मौसम लेकर आ गया, वासन्ती उपहार। जीवन में बहने लगी, मन्द-सुगन्ध बयार।। सरदी अब कम हो गयी, बढ़ा धरा का ताप। उपवन में करने लगे, प्रेमी मेल-मिलाप।। खुश हो करके खिल रहे, सेमल और कपास। लोगों को होने लगा, वासन्ती आभास।। सरसो फूली खेत में, गया कुहासा हार। जीवन में बहने लगी, मन्द-सुगन्ध बयार।। बया बनाने लग गया, फिर से भव्य कुटीर। नदियों में बहने लगा, पावन निर्मल नीर।। पीपल गदराया हुआ, बौराया है आम। कुदरत के बदले हुए, लगते अब आयाम।। कोयल और कबूतरी, तन को रहे सँवार। जीवन में बहने लगी, मन्द-सुगन्ध बयार।। खग-मृग नर-वानर सभी, मना रहे सुख-चैन। अपने-अपने मीत से, लड़ा रहे हैं नैन।। धरती पर पसरी हुई, निखरी-निखरी धूप। जन-जीवन का आज तो, बदल रहा है रूप।। भोजन करके पेटभर, लेते लोग डकार। जीवन में बहने लगी, मन्द-सुगन्ध बयार।। कुसुमों को निज अंक में, पाल रहे हैं शूल। गुलशन में खिलने लगे, रंग-बिरंगे फूल।। सरकंडे के नीड़ में, बंजारों का वास। चारो और चहक रहा, वासन्ती मधुमास।। सरकंडे के नीड़ में, बंजारों का वास।। हरा-भरा फिर से हुआ, उजड़ा हुआ दयार। जीवन में बहने लगी, मन्द-सुगन्ध बयार।। |
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सोमवार, 31 जनवरी 2022
दोहागीत "वासन्ती आभास" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रविवार, 30 जनवरी 2022
गीत "बैठे विषधर काले-काले" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
चाँदी
की थाली में, सोने की चम्मच से खाने वाले। महलों
में रहने वाले, करते घोटालों पर घोटाले।। गधे
बन गये अरबी घोड़े, नाम
बड़े हैं दर्शन थोड़े, एसी
में अय्यासी करते, कुछ
जननायक बहुत निगोड़े, खादी
की केंचुलिया पहने, बैठे विषधर काले-काले। महलों
में रहने वाले, करते घोटालों पर घोटाले।। कल
तक थे जितने नालायक, उनमें
से कुछ आज विधायक, सौदों
में खा रहे दलाली, ये
स्वदेश के भाग्यविनायक, लूट
रहे भोली जनता को, बनकर जन-गण के रखवाले। महलों
में रहने वाले, करते घोटालों पर घोटाले।। भावनाओं
को जब भड़काते, तब
मुद्दे भरपूर भुनाते, कैसे
क़ायम रहे एकता, चाल
दोहरी ये अपनाते, सत्ता
पर क़बिज़ रहने को, बन जाते हैं भोले-भाले। महलों में रहने वाले करते, घोटालों पर घोटाले।। |
शनिवार, 29 जनवरी 2022
गीत "तुहिन-हिम नभ से अचानक धरा पर झड़ने लगा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
चल रहीं शीतल हवाएँ, धुँधलका बढ़ने लगा। कुहासे का आवरण, आकाश पर चढ़ने लगा।। हाथ
ठिठुरे-पाँव ठिठुरे, काँपता आँगन-सदन, कोट,चस्टर
और कम्बल से, ढके सबके बदन, आग
का गोला गगन में, पस्त सा पड़ने लगा। चल
रहीं शीतल हवाएँ, धुँधलका बढ़ने लगा।। सर्द
मौसम को समेटे, जागता परिवेश है, श्वेत
चादर को लपेटे, झाँकता राकेश है, तुहिन-हिम
नभ से अचानक, धरा पर झड़ने लगा। चल
रहीं शीतल हवाएँ, धुँधलका बढ़ने लगा।। आगमन
ऋतुराज का, लगता बहुत ही दूर है, अभी
तो हेमन्त यौवन से, भरा भरपूर है, मकर
का सूरज, नये सन्देश कुछ गढ़ने लगा। चल
रहीं शीतल हवाएँ, धुँधलका बढ़ने लगा।। |
शुक्रवार, 28 जनवरी 2022
ग़ज़ल "ख़ानदानों ने दाँव खेलें हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
