चौमासे में आसमान में, घिर-घिर बादल आये रे! श्याम-घटाएँ विरहनिया के, मन में आग लगाए रे!! उनके लिए सुखद चौमासा, पास बसे जिनके प्रियतम, कुण्ठित हैं उनकी अभिलाषा, दूर बसे जिनके साजन , वैरिन बदली खारे जल को, नयनों से बरसाए रे! श्याम-घटाएँ विरहनिया के, मन में आग लगाए रे!! पुरवा की जब पड़ीं फुहारें, ताप धरा का बहुत बढ़ा, मस्त हवाओं के आने से , मन का पारा बहुत चढ़ा, नील-गगन के इन्द्रधनुष भी, मन को नहीं सुहाए रे! श्याम-घटाएँ विरहनिया के, मन में आग लगाए रे!! जिनके घर पक्के-पक्के हैं, बारिश उनका ताप हरे, जिनके घर कच्चे-कच्चे हैं, उनके आँगन पंक भरे, कंगाली में आटा गीला, हर-पल भूख सताए रे! श्याम-घटाएँ विरहनिया के, मन में आग लगाए रे!! |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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शुक्रवार, 30 जुलाई 2010
“आग लगाए रे!” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
गुरुवार, 29 जुलाई 2010
“गांधी की सन्तान कहते हुए भी... ..” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
एक पादप साल का, जिसका अस्तित्व नही मिटा पाई, कभी भी,समय की आंधी । ऐसा था, हमारा राष्ट्र-पिता,महात्मा गान्धी ।। कितना है कमजोर, सेमल के पेड़ सा- आज का नेता । जो किसी को,कुछ नही देता ।। दिया सलाई का- मजबूत बक्सा, सेंमल द्वारा निर्मित,एक भवन । माचिस दिखाओ,और कर लो हवन । आग ही तो लगानी है, चाहे-तन, मन, धन हो या वतन।। यह बहुत मोटा, ताजा है, परन्तु, सूखे साल रूपी,गांधी की तरह बलिष्ट नही, इसे तो गांधी की सन्तान कहते हुए भी- .........................।। |
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
“घोड़े बेच के भगवान सो रहा” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
निर्दोष से प्रसून भी डरे हुए हैं आज। चिड़ियों के कारागार में पड़े हुए हैं बाज। अश्लीलता के गान नौजवान गा रहा, चोली में छिपे अंग की गाथा सुना रहा, भौंडे सुरों के शोर में, सब दब गये हैं साज। चिड़ियों के कारागार में पड़े हुए हैं बाज।। श्वान और विडाल जैसा मेल हो रहा, नग्नता, निलज्जता का खेल हो रहा, कृष्ण स्वयं द्रोपदी की लूट रहे लाज। चिड़ियों के कारागार में पड़े हुए हैं बाज।। भटकी हुई जवानी है भारत के लाल की, ऐसी है दुर्दशा मेरे भारत - विशाल की, आजाद और सुभाष के सपनों पे गिरी गाज। चिड़ियों के कारागार में पड़े हुए हैं बाज।। लिखने को बहुत कुछ है अगर लिखने को आयें, लिख -कर कठोर सत्य किसे आज सुनायें, दुनिया में सिर्फ मूर्ख के, सिर पे धरा है ताज। चिड़ियों के कारागार में पड़े हुये हैं बाज।। रोती पवित्र भूमि, आसमान रो रहा, लगता है, घोड़े बेच के भगवान सो रहा, अब तक तो मात्र कोढ़ था, अब हो गयी है खाज। चिड़ियों के कारागार में पड़े हुए हैं बाज।। |
रविवार, 25 जुलाई 2010
“यही समाजवाद है…” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
समाजवाद से- कौन है अंजाना? लोगों ने भी यह जाना। समाजवाद आ गया है, क्या यह प्रयोग नया है? डाका, राहजनी, और चोरी, सुरसा के मुँह के समान- बढ़ रही है,रिश्वतखोरी। देख रहे हैं- गरीब और मजदूर, होता जा रहा है, चिकित्सा और न्याय- उनसे दूर। बढ़ता जा रहा है- भ्रष्टाचार, व्यभिचार और शोषण, नेतागण कर रहे हैं- अपना और अपने परिवार का पोषण। क्या समाजवाद- सबके हित की-आवाज है? क्या देश में दीन-दुखी, आम आदमी का राज है? पछता रहे हैं, गरीब और कमजोर, क्यों भेजा था उन्होंने संसद में- एक निकम्मा और चोर? आज केवल- नेता ही आबाद है, जनता आज भी बरबाद है। क्या यही समाजवाद है? यही लोकतंत्र है, हाँ यही समाजवाद है। |
