महक रहा है मन का आँगन, दबी हुई कस्तूरी होगी। दिल की बात नहीं कह पाये, कुछ तो बात जरूरी होगी।। सूरज-चन्दा जगमग करते, नीचे धरती, ऊपर अम्बर। आशाओं पर टिकी ज़िन्दग़ी, अरमानों का भरा समन्दर। कैसे जाये श्रमिक वहाँ पर, जहाँ न कुछ मजदूरी होगी। कुछ तो बात जरूरी होगी।। प्रसारण भी ठप्प हो गया, चिट्ठी की गति मन्द हो गयी। लेकिन चर्चा अब भी जारी, भले वार्ता बन्द हो गयी। ऊहापोह भरे जीवन में, शायद कुछ मजबूरी होगी। कुछ तो बात जरूरी होगी।। हर मुश्किल का समाधान है, सुख-दुख का चल रहा चक्र है। लक्ष्य दिलाने वाला पथ तो, कभी सरल है, कभी वक्र है। चरैवेति को भूल न जाना, चलने से कम दूरी होगी। कुछ तो बात जरूरी होगी।। अरमानों के आसमान का, ओर नहीं है, छोर नहीं है। दिल से दिल को राहत होती, प्रेम-प्रीत पर जोर नहीं है। जितना चाहो उड़ो गगन में, चाहत कभी न पूरी होगी। कुछ तो बात जरूरी होगी।। “रूप”-रंग पर गर्व न करना, नश्वर काया, नश्वर माया। बूढ़ा बरगद क्लान्त पथिक को, देता हरदम शीतल छाया। साजन के द्वारा सजनी की, सजी माँग सिन्दूरी होगी। कुछ तो बात जरूरी होगी।। |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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मंगलवार, 30 नवंबर 2021
गीत "सजी माँग सिन्दूरी होगी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सोमवार, 29 नवंबर 2021
"दोहा छन्द" आलेख (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"दोहा छन्द" दोहा छन्द अर्धसम मात्रिक छन्द है। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में तेरह-तेरह मात्राएँ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं। दोहा छन्द ने काव्य साहित्य के प्रत्येक काल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिन्दी काव्य जगत में दोहा छन्द का एक विशेष महत्व है। दोहे के माध्यम से प्राचीन काव्यकारों ने नीतिपरक उद्भावनायें बड़े ही सटीक माध्यम से की हैं। किन्तु दोहा छन्द के भेद पर कभी भी अपना ध्यान आकर्षित नहीं करना चाहिए। सच तो यह है कि दोहे की रचना करते समय पहले इसे लिखकर गाकर लेना चाहिए तत्पश्चात इसकी मात्राएँ जांचनी चाहिए ! इसमें गेयता का होना अनिवार्य है। दोहे के सम चरणों का अंत 'पताका' अर्थात गुरु लघु से होता है तथा इसके विषम चरणों के आदि में जगण अर्थात १२१ का प्रयोग वर्जित है ! अर्थात दोहे के विषम चरणों के अंत में सगण (सलगा ११२) , रगण (राजभा २१२) अथवा नगण(नसल १११) आने से दोहे में उत्तम गेयता बनी रहती है! सम चरणों के अंत में जगण अथवा तगण आना चाहिए अर्थात अंत में पताका (गुरु लघु) अनिवार्य है। दोहा की उत्पत्ति संस्कृत के दोधक से हुई है। यह अपभ्रंश के उत्तरकाल का प्रमुख छन्द है। दोहा वह छन्द है जिसमें पहलीबार तुक मिलाने का प्रयत्न किया गया था। कहा जाता है कि सिद्धकवि सहरप ने इस छन्द का सबसे पहले प्रयोग किया था। दोहा और साखी समानार्थक छन्द हैं। सन्त कवि कबीर दास ने अपने दोहों को साखी नाम दिया