श्रीमती अमर भारती जी! !! आपको जन्म-दिन की हार्दिक शुभकामनाएँ !! भारती के जन्म-दिन को मैं मनाना भूल जाऊँ, स्वप्न में भी यह कभी भी हो नही सकता। इक सलोना नीड़ सुख का मैं बनाना भूल जाऊँ, स्वप्न में भी यह कभी भी हो नही सकता। तुम्ही से है जिन्दगी, तुम सृजन का संसार हो, गीत, गज़लों, कल्पनाओं का तुम्ही आधार हो, प्रीत के गुंथित सुमन को सर चढ़ाना भूल जाऊँ, स्वप्न में भी यह कभी भी हो नही सकता। बदरंग से इस ठूँठ को तुमने लताओं से सवाँरा, रंज-ओ-गम के दौर में तुमने दिया इसको सहारा, प्यार के उपहार को,आभास को मैं भूल जाऊँ, स्वप्न में भी यह कभी भी हो नही सकता। देह के इस गेह में जब तक रहेंगे प्राण मेरे, लेखनी बन कर चलेंगे तरकशों से बाण मेरे, भारती की आरती को अर्चना को भूल जाऊँ, स्वप्न में भी यह कभी भी हो नही सकता। |
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बुधवार, 30 सितंबर 2009
"हो नही सकता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
मंगलवार, 29 सितंबर 2009
‘‘सीताओं का हरण’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)
!!अन्तिम राक्षस!!
दशहरा था दशानन, मेघनाद और कुम्भकर्ण के गगनचुम्बी पुतले मैदान में सजे थे रामलीला मैदान में मेला लगा था हजारों लोगों की भीड़ थी श्री राम जी की जय के उद्घोष के साथ पुतलों का दहन शुरू हो चुका था इस मेले से चार बालाएँ गुम हो गई थी बार-बार एक ही प्रश्न मन में उठ रहा था "अन्तिम राक्षसरावण तो जला दिया।’’ फिर कौन से राक्षसों ने चार सीताओं का हरण किया।। (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
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सोमवार, 28 सितंबर 2009
‘‘कोई बात बने’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मित्र का साथ निभाओ तो कोई बात बने। राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।। एक दिन मौज मनाने से क्या भला होगा? रोज दीवाली मनाओ तो कोई बात बने। राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।। इन बनावट के उसूलों में धरा ही क्या है? प्रीत हर दिल में जगाओ तो कोई बात बने। राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।। क्यों खुदा कैद किया दैर-ओ-हरम में नादां, रब को सीने में सजाओ तो कोई बात बने। राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।। सिर्फ पुतलों के जलाने से फयदा क्या है? दिल के रावण को जलाओ तो कोई बात बने। राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।। |
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रविवार, 27 सितंबर 2009
शहीद-ए-आज़म स. भगत सिंह (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
शहीद-ए-आज़म स0 भगत सिंह को उनके 103वें जन्म-दिवस पर बलिदान- 23 मार्च, 1931 ई0। स0 भगत सिंह ने मात्र 23 वर्ष, 5 माह, 25 दिन की अल्पायु में हँसते हुए फाँसी के फन्दे को चूम लिया था। यदि साहित्यकार के दृष्टिकोण से देखा जाए तो एक 23 वर्षीय नौजवान ने इतनी छोटी आयु में भाषा और साहित्य का कितना गहन अध्ययन किया होगा। स0 भगत सिंह आजकल के नौजवानों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं। हमारी स्वतन्त्रता आज तक इसी लिए अक्षुण्ण है कि इसके मूल में स0 भगत सिंह सरीखे न जाने कितने ही नाम-अनाम स्वनामधन्य शहीदों का बलिदान प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में निहित है। |
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शनिवार, 26 सितंबर 2009
‘‘खुद बचना और बचाना है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शुक्रवार, 25 सितंबर 2009