शुक्रवार, 23 जुलाई 2010
"गुलों की चाह में-.." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
आज से एक सप्ताह की छुट्टी पर जा रहा हूँ! सम्भवतः 30 जुलाई को पुनः मिलूँगा! उच्चारण पर कुछ रचनाएँ कतार में लगाकर जा रहा हूँ! आज पेश कर रहा हूँ अपनी डायरी की एक पुरानी रचना- गुलों की चाह में, अपना चमन बरबाद कर डाला। वफा की राह में, चैन-औ-अमन बरबाद कर डाला।। चहकती थीं कभी, गुलशन की छोटी-छोटी कलियाँ जब, महकती थी कभी, उपवन की छोटी-छोटी गलियाँ जब, गगन की छाँह में, शीतल पवन बरबाद कर डाला। वफा की राह में, चैन-औ-अमन बरबाद कर डाला।। चमकती थी कभी बिजली, मिरे काँधे पे झुक जाते, झनकती थी कभी पायल, तुम्हारे पाँव रुक जाते, ठिठुर कर डाह में, अपना सुमन बरबाद कर डाला। वफा की राह में, चैन-औ-अमन बरबाद कर डाला।। सिसकते हैं अकेले अब, तुम्ही को याद कर-कर के, बिलखते हैं अकेले अब, फकत फरयाद कर-कर के, अलम की बाँह में, अपना जनम बरबाद कर डाला। वफा की राह में, चैन-औ-अमन बरबाद कर डाला।। |
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
“मेरी पसन्द का गीत सुनिए” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
आज सुनिए मेरी पसन्द का यह गीत! इसको स्वर भर कर गाया है - सुश्री मिथिलेश आर्या ने! (यह गीत मेरा लिखा हुआ नहीं है।) गीत के बोल हैं- "जीवन खतम हुआ तो जीने का ढंग आया…. जीवन खतम हुआ तो जीने का ढंग आया, जब शम्मा बुझ गयी तो महफिल में रंग आया । मन की मशीनरी ने जब ठीक चलना सीखा, तब बूढ़े तन के हर एक पुर्जे में जंग आया । जब शम्मा बुझ गयी तो महफिल में रंग आया ।। गाड़ी निकल गयी तो घर से चला मुसाफिर, मायूस हाथ खाली बैरंग लौट आया । जब शम्मा बुझ गयी तो महफिल में रंग आया ।। फुरसत के वक्त में मेरे सिमरण का वक्त निकला, उस वक्त वक्त माँगा जब वक्त तंग आया । जब शम्मा बुझ गयी तो महफिल में रंग आया । आयु ने जब सभी कुछ हथियार फेंक डाले, यमराज फौज लेकर करने को जंग आया । जब शम्मा बुझ गयी तो महफिल में रंग आया ।। |
बुधवार, 21 जुलाई 2010
“कुछ दोहे” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
बेमौसम आँधी चलें, दुनिया है बेहाल । गीतों के दिन लद गये,गायब सुर और ताल ।। नानक, सूर, कबीर के , छन्द हो गये दूर । कर्णभेद संगीत का , युग है अब भरपूर । । रामराज का स्वप्न अब, लगता है इतिहास । केवल इनके नाम का, राजनीति में वास । । पानी अमृत तुल्य है, पानी सुख का सार । जल जीवन को लीलता, जल जीवन आधार ।। |
मंगलवार, 20 जुलाई 2010
"बाल कविता मेरी : स्वर-अर्चना चावजी का"
कल का लिखा हुआ और आज का गाया हुआ यह मुक्तक-बाल गीत! प्रस्तुत है- इसको अपना मधुर स्वर दिया है- अर्चना चावजी ने! मानसून का मौसम आया, तन से बहे पसीना! भरी हुई है उमस हवा में, जिसने सुख है छीना!! कुल्फी बहुत सुहाती हमको, भाती है ठण्डाई! दूध गरम ना अच्छा लगता, शीतल सुखद मलाई!! पंखा झलकर हाथ थके जब, हमने झूला झूला! ठण्डी-ठण्डी हवा लगी तब, मन खुशियों से फूला!! (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक") |
सोमवार, 19 जुलाई 2010
“हमने झूला झूला!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
रविवार, 18 जुलाई 2010
घिर-घिर कर आये हैं बादल!!
