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गुरुवार, 31 मई 2012
बुधवार, 30 मई 2012
"रंग-बिरंगी चिड़िया रानी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रंग-बिरंगी चिड़िया रानी। सबको लगती बहुत सुहानी।। दाना-दुनका चुग कर आती। फिर डाली पर है सुस्ताती। रोज भोर में यह उठ जाती। चीं-चीं का मृदु-राग सुनाती।। फुदक-फुदक कर कला दिखाती। झटपट नभ में यह उड़ जाती।। तिनका-तिनका जोड़-जोड़कर। नीड़ बनाती है यह सुन्दर।। उसमें अण्डों को देती है। तन-मन से उनको सेती है।। अब यह मन ही मन मुस्काती। चूजे पाकर खुश हो जाती।। चुग्गा इनको नित्य खिलाती। दुनियादारी को सिखलाती।। एक समय ऐसा भी आता। जब इसका मन है अकुलाता।। फुर्र-फुर्र बच्चे उड़ जाते। इसका घर सूना कर जाते।। करने लगते हैं मनमानी। चिड़िया की है यही कहानी।। ♥चित्रांकन-प्रांजल शास्त्री♥ |
मंगलवार, 29 मई 2012
"महँगाई-छः दोहे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
पूरी दुनिया में चला, मन्दी का है दौर। लेकिन मेरे देश में, महँगाई का ठौर।१। लाभ कमाती तेल में, भारत की सरकार। झेल रही जनता यहाँ, महँगाई की मार।२। सत्ताधारी शान से, सुना रहे फरमान। महँगाई से त्रस्त हैं, निर्धन-श्रमिक-किसान।३। हा-हाकार मचा हुआ, दुर्लभ मिट्टीतेल। मार रसोईगैस की, लोग रहे हैं झेल।४। बापू जी के देश में, बढ़ने लगे दलाल। शिकवा किससे हम करें, पूरी काली दाल।५। महँगाई के युद्ध में, हार गया है राम। जनसेवक ही खा रहा, अब काजू-बादाम।६। |
सोमवार, 28 मई 2012
"फल जीवन देने वाले हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
घर की वाटिकाओं में हमको, सब्जी-शाक उगाना है। शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।। गैया-भैंसों का हमको लालन-पालन करना होगा, अण्डे-मांस छोड़कर, हमको दूध-दही अपनाना है। शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।। छाछ और लस्सी कलियुग में अमृततुल्य कहाते हैं, पैप्सी, कोका-कोला को, भारत से हमें भगाना है। शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।। दाड़िम और अमरूद आदि, फल जीवन देने वाले हैं, आँगन और बगीचों में, फलवाले पेड़ लगाना है। शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।। मानवता के हम संवाहक, ऋषियों के हम वंशज हैं, दुनिया भर को फिर से, शाकाहारी हमें बनाना है। शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।। |
रविवार, 27 मई 2012
"बदल जाते तो अच्छा था" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
समय के साथ में हम भी, बदल जाते तो अच्छा था। घनी ज़ुल्फों के साये में, ग़ज़ल गाते तो अच्छा था। सदाएँ दे रहे थे वो, अदाओं से लुभाते थे, चटकती शोख़ कलियों पर, मचल जाते तो अच्छा था। पुरातनपंथिया अपनी, बनी थीं राह का रोड़ा, नये से रास्तों पर हम, निकल जाते तो अच्छा था। मगर बन गोश्त का हलवा, हमें खाना नहीं आया, सलीके से गरीबों को, निगल जाते तो अच्छा था। मिली सौहबत पहाड़ों की, हमारा दिल हुआ पत्थर, तपिश से प्रीत की हम भी, पिघल जाते तो अच्छा था। जमा था “रूप” का पानी, हमारे घर के आँगन में, सुहाने घाट पर हम भी, फिसल जाते तो अच्छा था। |
"ग्राम्य जीवन से जुड़े-मेरे तीन पुराने गीत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों आज प्रस्तुत कर रहा हूँ, गाम्य जीवन से जुड़े अपने तीन गीत। जो मेरे काव्य संग्रह “सुख का सूरज” में शुक्रवार, 13 मार्च 2009 "टूटा स्वप्न" मेरे गाँव, गली-आँगन में, अपनापन ही अपनापन है। देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।। घर के आगे पेड़ नीम का, वैद्यराज सा खड़ा हुआ है। माता जैसी गौमाता का, खूँटा अब भी गड़ा हुआ है। टेसू के फूलों से गुंथित, तीनपात की हर डाली है घर के पीछे हरियाली है, लगता मानो खुशहाली है। मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है। देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।। पीपल के नीचे देवालय, जिसमें घण्टे सजे हुए हैं। सांझ-सवेरे भजन-कीर्तन,ढोल-मंजीरे बजे हुए हैं। कहीं अजान सुनाई देती, गुरू-वाणी का पाठ कहीं है। प्रेम और सौहार्द परस्पर, वैर-भाव का नाम नही है। मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है। देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।। विद्यालय में सबसे पहले, ईश्वर का आराधन होता। देश-प्रेम का गायन होता, तन और मन का शोधन होता। भेद-भाव और छुआ-छूत का,सारा मैल हटाया जाता। गणित और विज्ञान साथ में, पर्यावरण पढ़ाया