अपने मन की बात कहना चाहते हैं कुछ दबे अल्फाज़ कहना चाहते हैं कब तलक तुमसे छिपायें असलियत कल नहीं हम आज कहना चाहते हैं सोचकर रिश्ते बनाना अज़नबी से राज़ हम हमराज़ कहना चाहते हैं मधुर सुर सजता सदा आघात से दर्द का हम साज़ कहना चाहते हैं इश्क करना है सरल लेकिन निभाना है कठिन दिल की हम आवाज कहना चाहते हैं आशिको-माशूक के बिन शायरी बेजान है हम इसे सरताज कहना चाहते हैं सुनके जिसको “रूप” शरमाने लगे हम वही अन्दाज़ कहना चाहते हैं |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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गुरुवार, 30 जून 2011
"हम वही अन्दाज़ कहना चाहते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
बुधवार, 29 जून 2011
"टिप्पणियों से मत मापो" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
कई मित्र टिप्पणियाँ अक्सर, सब रचनाओं पर देते हैं। सुन्दर-बढ़िया लिख करके, निज जान छुड़ा भर लेते हैं।। कुछ तो बिना पढ़े ही, केवल कॉपी-पेस्ट किया करते हैं। खुश करने को बदले में, हमको प्रतिदान दिया करते हैं।। रचना के बारे में भी तो, कुछ ना कुछ लिख दिया करो। आँख मूँद कर, एक तरह की, नहीं टिप्पणी किया करो।। पोस्ट अगर मन को ना भाये, पढ़ो और आगे बढ़ जाओ। बिल्कुल नहीं जरूरी, तुम बदले में उसको टिपियाओ।। यदि ज्ञानी, विद्वान-सुभट हो, प्रेम-भाव से समझाओ। अपमानित करने वाली, दूजों को सीख न सिखलाओ।। श्रेष्ठ लेख या रचनाओं को, टिप्पणियों से मत मापो। सत्संग और प्रवचनों को, घटिया गानों से मत नापो।। जालजगत पर जबसे आये, तबसे ही यह मान रहे हैं। टिप्पणियों के भूखे गुणवानों को भी पहचान रहे हैं।। दुर्बल पौधों को ही ज्यादा, पानी खाद मिला करती है। चालू शेरों पर ही अक्सर, ज्यादा दाद मिला करती है।। |
मंगलवार, 28 जून 2011
सोमवार, 27 जून 2011
"चूस मकरन्द भँवरे किनारे हुए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
उनके आने से दिलकश नज़ारे हुए मिल गई जब नज़र तो इशारे हुए आँखों-आँखों में बातें सभी हो गईं हो गये उनके हम वो हमारे हुए रस्मों-दस्तूर की बेड़ियाँ तोड़कर अब तो उन्मुक्त पानी के धारे हुए सारी कलियों को खिलना मयस्सर नहीं सूख जातीं बहुत मन को मारे हुए कितने खुदगर्ज़ आये-मिले चल दिये मतलबी यार सारे के सारे हुए जो दिलों की हैं धड़कन को पहचानते बेसहारों के वो ही सहारे हुए “रूप”-रस का है लोभी जमाना बहुत चूस मकरन्द भँवरे किनारे हुए |
रविवार, 26 जून 2011
"कब मुलाकात होगी-गुरूसहाय बदनाम" (प्रस्तोता-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
शनिवार, 25 जून 2011
"ग़ज़ल" कठिन गुजारा लगता है (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
सुखद बिछौना सबको प्यारा लगता है यह तो दुनिया भर से न्यारा लगता है जब पूनम का चाँद झाँकता है नभ से उपवन का कोना उजियारा लगता है सुमनों की मुस्कान भुला देती दुखड़े खिलता गुलशन बहुत दुलारा लगता है जब मन पर विपदाओं की बदली छाती तब सारा जग ही दुखियारा लगता है देश चलाने वाले हाट नहीं जाते उनको तो मझधार किनारा लगता है बातों से जनता का पेट नहीं भरता सुनने में ही प्यारा नारा लगता है दूर-दूर से “रूप” पर्वतों का भाता बाशिन्दों को कठिन गुजारा लगता है |
शुक्रवार, 24 जून 2011
"ग़ज़ल-...उसने सितम ढाया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