शनिवार, 17 जुलाई 2010
“जामाता यानि दामाद” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
पाहुन का है अर्थ घुमक्कड़, यम का दूत कहाता है। सास-ससुर की छाती पर, बैठा रहता जामाता है।। खाता भी, गुर्राता भी है, सुनता नही सुनाता है। बेटी को दुख देता है तो, सीना फटता जाता है।। चंचल अविरल घूम रहा है , ठहर नही ये पाता है। धूर्त भले हो किन्तु मुझे, दामाद बहुत ही भाता है।। |
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
"मेरा गीत सुनिए- अर्चना चावजी के मधुर स्वर में!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
निम्न गीत को सुनिए- अर्चना चावजी के मधुर स्वर में! सुख के बादल कभी न बरसे, दुख-सन्ताप बहुत झेले हैं! जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत फैले हैं!! अनजाने से अपने लगते, बेगाने से सपने लगते, जिनको पाक-साफ समझा था, उनके ही अन्तस् मैले हैं! जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत फैले हैं!! बन्धक आजादी खादी में, संसद शामिल बर्बादी में, बलिदानों की बलिवेदी पर, लगते कहीं नही मेले हैं! जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत फैले हैं!! ज्ञानी है मूरख से हारा, दूषित है गंगा की धारा, टिम-टिम करते गुरू गगन में, चाँद बने बैठे चेले हैं! जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत फैले हैं!! |
“.. .. .चाँद बने बैठे चेले हैं!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
सुख के बादल कभी न बरसे, दुख-सन्ताप बहुत झेले हैं! जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत फैले हैं!! अनजाने से अपने लगते, बेगाने से सपने लगते, मँहगाई की मार पड़ी तो, सबने ही पापड़ बेले हैं! जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत फैले हैं!! बन्धक आजादी खादी में, संसद शामिल बर्बादी में, बलिदानों की बलिवेदी पर, लगते कहीं नही मेले हैं! जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत फैले हैं!! ज्ञानी है मूरख से हारा, दूषित है गंगा की धारा, टिम-टिम करते गुरू गगन में, चाँद बने बैठे चेले हैं! जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत फैले हैं!! |
बुधवार, 14 जुलाई 2010
"जीवन की अभिव्यक्ति!” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)
क्या शायर की भक्ति यही है? जीवन की अभिव्यक्ति यही है! शब्द कोई व्यापार नही है, तलवारों की धार नही है, राजनीति परिवार नही है, भाई-भाई में प्यार नही है, क्या दुनिया की शक्ति यही है? जीवन की अभिव्यक्ति यही है! निर्धन-निर्धन होता जाता, अपना आपा खोता जाता, नैतिकता परवान चढ़ाकर, बन बैठा धनवान विधाता, क्या जग की अनुरक्ति यही है? जीवन की अभिव्यक्ति यही है! छल-प्रपंच को करता जाता, अपनी झोली भरता जाता, झूठे आँसू आखों में भर- मानवता को हरता जाता, हाँ कलियुग का व्यक्ति यही है? जीवन की अभिव्यक्ति यही है! |
मंगलवार, 13 जुलाई 2010
“मेरी पसन्द का गीत सुनिए” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
मित्रों! आज कुछ लिखने का मन नहीं था! केवल सुनने का मन था! आप भी सुनिए मेरी पसन्द का यह गीत! इसको स्वर भर कर गाया है - श्री योगेश दत्त आर्य ने! (यह गीत मेरा लिखा हुआ नहीं है।) गीत के बोल हैं- "सारी सृष्टि दुल्हिन सी सजी है….” |
सोमवार, 12 जुलाई 2010
“.. .. .बदल जायेगा!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
मोम सा मत हृदय को बनाना कभी, रूप हर पल में इसका बदल जायेगा! शैल-शिखरों में पत्थर सा हो जायेगा, घाटियाँ देखकर यह पिघल जायेगा!! देगा हर एक कदम पर दगा आपको, सह न पायेगा यह शीत और ताप को, पुण्य को देखकर यह दहल जायेगा, पाप को देखते ही मचल जायेगा! रूप पल भर में इसका बदल जायेगा!! आइने की तरह से सजाना इसे, क्रूर-मग़रूर सा मत बनाना इसे, दिल के दर्पण में इक बार तो झाँक लो, झूठ और सत्य का भेद खुल जायेगा! रूप पल भर में इसका बदल जायेगा!! टूटना, कांच का खास दस्तूर है, झुकना-मुड़ना नही इसको मंजूर है, दिल को थाली का बैंगन बनाना नही, वरना यह ढाल को देख ढल जायेगा! रूप पल भर में इसका बदल जायेगा!! |
रविवार, 11 जुलाई 2010
“गीत मेरा! स्वर-अर्चना चावजी का!!”