था। पद शैली के सूरदास और मीराबाई ने अपने पदों में इसका प्रयोग किया है। दोहा मुक्तक काव्य का प्रमुख छन्द है। रीतिकालीन कवि बिहारी लाल ने अपने सतसई साहित्य दोहा छन्द का ही प्रयोग किया है। इस छन्द में लघुचित्रों और भावव्यञ्जना को प्रस्तुत करने की अद्भुत क्षमता है। प्राकृत साहित्य में जो स्थान गाथा का है, अपभ्रंश में नही स्थान दोहा छन्द का भी है। दोहा छन्द का ताना बाना समझने के लिए यह जरूरी है कि 13,11-13,11 मात्रा के चार चरण, विषम चरणान्त में प्रायः लघु-गुरू, और सम चरणान्त मे गुरू-लघु तुकान्त का कठोरता से पालन किया जाये। काव्याचार्यों ने दोहे की लय को निर्धारित करने के लिए कलों (द्विकल-त्रिकल-चौकल) का प्रयोग भी किया है, जिसकी अपनी सीमाएं हैं। इस पद्धति में 2,3,4 मात्राओं के वर्ण समूहों को क्रमशः द्विकल , त्रिकल , चौकल कहा जाता है l दोहे के चरणों में कलों का क्रम निम्नवत होता है - विषम चरणों के कलों क्रम - 4 + 4 + 3 + 2 (चौकल+चौकल+त्रिकल+द्विकल) 3 + 3 + 2 + 3 + 2 (त्रिकल+त्रिकल+द्विकल+त्रिकल+द्विकल) सम चरणों के कलों का क्रम - 4 + 4 + 3 (चौकल+चौकल+त्रिकल) 3 + 3 + 2 + 3 (त्रिकल+त्रिकल+द्विकल+त्रिकल) दोहा या किसी अन्य मात्रिक छंद का निर्धारण करने में जिस मात्रा क्रम का उल्लेख किया जाता है, वह वस्तुतः ‘वाचिक’ होता है, ‘वर्णिक’ नहीं । वाचिक मात्राभार मे लय को ध्यान में रखते हुये एक गुरु 2 के स्थान पर दो लघु 11 प्रयोग करने की छूट रहती है, जबकि ‘वर्णिक’ भार मे किसी भी गुरु 2 के स्थान पर दो लघु 11 प्रयोग करने की छूट नहीं होती है अर्थात प्रत्येक ‘वर्ण’ का मात्राभार सुनिश्चित होता है। चूंकि भारतीय छंद शास्त्र के अनुसार गणों (यगण, मगण आदि) की संकल्पना मे प्रत्येक वर्ण का मात्रा भार सुनिश्चित माना गया है। विषम चरणों की बनावट में जगण का प्रयोग निषिद्ध माना जाता है। लेकिन यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि विषम चरण के प्रारम्भ में जगण का निषेध केवल नर काव्य के लिए है। देवकाव्य या मंगलवाची शब्द होने की स्थिति में कोई दोष नहीं है। साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य है कि यदि दो शब्दों से मिलकर जगण बनता है तो उसे दोष नहीं माना जाता है- जैसे “महान” शब्द के तीन वर्ण जगण बना रहे है इसलिए यह वर्जित माना जाता है किन्तु जहाँ दो शब्दों से मिलकर जगण आ रहा हो तो यह वर्जित नहीं माना जाता है। विषम चरणों के अन्त में सगण, रगण, अथवा नगण अच्छा माना जाता है। अन्त में मेरे भी कुछ दोहे इस विषय में समीचीन सिद्ध होंगे। देखिए- तेरह-ग्यारह से बना, दोहा छन्द प्रसिद्ध। माता जी की कृपा से, करलो इसको सिद्ध।। चार चरण-दो पंक्तियाँ, करती गहरी मार। कह देती संक्षेप में, जीवन का सब सार।। समझौता होता नहीं, गणनाओं के साथ। उचित शब्द रखकर करो, दोहाछन्द सनाथ।। सरल-तरल यह छन्द है, बहते इसमें भाव। दोहे में ही निहित है, नैसर्गिक अनुभाव।। तुलसीदास-कबीर ने, दोहे किये पसन्द। दोहे के आगे सभी, फीके लगते छन्द।। दोहा सज्जनवृन्द के, जीवन का आधार। दोहों में ही रम रहा, सन्तों का संसार।| |