दोस्त बनके हमें रुलाया है बेसबब उसने सितम ढाया है भूल कर प्यार-वफा की बातें उसने दिल को बहुत दुखाया है ज़िन्दगी के हसीन लम्हों को उसने पल भर में ही भुलाया है साथ उसके जो घोंसला था बुना आँधियों ने उसे गिराया है उसको दिन का न उजाला भाया नग़मगी ख़्वाब पसन्द आया है आज मेरी है कल पराई है आती-जाती हुई ये माया है जिसने काँटों की चुभन झेली है उसने फूलों का नाम पाया है “रूप”-यौवन अधिक नहीं टिकता ज़िन्दगी धूप और छाया है |
गुरुवार, 23 जून 2011
"जुड़ करके एक-एक, गिनतियाँ हुईं हजार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
निन्यानबे के फेर में आया हूँ कई बार।
रहमत औ’ करम ने तेरी मुझको लिया उबार।।
ऐसे भी हैं कई बशर, अटक गये हैं जो,
श्रम करके मैंने अपना मुकद्दर लिया सँवार।
कल तक थी जो कमी, वो पूरी हो गई है आज,
शबनम में आ गया है, मोतियों सा अब निखार।
चलता ही रहा जो, वो पा गया है मंजिलें,
पतझड़ के बाद आ गई, चमन में फिर बहार।
नदियाँ मुकाम पा के, समन्दर सी हो गई,
थी बेकरार जो कभी, उनको मिला करार।
महताब को दिया प्रकाश आफताब ने,
बहने लगी है रात में, शीतल-सुखद बयार।
चेहरा चमक उठा, दमक उठा है “रूप” भी,
जुड़ करके एक-एक, गिनतियाँ हुईं हजार। |
बुधवार, 22 जून 2011
"बातों की ग़ज़ल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
बात-बात में हो जाती हैं, देखो कितनी सारी बातें। घर-परिवार, देश-दुनिया की, होतीं सबसे न्यारी बातें।। रातों में देखे सपनों की, दिन भर की दिनचर्या की भी, सुबह-शाम उपवन में जाकर, होतीं प्यारी-प्यारी बातें। बातों का नहीं ठौर-ठिकाना, बातों से रंगीन जमाना, गली-गाँव चौराहे करते, मेरी और तुम्हारी बातें। बातें ही तो मीत बनातीं, बातें बैर-भाव फैलातीं, बातों से नहीं मन भरता है, सुख-दुख की संचारी बातें। जाल-जगत के ढंग निराले, हैं उन्मुक्त यहाँ मतवाले, ज्यादातर करते रहते हैं, गन्दी भ्रष्टाचारी बातें। लेकिन कोश नहीं है खाली, सुरभित इसमें है हरियाली, सींच रहा साहित्य सरोवर, उपजाता गुणकारी बातें। खोल सको तो खोलो गठरी, जिसमें बँधी ज्ञान की खिचड़ी, सभी विधाएँ यहाँ मिलेंगी, होंगी विस्मयकारी बातें। नहीं “रूप” है, नहीं रंग है, फिर भी बातों की उमंग है, कभी-कभी हैं हलकी-फुलकी, कभी-कभी हैं भारी बातें। |
मंगलवार, 21 जून 2011
"गीत- प्यार हुआ आवारा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
सिसक रहा है आज वतन में, खुशियों का चौबारा। छल-फरेब की कारा में, जकड़ा है भाईचारा।। पगडण्डी पर चोर-लुटेरे, चौराहों पर डाकू, रिश्तों की झाड़ी में पसरे, भाई बने लड़ाकू, सम्बन्धों में गरल भरा है, प्यार हुआ आवारा। छल-फरेब की कारा में, जकड़ा है भाईचारा।। मन में कोरा स्वार्थ समाया, मुख पर मीठी बातें, ममता-समता झूठी-झूठी, झूठी सब सौगातें, अपने ही हो गये बिराने, देगा कौन सहारा? छल-फरेब की कारा में, जकड़ा है भाईचारा।। नहीं तमन्ना है दुलार की, नहीं प्यार में राहत, सन्तानों को केवल है अब, अधिकारों की चाहत, पर आने पर पंछी ने घर से कर लिया किनारा। छल-फरेब की कारा में, जकड़ा है भाईचारा।। |
सोमवार, 20 जून 2011
"कीट निकम्मे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