‘‘विश्व में मैं ज्ञान का दीपक जलाऊँ’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गुरुवार, 24 सितंबर 2009
‘‘शेर गढ़ने का मन ही नही है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
"कव्वाली"
लिखने-पढ़ने का मन ही नही है।
गीत रचने का मन ही नही है।
इश्क करने का मन ही नही है।
मेरा मिलने का मन ही नही है।
अब सँवरने का मन ही नही है।
वार करने का मन ही नही है।
लड़ने-भिड़ने का मन ही नही है।
शेर गढ़ने का मन ही नही है। |
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बुधवार, 23 सितंबर 2009
‘‘नेह की बातें करो’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
प्रेय को मन से हटाओ, श्रेय की बातें करो। देह के मत गीत गाओ, नेह की बातें करो।। अल्पना को रंग की होती जरूरत, कल्पना को ढंग की होती जरूरत, स्वप्न कोरे मत दिखाओ, गेह की बातें करो। देह के मत गीत गाओ, नेह की बातें करो।। प्यार ही तो जिन्दगी का सार है, प्रीत के बल पर टिका संसार है, बादलों को गुनगुनाओ, मेह की बातें करो। देह के मत गीत गाओ, नेह की बातें करो।। रूप है इक धूप, ढल ही जायेगी, स्वर्ण-काया खाक में मिल जायेगी, कामनाएँ मत बढ़ाओ, ध्येय की बातें करो। देह के मत गीत गाओ, नेह की बातें करो।। |
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सोमवार, 21 सितंबर 2009
‘‘नाग का हम फन कुचलना जानते हैं’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
ईद, होली के दिनों में, प्यार के दस्तूर को पहचानते हैं। हम तो वो शै हैं जो पत्थर को मनाना जानते हैं।
फूल में हैं गन्ध के मानिन्द हम, दोस्ती को हम निभाना जानते हैं।
रोशनी के वास्ते दीपक जलाया, प्रीत का दरिया बहाना जानते हैं।
किन्तु वे हरकत से बाज आते नही हैं, नाग का हम फन कुचलना जानते हैं। |
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रविवार, 20 सितंबर 2009
‘‘आदमी के डसे का नही मन्त्र है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
बावफा के लिए तो नियम हैं बहुत, बेवफाई का कोई नही तन्त्र है। सर्प के दंश की तो दवा हैं बहुत , आदमी के डसे का नही मन्त्र है।।
गन्ध देना ही है पुष्प का व्याकरण, दुग्ध देना ही है गाय का आचरण, तोल और माप के तो हैं मीटर बहुत, प्यार को नापने का नही यन्त्र है। आदमी के डसे का नही मन्त्र है।।
ईद, होली, दिवाली के त्योहार में, दम्भ की है मिलावट भरी प्यार में, आ बसी हैं विदेशों की पागल पवन, छल-कपट से भरा आज जनतन्त्र है। आदमी के डसे का नही मन्त्र है।
नींव कमजोर पर हैं इमारत खड़ी, शून्य से हो रहीं हैं इबारत बड़ी, राम के राज में चोर-डाकू बहुत, झूठ आजाद है, सत्य परतन्त्र है। आदमी के डसे का नही मन्त्र है।। |
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शनिवार, 19 सितंबर 2009
‘‘इस जालिम जमाने में’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
नही है चैन और आराम, इस जालिम जमाने में।।
प्रभू के नाम पर योगी, लगे खाने-कमाने में। नही है चैन और आराम, इस जालिम जमाने में।।
शजर मशगूल हैं अपने फलों को आज खाने में। नही है चैन और आराम, इस जालिम जमाने में।।
चिरागों ने लगाई आग, खुद ही आशियाने में। नही है चैन और आराम, इस जालिम जमाने में।।
दुआएँ कैद हैं अब तो, गुनाहों की दुकानों में। नही है चैन और आराम, इस जालिम जमाने में।। |
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शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