ज़िन्दग़ी में बड़े झमेले हैं घर हमारे बने तबेले हैं तन्त्र से लोक का नहीं नाता हर जगह दासता के मेले हैं बीन कचरा बड़ा हुआ बचपन नौनिहाल खींच रहे ठेले हैं सिर्फ चमचों को रोज़गार यहाँ शिक्षितों के लिए अधेले हैं अब विरासत में सियासत बाकी आम-जन आज भी अकेले हैं फिर से देखो चुनावी दंगल में बाहुबलियों ने डण्ड पेले हैं नगमगी "रूप" और धन बल से ख़ानदानों ने दाँव खेलें हैं |
गुरुवार, 27 जनवरी 2022
गीत " रौशनी के वास्ते, जल रहा च़िराग है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
सवाल पर सवाल हैं, कुछ नहीं जवाब है। राख में ढकी हुई, हमारे दिल की आग है।। गीत भी डरे हुए, ताल-लय उदास हैं. पात भी झरे हुए, शेष चन्द श्वास हैं, दो नयन में पल रहा, नग़मग़ी सा ख्वाब है। राख में ढकी हुई, हमारे दिल की आग है।। ज़िन्दगी है इक सफर, पथ नहीं सरल यहाँ, मंजिलों को खोजता, पथिक यहाँ-कभी वहाँ, रंग भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु नहीं फाग है। राख में ढकी हुई, हमारे दिल की आग है।। बाट जोहती रहीं, डोलियाँ सजी हुई, हाथ की हथेलियों में, मेंहदी रची हुई, हैं सिंगार साथ में, पर नहीं सुहाग है। राख में ढकी हुई, हमारे दिल की आग है।। इस अँधेरी रात में, जुगनुओं की भीड़ है, अजनबी तलाशता, सिर्फ एक नीड़ है, रौशनी के वास्ते, जल रहा च़िराग है। राख में ढकी हुई, हमारे दिल की आग है।। |
बुधवार, 26 जनवरी 2022
गीत "गणतन्त्र दिवस पर राग यही दुहराया है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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मंगलवार, 25 जनवरी 2022
गीत "मनाएँ कैसे हम गणतन्त्र" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सोमवार, 24 जनवरी 2022
दोहे "निर्वाचनी बयार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
चली उत्तराखण्ड में, निर्वाचनी
बयार। धामी के नेतृत्व में, युवा हुए
तैयार।। अलग-थलग सब पड़ गये, झाड़ू हाथी
हाथ। जाने को तत्पर हुए, लोग कमल के
साथ।। पाँच बरस देखा जिसे, परखा
चित्त-चरित्र। समझ गई थी भाजपा, धोखे वाला मित्र।। मुखिया जी के हाथ से, डोर रही है
छूट। व्यथा आज किससे कहें, कुनबे में
है फूट।। रावत-रावत फिर मिले, मतलब करने
सिद्ध। मतदाता को लीलने, बनकर आये
गिद्ध।। माता बेटी-पुत्र के, कब्जे में
अधिकार। इन तीनों ने कर दिया, दल का बण्टाधार।। काँगरेस में हो गया, अब नेतृत्व अभाव। लोकतन्त्र के सिन्धु से, पार न
होगी नाव।। |
रविवार, 23 जनवरी 2022
गीत "देश को सुभाष चाहिए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- मीराबाई,सूर, तुलसीदास चाहिए। आज मेरे देश को सुभाष चाहिए।। -- मोटे मगर गंग-औ-जमन घूँट रहे हैं, जल के जन्तुओं का अमन लूट रहे हैं, गधों को मिठाई नही घास चाहिए। आज मेरे देश को सुभाष चाहिए।। -- चूहे और बिल्ली जैसा खेल हो रहा, सर्प और छछूंदर जैसा मेल हो रहा, जहरभरी हमको ना मिठास चाहिए। आज मेरे देश को सुभाष चाहिए।। -- कहीं है दिवाला और दिवाली कहीं है, कहीं है खुशहाली और बेहाली कहीं है, जनता को रोजी और लिबास चाहिए। आज मेरे देश को सुभाष चाहिए।। -- मँहगाई की मार लोग झेल रहे हैं, कोठियों में नेता दण्ड पेल रहे हैं, राजनीति में कठोर पाश चाहिए। आज मेरे देश को सुभाष चाहिए।। -- |
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