"साज-संगीत को छेड़ देना जरा,
हम तरन्नुम में भरकर
ग़ज़ल गायेंगे!"
आपने कल इस गीत को पढ़ा था! आज इसे सुनिए- "मेरी मुँह-बोली लाडली भतीजी अर्चना चावजी के स्वर में !!" हम तरन्नुम में भरकर ग़ज़ल गायेंगे!” |
शनिवार, 10 जुलाई 2010
"मोम बन कर पिघल जायेंगे!!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
आप इक बार ठोकर से छू लो हमें, हम कमल हैं चरण-रज से खिल जायेगें! प्यार की ऊर्मियाँ तो दिखाओ जरा, संग-ए-दिल मोम बन कर पिघल जायेंगे!! फूल और शूल दोनों करें जब नमन, खूब महकेगा तब जिन्दगी का चमन, आप इक बार दोगे निमन्त्रण अगर, दीप खुशियों के जीवन में जल जायेंगे! प्यार की ऊर्मियाँ तो दिखाओ जरा, संग-ए-दिल मोम बन कर पिघल जायेंगे!! हमने पारस सा समझा सदा आपको, हिम सा शीतल ही माना है सन्ताप को, आप नज़रें उठाकर तो देखो जरा, सारे अनुबन्ध साँचों में ढल जायेंगे! प्यार की ऊर्मियाँ तो दिखाओ जरा, संग-ए-दिल मोम बन कर पिघल जायेंगे!! झूठा ख़त ही हमें भेज देना कभी, आजमा कर हमें देख लेना कभी, साज-संगीत को छेड़ देना जरा, हम तरन्नुम में भरकर ग़ज़ल गायेंगे! प्यार की ऊर्मियाँ तो दिखाओ जरा, संग-ए-दिल मोम बन कर पिघल जायेंगे!! |
शुक्रवार, 9 जुलाई 2010
“इस रचना का किसी से भी सम्बन्ध नही है!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
“कोरा हास्य”
मुझसे बतियाने को कोई, चेली बन जाया करती है! तब मुझको बातों-बातों में, हँसी बहुत आया करती है! जान और पहचान नही है, देश-वेश का ज्ञान नही है, टूटी-फूटी रोमन-हिन्दी, हमें चिढ़ाया सा करती है! तब मुझको बातों-बातों में, हँसी बहुत आया करती है! कोई बिटिया बन जाती है, कोई भगिनी बन जाती है, कोई-कोई तो बुड्ढे की, साली कहलाया करती है! तब मुझको बातों-बातों में, हँसी बहुत आया करती है! आँख लगी तो सपना आया, आँख खुली तो मैंने पाया, बिन सिर पैरों की लिखने से, सैंडिल पड़ जाया करती हैं! तब मुझको बातों-बातों में, हँसी बहुत आया करती है! जाल-जगत की महिमा न्यारी, वाह-वाही लगती है प्यारी, अपनी करो प्रशंसा जमकर, श्लाघा मन-भाया करती है! तब मुझको बातों-बातों में, हँसी बहुत आया करती है! |
गुरुवार, 8 जुलाई 2010
"पंक में खिला कमल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
पंक में खिला कमल, किन्तु है अमल-धवल! बादलों की ओट में से, चाँद झाँकता नवल!! डण्ठलों के साथ-साथ, तैरते हैं पात-पात, रश्मियाँ सँवारतीं , प्रसून का सुवर्ण-गात, देखकर अनूप-रूप को, गया हृदय मचल! बादलों की ओट में से, चाँद झाँकता नवल!! पंक के सुमन में ही, सरस्वती विराजती, श्वेत कमल पुष्प को, ही शारदे निहारती, पूजता रहूँगा मैं, सदा-सदा चरण-कमल! बादलों की ओट में से, चाँद झाँकता नवल!! |
बुधवार, 7 जुलाई 2010
"घनश्याम के तन में!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
बादलों का साज बजा नील गगन में। थिरक रही दामिनी घनश्याम के तन में।। बह रही पुरवाई आज आन-बान से, जंगलों में नाच रहे मोर शान से, मस्त हो रहे हैं जन्तु आज मिलन में। थिरक रही दामिनी घनश्याम के तन में।। जल की धार गा रहीं मल्हार आज हैं, विरह को जगा रहीं फुहार आज हैं, ज्वार प्यार का चढ़ा है आज बदन में। थिरक रही दामिनी घनश्याम के तन में।। भर गये हैं सारे आज ताल-तलैय्या, बाँसुरी की तान सुनाते हैं कन्हैय्या, सजनी का ध्यान लगा आज सजन में। थिरक रही दामिनी घनश्याम के तन में।। |
