों जैसा जीवन ही तुमको है अपनाना बुरे-भले को बहती धारा ही तो निर्मल करती है दुर्गन्धों को अपने संसर्गों में लाकर महकाना “रूप” और मालिन्य हटाकर अपने रँग में रँग देना जीवन का सन्देश तुम्हें है सारे जग को सिखलाना |
शनिवार, 23 जुलाई 2011
"ग़ज़ल-...आज कुछ लम्हें चुराने हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
सुहाते ही नहीं जिनको मुहब्बत के तराने हैं हमारे मुल्क में ऐसे अभी बाकी घराने हैं जिन्हें भाते नहीं हैं, फूल इस सुन्दर बगीचे के ज़हन में आज भी ख्यालात उनके तो पुराने हैं नई दुनिया-नई नस्लें, नई खेती-नई फसलें, मगर उनको तो अब भी, ढोर ही जाकर चराने हैं नहीं है अब ज़माना, शान से शासन चलाने का, नहीं है प्यार गर दिल में, तो अपने भी बिराने हैं फिज़ाओं ने बहुत तेजी से अपना “रूप” बदला है, मुहब्बत के लिए ही आज कुछ लम्हें चुराने हैं |
शुक्रवार, 22 जुलाई 2011
"दोहा सप्तक" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
गंगा, यमुना-शारदा, का संगम अभिराम। श्रम, बुद्धि औ’ ज्ञान से, बनते सारे काम।1। ले जाता है गर्त में, मानव को अभिमान। जो घमण्ड में चूर हैं, उनको गुणी न जान।2। चूहा कतरन पाय कर, थोक बेचता वस्त्र। अज्ञानी ही घोंपता, ज्ञानवान को शस्त्र।3। हो करके निष्काम जो, बाँट रहा है ज्ञान। कोशिश करता वो यही, मिट जाए अज्ञान।4। जो भी असली शिष्य हैं, वो गुरुओं के भक्त। जो कृतघ्न थे हो गये, पाकर हुनर विरक्त।5। जब जग को लगने लगा, डूब रही है नाव। बिन माँगे देने लगे, अपने कुटिल सुझाव।6। बात-चीत से धुल गये, मन के सब सन्ताप। गुरू-शिष्य अब मिल गये, रहा न पश्चाताप।7। |
गुरुवार, 21 जुलाई 2011
"ग़ज़ल...क्यों हार की बातें करें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
बुधवार, 20 जुलाई 2011
"बेवफा से वफा की उम्मीद ही बेकार हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
इस ग़ज़ल में एकवचन-बहुवचन का दोष है। चित्त एकाग्र होने पर सुधार कर लूँगा! थे कभी शागिर्द जो करने लगे वो वार हैं गुर नहीं जो जानते लेकर खड़े हथियार हैं तीर तरकश में बहुत होंगे हमें सब कुछ पता, फूल भी अपने चमन के बन गये अब खार हैं है बहुत बेचैन दिल नादानियों को देखकर, अमन के पैगाम में बढ़ने लगी तकरार है साथ परछाई नही देती कभी तंगहाल में ज़र के पीछे भागते देखे यहाँ किरदार हैं जो न अपनों का हुआ गैरों का होगा क्या भला बेवफा से वफा की उम्मीद ही बेकार है जब यक़ीदा ही नहीं व्यापारियों के बीच में इस पार हम उस पार वो और बीच में दीवार है हो भले ही दुश्मनी लेकिन समझदारी तो हो अब दरकते पर्वतों के मिट गये आधार हैं “रूप” नालों ने दिखाया जब हुई बरसात है झूठ का व्यापार है खुदगर्ज़ ये संसार है |
मंगलवार, 19 जुलाई 2011
"मैंने पाषाण बनाया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
सबसे पहले यह गीत पढ़िए |
उतना ही साहस पाया है। मृदु मोम बावरे मन को अब, मैंने पाषाण बनाया है।। था कभी फूल सा कोमल जो, सन्तापों से मुरझाता था, पर पीड़ा को मान निजी, आकुल-व्याकुल हो जाता था, इस दुनिया का व्यवहार देख, पथरीला पथ अपनाया है। मृदु मोम बावरे मन को अब, मैंने पाषाण बनाया है।। चिकनी-चुपड़ी सी बातों का, अब असर नहीं कोई होता, जिससे जल-प्लावन होता था, वो कब का सूख गया सोता, जो राग जगत ने है गाया, मैंने वो साज बजाया है, मृदु मोम बावरे मन को अब, मैंने पाषाण बनाया है।। झूठी माया, है झूठा जग, छिपकर बैठे हैं भोले ठग, बाहर हैं दाँत दिखाने के, खाने के मुँह में छिपे अलग, कमजोर समझकर शाखा को, दीमक ने पाँव जमाया है। मृदु मोम बावरे मन को अब, मैंने पाषाण बनाया है।। |
साहित्य शारदा मंच खटीमा के बैनर तले एक कविगोष्ठी का आयोजन किया गया! साधना न्यूज चैमल द्वारा इसकी कवरेज दिखाई गयी! आयोजक-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक" |
सोमवार, 18 जुलाई 2011
"खटीमा में कविगोष्ठी सम्पन्न." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
एवं दीप प्रज्वलन किया गया।
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