रविवार, 28 नवंबर 2021
दोहे "कुटिल न चलना चाल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मतलब में करना नहीं, लोगों की मनुहार।। अपने लेखन में करो, अपने आप सुधार। रँगे पश्चिमी रंग में, जब से अपने गीत। तब से अपने देश का, बिगड़ गया संगीत।। वचनबद्ध रहना सदा, कहलाना प्रणवीर। वचन निभाने के लिए, हमको मिला शरीर।। कहना सच्ची बात को, मत होना भयभीत। जो दे सही सुझाव को, वही कहाता मीत।। कहलाना मत बेवफा, कुटिल न चलना चाल। कभी वफा की राह में, नहीं बिछाना जाल।। |
शनिवार, 27 नवंबर 2021
गीत "मैं घास-पात को चरता हूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
घर-आँगन-कानन में जाकर, केवल तुकबन्दी करता हूँ। अनुभावों का अनुगायक हूँ, मैं कवि लिखने से डरता हूँ।। है नहीं मापनी का गुनिया, अब तो अतुकान्त लिखे दुनिया। असमंजस में हैं सब बालक, क्या याद करे इनको मुनिया। मैं बन करके पागल कोकिल, कोरे पन्नों को भरता हूँ। मैं कवि लिखने से डरता हूँ।। आयुक्त फिरें मारे-मारे, उन्मुक्त हुए बन्धन सारे। जीवन उपवन के शब्दों में, अब तुप्त हो गये बंजारे। पतझर की मारी बगिया में, मैं सुमन सुगन्धित झरता हूँ। मैं कवि लिखने से डरता हूँ।। दे पन्त-निराला की मिसाल, चौकीदारी करते विडाल। निर्मल कैसे अब नीर रहे, कचरा गंगा में रहे डाल। मिलते हैं मोती बगुलों को, मैं घास-पात को चरता हूँ। मैं कवि लिखने से डरता हूँ।। |
गीत "दुर्दशा,मेरे भारत-विशाल की" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- निर्दोष से प्रसून भी, डरे हुए हैं आज। चिड़ियों की कारागार में, पड़े हुए हैं बाज। -- अश्लीलता के गान, नौजवान गा रहा, फटी हुई पतलून से, जग को रिझा रहा, भौंडे सुरों के शोर में, सब दब गये हैं साज। चिड़ियों की कारागार में, पड़े हुए हैं बाज।। -- श्वान और विडाल जैसा, मेल हो रहा, नग्नता, निलज्जता का, खेल हो रहा, चैनल समाज की जहाँ, हों लूट रहे लाज। चिड़ियों की कारागार में, पड़े हुए हैं बाज।। -- भटकी हुई जवानी है, भारत के लाल की, ऐसी है दुर्दशा, मेरे भारत-विशाल की, आजाद और सुभाष के, सपनों पे गिरी गाज। चिड़ियों की कारागार में, पड़े हुए हैं बाज।। -- लिखने को बहुत कुछ है अगर लिखने को आयें, लिखकर कठोर सत्य, यहाँ किसको सुनायें, जंगल में लोमड़ी के, शीश पे धरा है ताज। चिड़ियों की कारागार में, पड़े हुये हैं बाज।। -- रोती पवित्र भूमि, आसमान रो रहा, लगता है घोड़े बेच के, भगवान सो रहा, अब तक तो मात्र कोढ़ था, अब हो गयी है खाज। चिड़ियों की कारागार में, पड़े हुए हैं बाज।। -- |
शुक्रवार, 26 नवंबर 2021
दोहे "जीवन है बेहाल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