मंगलवार, 6 जुलाई 2010
“..मौसम सुहाना हो गया है” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
आज फिर एक पुरानी रचना! हाथ लेकर जब चले, तुम साथ में, प्रीत का मौसम, सुहाना हो गया है। इक नशा सा, जिन्दगी में छा गया, दर्द-औ-गम, अपना पुराना हो गया है। जन्म-भर के, स्वप्न पूरे हो गये, मीत सब अपना, जमाना हो गया है। दिल के गुलशन में, बहारें छा गयीं, अब चमन, मेरा ठिकाना हो गया है। चश्म में इक नूर जैसा, आ गया, बन्द अब आँसू , बहाना हो गया है। तार मन-वीणा के, झंकृत हो गये, सुर में सम्भव, गीत गाना हो गया है। |
रविवार, 4 जुलाई 2010
“पाँव वन्दना” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
पूजनीय पाँव हैं, धरा जिन्हें निहारती। सराहनीय शूद्र हैं, पुकारती है भारती।। चरण-कमल वो धन्य हैं, जो जिन्दगी को दें दिशा, वे चाँद-तारे धन्य हैं, हरें जो कालिमा निशा, प्रसून ये महान हैं, प्रकृति है सँवारती। सराहनीय शूद्र हैं, पुकारती है भारती।। जो चल रहें हैं, रात-दिन, वो चेतना के दूत है, समाज जिनसे है टिका, वे राष्ट्र के सपूत है, विकास के ये दीप हैं, मही इन्हें दुलारती। सराहनीय शूद्र हैं, पुकारती है भारती।। जो राम का चरित लिखें, वो राम के अनन्य हैं, जो जानकी को शरण दें, वो वाल्मीकि धन्य हैं, ये वन्दनीय हैं सदा, उतारो इनकी आरती। सराहनीय शूद्र हैं, पुकारती है भारती।। |
शनिवार, 3 जुलाई 2010
“.. ..कुछ-कुछ होता है!” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
दिल में कुछ-कुछ होता है, जब याद किसी की आती है। मन सब सुध-बुध खोता है, जब याद किसी की आती है। गुलशन वीराना लगता है, पागल परवाना लगता है, भँवरा दीवाना लगता है, दिल में कुछ-कुछ होता है, जब याद किसी की आती है। मधुबन डरा-डरा लगता है, जीवन मरा-मरा लगता है, चन्दा तपन भरा लगता है, दिल में कुछ-कुछ होता है, जब याद किसी की आती है। नदियाँ जमी-जमी लगती हैं, दुनियाँ थमी-थमी लगती हैं, अँखियाँ नमी-नमी लगती हैं, दिल में कुछ-कुछ होता है, जब याद किसी की आती है। मन सब सुध-बुध खोता है, जब याद किसी की आती है।। |
शुक्रवार, 2 जुलाई 2010
“पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
कंकड़ को भगवान मान लूँ, पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा! काँटों को वरदान मान लूँ, पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा! दुर्गम पथ बन जाये सरल सा, अमृत घट बन जाए गरल का, पीड़ा को मैं प्राण मान लूँ. पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा! बेगानों से प्रीत लगा लूँ, अनजानों को मीत बना लूँ, आशा को अनुदान मान लूँ, पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा! रीते जग में मन भरमाया, जीते जी माया ही माया, साधन को संधान मान लूँ, पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा! |
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