प्रथम-दूसरे और तीसरे, चौथे और पाँचवे खम्बे। सबको कुतर रहे भीतर घुस, घुन बनकर कुछ कीट निकम्मे।। जिनको सौंपी पहरेदारी, वो करते हैं चोरी-जारी, खाकर करते नमक हरामी, खुले आम करते गद्दारी, चाँदी-सोना लूट लिया सब, खम्बों पर धर दिये मुलम्मे। सबको कुतर रहे भीतर घुस, घुन बनकर कुछ कीट निकम्मे।। योगी-भोगी सन्त बने हैं, मोटे मगर महन्त बने है, दिखलाने के दाँत अलग हैं, पर खाने के दन्त घने हैं, अमल-धवल सी केंचुलियों में, छिपे हुए विषधर बदरंगे। सबको कुतर रहे भीतर घुस, घुन बनकर कुछ कीट निकम्मे।। जनता की है झोली खाली, भरी हुई है इनकी थाली. रक्षा-सौदों, ताबूतों में खेल-खेल में हुई दलाली, मुख में राम, बगल में चाकू रखकर बोल रहे जय-अम्बे। सबको कुतर रहे भीतर घुस, घुन बनकर कुछ कीट निकम्मे।। सुन्दर लगता बहुत धतूरा, लेकिन बहुत विषैला होता, झूठ बहुत प्यारा लगता है, लेकिन सत्य कसैला होता, जैसा देखा वही लिखा है, रक्षा करना हे जगदम्बे! सबको कुतर रहे भीतर घुस, घुन बनकर कुछ कीट निकम्मे।। |
रविवार, 19 जून 2011
"नेट की दक्षिणा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
दो दिन की चैट दिनांक 14 जून, 20011 को सुरेश राजपूत की चैट आई! बातों-बातों में पता लगा कि वो पन्तनगर में रहते है। वो मेरी बातों में बहुत रुचि ले रहे थे तो मुझे भी लगा कि यह व्यक्ति जिज्ञासु है। मैंने इनसे कहा कि आप ब्लॉगिंग क्यों नहीं करते? सुरेश जी उत्तर दिया कि मैं तो ब्लॉगिंग का क-ख-ग-घ भी नहीं जानता हूँ। मैंने कहा कि आपका ब्लॉग बना दूँ। इन्होंने उत्तर दिया- हाँ बना दीजिए! मैंने इनसे आग्रह किया कि आप कुछ फोटो मुझको भेज दीजिए। इस पर सुरेश जी ने बहुत संकोच से कहा कि मेरे पास मेरी अकेले की को फोटो नहीं है। अब मैंने इनसे कहा कि आप कुछ ऐसी फोटो भेज दीजिए जिसमें आप भी हों तो इन्होंने मुझे 3 फोटों भेजी। तब मैंने इनके भेजे हुए चित्रों में से फोटोशॉप के प्रयोग से इनको एकल बना लिया और “अनुपमांश” के नाम से यह ब्लॉग बना कर इनको दे दिया। अब इस ब्लॉग पर पोस्ट लगाने का तरीका भी इनको समझाना था। मैंने इन्हें कुछ समझाया तो इनको अधिक समझ में नहीं आया। इस पर इन्होंने कहा कि मैं आपको गुरू मानता हूँ। आप मेरे ब्लॉग पर पहली पोस्ट लगाकर इसका लोकार्पण कर दीजिए। इनके आग्रह पर मैंने “अनुपमांश” पर पहली पोस्ट भी लगा दी। "अनुपमांश ब्लॉग का लोकार्पण" (सुरेश राजपूत)
सुरेश राजपूत जी से मुलाकात को तीन दिन पूरे भी नहीं हुए थे कि यह 18 जून को अपराह्न 4 बजे मेरे निवास पर आ गये। आते ही इन्होंने मुझे 5 किलो बनारसी आम भेंट किये। क्योंकि इन्हें चैटिंग में पता लग चुका था कि मुझे आम बहुत पसन्द हैं। दो घण्टा कम्प्यूटर पर बैठने के बाद हम लोग यहाँ से 7 किमी दूर चकरपुर के जंगल में स्थित शिवमन्दिर वनखण्डी महादेव के दर्शनों के लिए गए। वहाँ से जैसे ही लौटकर आये तो सरस पायस के सम्पादक रावेंद्रकुमार रवि जी भी आ गये और 9 बजे तक ब्लॉगिंग को लेकर काफी गप-शप हुई। अब हम दोनों अतिथिगृह में विश्राम के लिए चले गये लेकिन बातों में से बातें निकलतीं गईं और एक बजे के लगभग सोना हुआ। मुझे प्रतिदिन सुबह 5 बजे उठने की आदत है इसलिए मैं चुपके से उठा और 6-30 तक अपने दैनिक कार्य निबटाए। इसके बाद सुरेश जी भी उठे ब्रुश आदि करके कहने लगे कि मित्र आज पन्तनगर विश्वविद्यालय में कोई परीक्षा है इसलिए मुझे 9 बजे ड्यूटी पर हाजिर होना होगा। अब मैं उन लम्हों का जिक्र करने जा रहा हूँ। जिन्होंने मुझे भाव-विभोर कर दिया था। यदि सच पूछा जाए तो यह पूरी पोस्ट लिखने का सार निम्न पंक्तियों में ही छिपा हुआ है। सुरेश जी ने मुझे विश्वविद्यालय के मोनोग्राम वाली काली टी-शर्ट और पैण्ट-शर्ट का कपड़ा गुरू-दक्षिणा में दिया और मेरे चरण स्पर्श करके अपनी वैगन-आर की ड्राइविंग सीट पर बैठ गये। मैं भी ऐसे शिष्य को पाकर धन्य हो गया। |
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