जिन्हें नाज़ों से पाला था, वही आँखें दिखाते हैं हमारे दिल में घुसकर वो, हमें नश्तर चुभाते हैं जिन्हें अँगुली पकड़ हमने, कभी चलना सिखाया था जरा सा ज्ञान क्या सीखा, हमें पढ़ना सिखाते हैं -- भँवर में थे फँसे जब वो, हमीं ने तो निकाला था मगर अहसान के बदले, वही चूना लगाते हैं -- हुआ अहसास है अब ये, बड़ी है मतलबी दुनिया, गधे को बाप भी अपना, समय पर वो बनाते हैं -- खनक के देख कर जर की, दगा
देना रवायत है चमन में फूल को काँटे,
हमेशा ही सताते हैं -- बगावत करके लोगों ने,
उजाड़ा आशियाँ कैसे छिपे गैरों का पहलू में,
मुकद्दर आजमाते हैं -- नहीं है “रूप” से मतलब, नहीं है रंग की चिन्ता अगर चाँदी के जूते हो, तो सिर पर वो बिठाते हैं -- |
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गुरुवार, 30 जून 2022
ग़ज़ल "मुकद्दर आजमाते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बुधवार, 29 जून 2022
गीत "नैसर्गिक स्वाद मिठास का" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आम नहीं अब रहा आम, वो तो है केवल खास का। नजर नहीं आता बैंगन भी, यहाँ कोई विश्वास का।। -- अब तो भिण्डी, लौकी-तोरी संकर नस्लों वाली हैं, कद्दू के पिछलग्गू भी अब खाने लगे दलाली हैं, टिण्डा और करेला भी तो, पात्र बना परिहास का। नजर नहीं आता बैंगन भी, यहाँ कोई विश्वास का।। -- केला-सेब-पपीता भी तो, खाने लगे दवाई को, बच्चे तरस रहें हैं कब से, खोया और मलाई को, जूस मिलावट वाला पाकर, घुटता गला सुवास का। नजर नहीं आता बैंगन भी यहाँ कोई विश्वास का।। -- खरबूजा-तरबूज सभी के, भाव चढ़े बाजारों में, धनवानों ने कैद करी हैं, लीची कारागारों में, नहीं मिठाई में आता, नैसर्गिक स्वाद मिठास का। नजर नहीं आता बैंगन भी, यहाँ कोई विश्वास का।। -- |
मंगलवार, 28 जून 2022
ग़ज़ल "सियासत में शरारत है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जमाना है तिजारत का, तिज़ारत ही तिज़ारत है तिज़ारत में सियासत है, सियासत में तिज़ारत है सभी वादे इरादे हो गये
बेमायने अब तो भरी नस-नस में लोगों की
सियासत में शरारत है -- ज़माना अब नहीं, ईमानदारी का सचाई का खनक को देखते ही, हो गया ईमान ग़ारत है -- हुनर बाज़ार में बिकता, इल्म की बोलियाँ लगतीं हमारा तो वतन लगता, दलालों का ही भारत है -- प्रजा के तन्त्र में कोई, नहीं सुनता प्रजा की है दिखाने को लिखी मोटे हरफ में बस इबारत है -- डुबोते हो जहाँ अपने
किनारे पर लगी नौका वजीरों की हुई खोटी जमाने
में वजारत है -- हवा का एक झोंका ही धराशायी बना देगा खड़ी है खोखली बुनियाद पर ऊँची इमारत है -- लगा है घुन नशेमन में, फक़त अब “रूप” है बाकी लगी अन्धों की महफिल है, औ’ कानों की सदारत है -- |
सोमवार, 27 जून 2022
सरस्वतीवन्दना "जीवन आसान बना देना" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
हो ज्ञानदायिनी माता तुम, मुझको गुणवान बना देना। विद्या का दान मुझे देकर, माता विद्वान बना देना।। -- बाधाओं ने मुझको घेरा, मन में डाला तम ने डेरा, तन-मन को रोग सताता है, पग-पग पर पथ भटकाता है, अपने साधक को माता तुम, बल से बलवान बना देना। विद्या का दान मुझे देकर, माता विद्वान बना देना।। -- हैं गीत सिसकते मानस में, अँधियारा घोर अमावस में, झंझावातों के हैं घेरे, प्रतिदान अधूरे हैं मेरे, छन्दों का देकर ज्ञान मुझे, माता धनवान बना देना। विद्या का दान मुझे देकर, माता विद्वान बना देना।। -- सूनी है मन की अमराई, होती जाती गहरी खाई, नौका डगमग-डगमग होती, अभिलाषाएँ धीरज खोती, बन जाये गरल सुधा जैसा, जीवन आसान बना देना। विद्या का दान मुझे देकर, माता विद्वान बना देना।। -- करने को माता का वन्दन, लाया हूँ कुछ अक्षत-चन्दन, अब काम न कोई दूजा है, मैंने तुमको ही पूजा है, जब-जब भटके मानस तब-तब, वीणा की तान सुना देना। विद्या का दान मुझे देकर, माता विद्वान बना देना।। -- |
रविवार, 26 जून 2022
गीत "केवल दुर्नीति चलती है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गाँधी बाबा के भारत में, जब-जब मक्कारी फलती है। आजादी मुझको खलती है॥ वोटों की जीवन घुट्टी पी, हो गये पुष्ट हैं मतवाले, केंचुली पहिन कर खादी की, छिप गए सभी विषधर काले , कुछ काम नही बैठे ठाले , करते है केवल घोटाले, अब विदुर नीति तो रही नही, केवल दुर्नीति चलती है। आजादी मुझको खलती है॥ प्रियतम का प्यार नसीब नही, कितनी ही प्राण-प्यारियों को, दानव दहेज़ का निगल चुका , कितनी निर्दोष नारियों को , फांसी खाकर मरना पड़ता, अबला असहाय क्वारियों को , निर्धन के घर कफ़न पहन, धरती की बेटी पलती है। आजादी मुझको खलती है॥ निर्बल मजदूर किसानों के, हिस्से में कोरे नारे हैं, चाटुकार-मक्कारों ही के, होते वारे-न्यारे हैं, ये रक्ष संस्कृति के पोषक, जन-गण-मन के हत्यारे हैं, सभ्यता इन्ही की बंधक बन, रोती है आँखें मलती है। आजादी मुझको खलती है॥ मैकाले की काली शिक्षा, भिक्षा की रीति सिखाती है, शिक्षित बेकारों की संख्या, दिन-प्रतिदिन बढती जाती है, नौकरी उसी के हिस्से में, जो नेताजी का नाती है, है बाल अरुण बूढ़ा-बूढ़ा, तरुणाई ढलती जाती है। आजादी मुझको खलती है॥ |
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