‘‘जीवन’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जीवन ! दो चक्र कभी सरल कभी वक्र, जीवन ! दो रूप कभी छाँव कभी धूप जीवन! दो रुख कभी सुख कभी दुःख जीवन ! दो खेल कभी जुदाई कभी मेल जीवन ! दो ढंग कभी दोस्ती कभी जंग जीवन ! दो आस कभी तम कभी प्रकाश जीवन ! दो सार कभी नफरत कभी प्यार |
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गुरुवार, 17 सितंबर 2009
‘‘धरती का श्रंगार’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
बुधवार, 16 सितंबर 2009
‘‘चौदह दिन भी बीते’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
आया मास सितम्बर तेरह-चौदह दिन भी बीते। हिन्दी-हिन्दी रटा, मगर गागर अब तक हैं रीते।। शरमा गये श्राद्ध भी, हमने इतनी श्रद्धा दिखलाई। साठ वर्ष से राज-काज में हिन्दी नही समाई।। रूस, चीन, जापान सबल हैं, अपनी ही भाषा से। देख रही है हिन्दी, अपनों को कितनी आशा से।। कब आयेगा सुप्रभात, कब सूरज नया उगेगा? राष्ट्रसंघ में कब अपनी भाषा का भाग जगेगा? भ्रष्ट राजनेताओं की, अब नष्ट सियासत करनी है। सब भाषाओं के ऊपर अपनी भाषा अब धरनी है।। |
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मंगलवार, 15 सितंबर 2009
साहित्य-गोष्ठी, सर्वोदय साहित्य मण्डल, दिल्ली।
सोमवार, 14 सितंबर 2009
‘‘मन्त्रियों की जबानों में छाला हुआ’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
हिन्दी-दिवस की शुभकामनाएँ!! तेल कानों में हमने है डाला हुआ। बीनने हमको टुकड़े हैं परदेश के, इसलिए रोग इंग्लिश का पाला हुआ। तेल कानों में हमने है डाला हुआ।।
देश से अपना नाता न जाना कभी, सभ्यता को है पश्चिम में ढाला हुआ। तेल कानों में हमने है डाला हुआ।।
भोली-बोली का दिन रोग का है दिवस, स्वामिनी को दिलों से निकाला हुआ। तेल कानों में हमने है डाला हुआ।।
आंग्ल-भाषा की रातें तो पावस सी हैं, मन्त्रियों की जबानों में छाला हुआ। तेल कानों में हमने है डाला हुआ।। |
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रविवार, 13 सितंबर 2009
शुक्रवार, 11 सितंबर 2009
‘‘मंगल ही मंगल होता है, इस दंगल में’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गुरुवार, 10 सितंबर 2009
‘‘करोड़ों पैदा हो जाते हैं अगले साल’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
पुराने परिवेश में राम के देश में पग-पग पर थीं मर्यादाएँ जीवित थे आचरण भाषा में थी व्याकरण शुद्ध थे अन्तःकरण किन्तु आज चरित्र का ह्रास हो रहा है विकास द्रोपदियों का चीर हरण सभ्यता का विनाश अबला सीताओं का हरण हम वर्ण-संकर कैसे हो गये? राम के वंशज कहाँ खो गये? चारों ओर रावण ही रावण नजर आते हैं और राम भय और लज्जा से घरों में छिप जाते हैं सीधी सी बात है रावण ज्यादा और राम कम हैं इसी बात का तो गम है वाह.... राक्षस हैं या रक्त-बीज लाखों जलाते हैं हर साल करोड़ों पैदा हो जाते हैं अगले साल!! |
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बुधवार, 9 सितंबर 2009
मंगलवार, 8 सितंबर 2009
सोमवार, 7 सितंबर 2009
‘‘कर्जा जो चुकाना है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
उधार की जिन्दगी लौट आई है फिर से पटरी पर बहुत दिनों से सूद नही दिया था इसीलिए तो साहूकार ब्याज वसूलने आया था आखिर तीन दिनों में सूद चुकता कर ही दिया अभी तो असल चुकाना बाकी है तब तक तो.... अपने को बन्धक रखना ही होगा लेकिन इस बार साहूकार मेरे द्वार पर नही आयेगा बल्कि मुझे ही उसके दर पर जाना होगा कर्जा जो चुकाना है! |
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रविवार, 6 सितंबर 2009
‘‘जहर वेदना के पिये जा रहे हैं’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