जाता। मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है। देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।। रोज शाम को दंगल-कुश्ती, और कबड्डी खेली जाती। योगासन के साथ-साथ ही, दण्ड-बैठकें पेली जाती। मैंने पूछा परमेश्वर से, जन्नत की दुनिया दिखला दो। चैन और आराम जहाँ हो, मुझको वह सीढ़ी बतला दो। मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है। देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।। तभी गगन से दिया सुनाई, तुम जन्नत में ही हो भाई। मेरा वास इसी धरती पर, जिसकी तुमने गाथा गाई। तभी खुल गयी मेरी आँखें, चारपाई दे रही गवाही। सुखद-स्वप्न इतिहास बन गया, छोड़ गया धुंधली परछाई। मेरे गाँव, गली आँगन में, अब तो बस अञ्जानापन है। देश-वेश-परिवेश सभी में, बसा हुआ दीवानापन है।। कितना बदल गया है भारत, कितने बदल गये हैं बन्दे। मानव बन बैठे हैं दानव, तन के उजले, मन के गन्दे। वीर भगत सिंह के आने की, अब तो आशा टूट गयी है। गांधी अब अवतार धरेंगे, अब अभिलाषा छूट गयी है। सन्नाटा फैला आँगन मेंआसमान में सूनापन है। चारों तरफ प्रदूषण फैला, व्यथित हो रहा मेरा मन है।। मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है। देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।। (२) सोमवार, 2 मार्च 2009 "याद बहुत आते हैं" गाँवों की गलियाँ, चौबारे, याद बहुत आते हैं। कच्चे-घर और ठाकुरद्वारे, याद बहुत आते हैं।। छोड़ा गाँव, शहर में आया, आलीशान भवन बनवाया, मिली नही शीतल सी छाया, नाहक ही सुख-चैन गँवाया। बूढ़ा बरगद, काका-अंगद, याद बहुत आते हैं।। अपनापन बन गया बनावट, रिश्तेदारी टूट रहीं हैं। प्रेम-प्रीत बन गयी दिखावट, नातेदारी छूट रहीं हैं। गौरी गइया, मिट्ठू भइया, याद बहुत आते हैं।। भोर हुई, चिड़ियाँ भी बोलीं, किन्तु शहर अब भी अलसाया। शीतल जल के बदले कर में, गर्म चाय का प्याला आया। खेत-अखाड़े, हरे सिंघाड़े, याद बहुत आते हैं।। चूल्हा-चक्की, रोटी-मक्की, कब का नाता तोड़ चुके हैं। मटकी में का ठण्डा पानी, सब ही पीना छोड़ चुके हैं। नदिया-नाले, संगी-ग्वाले, याद बहुत आते हैं।। घूँघट में से नयी बहू का, पुलकित हो शरमाना। सास-ससुर को खाना खाने, को आवाज लगाना। हँसी-ठिठोली, फागुन-होली, याद बहुत आते हैं।। (३) शुक्रवार, 26 मार्च 2010 “हमको याद दिलाते हैं” जब भी सुखद-सलोने सपने, नयनों में छा आते हैं। गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं। सूरज उगने से पहले, हम लोग रोज उठ जाते थे, दिनचर्या पूरी करके हम, खेत जोतने जाते थे, हरे चने और मूँगफली के, होले मन भरमाते हैं। गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।। मट्ठा-गुड़ नौ बजते ही, दादी खेतों में लाती थी, लाड़-प्यार के साथ हमें, वह प्रातराश करवाती थी, मक्की की रोटी, सरसों का साग याद आते हैं। गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।। आँगन में था पेड़ नीम का, शीतल छाया देता था, हाँडी में का कढ़ा-दूध, ताकत तन में भर देता था, खो-खो और कबड्डी-कुश्ती, अब तक मन भरमाते हैं। गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।। तख्ती-बुधका और कलम, बस्ते काँधे पे सजते थे, मन्दिर में ढोलक-बाजा, खड़ताल-मँजीरे बजते थे, हरे सिंघाड़ों का अब तक, हम स्वाद भूल नही पाते हैं। गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।। युग बदला, पहनावा बदला, बदल गये सब चाल-चलन, बोली बदली, भाषा बदली, बदल गये अब घर आंगन, दिन चढ़ने पर नींद खुली, जल्दी दफ्तर को जाते हैं। गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।। |
शनिवार, 26 मई 2012
"हर बिल्ला नाखून छिपाता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सच्चाई में बल होता है, झूठ पकड़ में है आ जाता। नाज़ुक शाखों पर जो चढ़ता, वो जीवनभर है पछताता। समझदार को मीत बनाओ, नादानों को मुँह न लगाओ। बैरी दानिशमन्द भला है, राज़ न अपना उसे बताओ। आसमान पर उड़नेवाला, औंधे मुँह धरती पर आता। नाज़ुक शाखों पर जो चढ़ता, वो जीवनभर है पछताता। उससे ही सम्बन्ध बढ़ाओ, प्रीत-रीत को जो पहचाने। गिले भुलाकर गले लगाओ, धर्म मित्रता का जो जाने। मन के सागर में पलता है, वफा-जफा का रिश्ता-नाता। नाज़ुक शाखों पर जो चढ़ता, वो जीवनभर है पछताता। शक्ल सलोनी, चाल घिनौनी, मुख में राम, बगल में चाकू। धर्म-गुरू का रूप बनाए, लूट रहे जनता को डाकू। मूषक का मन भरमाने को, हर बिल्ला नाखून छिपाता। नाज़ुक शाखों पर जो चढ़ता, वो जीवनभर है पछताता। |
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