घटते जाते भूमि से, बरगद-पीपल-नीम। इसीलिए तो आ रहे, घर में रोज हकीम।। -- रक्षक पर्यावरण के, होते पौधे-पेड़। लेकिन मानव ने दिये, जड़ से पेड़ उखेड़।। -- पेड़ काटता जा रहा, धरती का इंसान। प्राणवायु कैसे मिले, सोच अरे नादान।। -- दौलत के मद में मनुज, करता तोड़-मरोड़। हरितक्रान्ति संसार में, आज रही दम तोड़।। -- कंकरीट को बो रहा, खेतों में इंसान। कसरत करने के लिए, बचे नहीं मैदान।। -- आबादी तो बढ़ रही, घटते जंगल-खेत। नदियों में पानी बिना, उड़ता केवल रेत।। -- दोहन हुआ पहाड़ का, गरज रहा भूचाल। इंसानी करतूत से, जीवन है बेहाल।। |
गुरुवार, 25 नवंबर 2021
ग़ज़ल "एतबार अपने पे कम हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
ये माना कि ग़म में हुई चश्म नम हैं, मगर दिल-जिगर में बहुत जोशे-दम हैं। भरोसा जिन्हें अपने जज़्बात पर है, मगर उनको एतबार अपने पे कम हैं। अन्धेरों-उजालों भरी जिन्दगी में, हर इक कदम पर भरे पेंच-औ-खम हैं। जिन्हें दर्द पीने की आदत लगी है, दुनिया में उन जैसे कितने सनम हैं। समाया हुआ “रूप” दिलवर का दिल में, सितारों की किस्मत में लिक्खे सितम हैं। |
बुधवार, 24 नवंबर 2021
ग़ज़ल "खून पीना जानते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
काम कुछ करते नही बातें बनाना जानते हैं। महफिलों में वो फकत जूते ही खाना जानते हैं।। मुफ्त का खाया है अब तक और खायेंगे सदा, जोंक हैं वो तो बदन का खून पीना जानते हैं। राम से रहमान को जिसने लड़ाया आज तक, वो मजहब की आड़ में रोटी पकाना जानते हैं। गाय की औकात क्या? हम दुह रहे हैं साँड भी, रोजियाँ ताबूत में से हम कमाना जानते हैं। दाँत खाने के अलग हैं और दिखाने के अलग, थूक आँखों में लगा आँसू बहाना जानते हैं। कर रहे हैं जो चमन का “रूप” मैला आज भी, वो उभरती पौध को विष ही पिलाना जानते हैं। |
मंगलवार, 23 नवंबर 2021
ग़ज़ल "साहूकार ने भिक्षुक बनाया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
जलाया खून है अपना, पसीना भी बहाया है। कृषक ने अन्न खेतों में, परिश्रम से कमाया है।। सुलगते जिसके दम से हैं, घरों में शान से चूल्हे, उसी पालक को, साहूकार ने भिक्षुक बनाया है। मुखौटा पहनकर बैठे हैं, ढोंगी आज आसन पर, जिन्होंने कंकरीटों का, यहाँ जंगल उगाया है। कहें अब दास्तां किससे, अमानत में ख़यानत है, जमाखोरों का अब अपने, वतन में राज आया है। पहन खादी की केंचुलिया, छिपाया “रूप” को अपने, रिज़क इस देश का खाकर, विदेशी गान गाया है। |
सोमवार, 22 नवंबर 2021
ग़ज़ल "बुनियाद की ईंटें दिखायी तो नहीं जाती" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)
कभी शुरुआत की शिक्षा, भुलायी तो नहीं जाती मगर बुनियाद की ईंटें, दिखायी तो नहीं जाती
जमाने भर की कमियाँ, हम जमाने को बताते हैं मगर सन्तान की कमियाँ, गिनायी तो नहीं जाती
जो दिलवर चोर हैं वो डालते खुलकर डकैती को मगर दौलत कभी उनकी, चुरायी तो नहीं जाती
कभी जो दिल के दरवाजे पे, दस्तक रोज देते थे उन्हें दस्तकदिले अपनी, सुनायी तो नहीं जाती
जिन्होंने जन्म देकर, ‘रूप’ को नाजों से पाला है कभी माँ-बाप की कीमत, चुकायी तो नहीं जाती |
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