घुटन और सड़न में जिए जा रहे हैं, जहर वेदना के पिये जा रहे हैं। फकत नाम की है यहाँ राष्ट्र-भाषा, चढ़ी है जुबाँ पर यहाँ आंग्ल-भाषा, सभी काम इसमें किये जा रहे हैं। चुनावों में हिन्दी ध्वजा गाड़ते हैं, संसद में अंग्रेजियत झाड़ते हैं, ये सन्ताप माँ को दिये जा रहे हैं। जिह्वा कलम कर विदेशों में जाते, ये हिन्दी को नीचा हमेशा दिखाते, ये नौका भँवर में लिए जा रहे है। भारत की है जान दिल और जिगर है ये सन्तों की वाणी अमर है अजर है, फटे आवरण को सिये जा रहे है। |
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शनिवार, 5 सितंबर 2009
‘‘नफरत की मशालें जल नही सकती’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
हमारे मुल्क में गन्दी तिजारत फल नही सकती। जो दहशतगर्द हैं उनकी यहाँ पर चल नही सकती।।
अहिंसा का चमन सींचा है बापू ने सखावत से, यहाँ सौदागरों की दाल अब तो गल नही सकती।
वफादारी की धारा खून में बहती हमारे है, जफाएँ मूँग सीनो पर हमारे दल नही सकती।
धर्म-निरपेक्ष भारत में सभी रहते मुहब्बत से, फरेबी और फितरत इस वतन में पल नही सकती।
तिरंगा जान हैं अपनी, तिरंगा शान है अपनी, हमारे दिल में नफरत की मशालें जल नही सकती।
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शुक्रवार, 4 सितंबर 2009
‘‘अकेले नही इस जमाने में हम हैं’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
आज फिर किसी ब्लागर मित्र को टिपियाते हुए फिर से ये गज़ल बन गई है-
मगर दिल-जिगर में बहुत जोर-दम हैं।
मगर उनको एतबार खुद पे ही कम हैं।
कदम दर कदम पर भरे पेंच-औ-खम हैं।
अकेले नही इस जमाने में हम हैं। |
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गुरुवार, 3 सितंबर 2009
‘‘मिटा देंगे पल भर में भूगोल सारा’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
अमन का चमन ये वतन है हमारा। नही दानवों का यहाँ है गुजारा।। खदेड़ा हैं गोरों को हमने यहाँ से, लहू दान करके बगीचा सँवारा। बजें चैन की वंशियाँ मन-सुमन में, नही हमको हिंसा का आलम गवारा। दिया पाक को देश का पाक हिस्सा, अनुज के हकों को नही हमने मारा। शुरू से सहा आज तक सह रहे हैं, छोटा समझ कर दिया है सहारा। दरियादिली बुजदिली मत समझना, समझदार बन कर समझना इशारा। हिदायत हमारी है सीमा न लाँघो, मिटा देंगे पल भर में भूगोल सारा। |
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‘‘आज शिक्षक दिवस है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
विद्याएँ लुप्तप्रायः छात्र कहाँ जायें शिक्षा का शोर ट्यूशन का जोर सजी हैं दूकानें लोग लगे हैं कमाने-खाने गुरू गायब विद्यालयों की भरमार जगत-गुरू के अच्छे नही हैं आसार ज्ञान की अमावस है आज शिक्षक दिवस है नोट- यह रचना 5 सितम्बर को प्रकाशित होनी थी, परन्तु भूलवश् आज 3 सितम्बर को ही हो गयी है। सखेद! |
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मंगलवार, 1 सितंबर 2009
‘‘बिन्दी के बिना, मेरा श्रंगार?’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जी हाँ, मैं सागर हूँ, बून्दें मेरा अस्तित्व हैं, जल मेरा प्राण है, किन्तु यदि ये बून्दें ही बगावत पर उतर आयें तो??? ............................................. जी हाँ, मैं पहाड़ हूँ, पत्थर मेरा अस्तित्व हैं, किन्तु यदि ये ही दरकने लगे तो??? ................................................. जी हाँ, मैं हिन्दी हूँ, भारत माता के माथे की बिन्दी हूँ, किन्तुबिन्दी के बिना, मेरा श्रंगार ??? ....................................... |
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