उन्मीलन पत्रिका में
मेरा एक गीत
शिष्ट मधुर व्यवहार, बहुत अच्छा लगता है।
सपनों का संसार, बहुत अच्छा लगता है।। फूहड़पन के वस्त्र, बुरे सबको लगते हैं, जंग लगे से शस्त्र, बुरे सबको लगते हैं, स्वाभाविक शृंगार, बहुत अच्छा लगता है। सपनों का संसार, बहुत अच्छा लगता है।। वचनों से कंगाल, बुरे सबको लगते हैं, जीवन के जंजाल, बुरे सबको लगते हैं, सजा हुआ घर-बार, बहुत अच्छा लगता है। सपनों का संसार, बहुत अच्छा लगता है।। चुगलखोर इन्सान, बुरे सबको लगते हैं, सूदखोर शैतान, बुरे सबको लगते हैं, सज्जन का सत्कार, बहुत अच्छा लगता है। सपनों का संसार, बहुत अच्छा लगता है।। लुटे-पिटे दरबार, बुरे सबको लगते हैं, दुःखों के अम्बार, बुरे सबको लगते हैं, हरा-भरा परिवार, बहुत अच्छा लगता है। सपनों का संसार, बहुत अच्छा लगता है।। मतलब वाले यार, बुरे सबको लगते हैं, चुभने वाले खार, बुरे सबको लगते हैं, निश्छल सच्चा प्यार, बहुत अच्छा लगता है। सपनों का संसार, बहुत अच्छा लगता है।। |
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बुधवार, 30 अप्रैल 2014
"उन्मीलन पत्रिका में मेरा एक गीत-अच्छा लगता है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मंगलवार, 29 अप्रैल 2014
"ग़ज़ल-ख़ार आखिर ख़ार है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आज के इन्सान में, गुम
हो गया किरदार है
सब जगह पर हो रहा,
ईमान का व्यापार है
कंटकों ने ओढ़ ली,
चूनर सुमन की चमन में
हाथ मत आगे बढ़ाना, ख़ार आखिर ख़ार है
क्या खिलाएँ और
खाएँ, है मिठासों में जहर,
ज़िन्दगी को मुँह
चिढ़ाते, आजकल त्यौहार हैं
डाल पर बैठा
परिन्दा, सोच में बैठा हुआ
आज टुकड़ों में सभी
का, बँट गया परिवार है
काम में कामी बना
है, नाम का ये आदमी
अश्लीलता की जीत
है, शालीनता की हार है
दिल की कोटर में, छिपा बैठा मलिन-मन
मनचले भँवरो को
केवल “रूप” से ही प्यार है
|
सोमवार, 28 अप्रैल 2014
"पाषाणों से प्यार हो गया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
पथ पर आगे बढ़ते-बढ़ते, पाषाणों से प्यार हो गया
जीवन का दुख-दर्द हमारे, जीने का आधार हो गया
पत्थर का सम्मान करो तो, देवदिव्य वो बन जायेगा
पर्वतमालाओं में उपजा, धरती का अवतार हो गया
प्राण बिना तन होता सबका, केवल माटी का पुतला है
जीव आत्मा के आने से, श्वाँसों का संचार हो गया
गुलशन में जब माली आया, फूल खिले-कलियाँ मुस्कायी
दिवस-मास मधुमास बन गया, उपवन का शृंगार हो गया
सुख का सूरज उगा गगन में, चारों ओर उजाला पसरा
बादल ने अमृत बरसाया, मनभावन त्यौहार हो गया
बगिया फिर से हैं बौरायी, कोयलिया ने राग सुनाया
आँखों ने देखा जो सपना, वो फिर से साकार हो गया
कुदरत का है “रूप” निराला, कोई गोरा कोई काला
पारस की पतवार मिली तो, भवसागर से पार हो गया
|
रविवार, 27 अप्रैल 2014
"फलवाले पेड़ लगाना है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।।
गैया-भैंसों का हमको लालन-पालन करना होगा,
अण्डे-मांस छोड़कर, हमको दूध-दही अपनाना है।
शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।।
छाछ और लस्सी कलियुग में अमृततुल्य कहाते हैं,
पैप्सी, कोका-कोला को, भारत से हमें भगाना है।
शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।।
दाड़िम और अमरूद आदि, फल जीवन देने वाले हैं,
आँगन और बगीचों में, फलवाले पेड़ लगाना है।
शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।।
मानवता के हम संवाहक, ऋषियों के हम वंशज हैं,
दुनिया भर को फिर से, शाकाहारी हमें बनाना है।
शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।।
|
शनिवार, 26 अप्रैल 2014
"गीत-हमसफर बनाइए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
ज़िन्दगी के रास्तों पे कदम तो बढ़ाइए।
इस सफर को नापने को हमसफर बनाइए।।
राह है कठिन मगर लक्ष्य है पुकारता,
रौशनी से आफताब मंजिलें निखारता,
हाथ थामकर डगर में साथ-साथ जाइए।
ज्वार का बुखार आज सिंधु को सता रहा,
प्रबल वेग के प्रवाह को हमें बता रहा,
कोप से कभी किसी को इतना मत डराइए।
काट लो हँसी-खुशी से, कुछ पलों का साथ है,
चार दिन की चाँदनी है, फिर अँधेरी रात है,
इन लम्हों को रार में, व्यर्थ मत गँवाइए।
पुंज है सुवास का, अब समय विकास का,
वाटिका में खिल रहा, सुमन हमारी आस का,
सुख का राग, आज साथ-साथ गुनगुनाइए।
|
शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014
"ग़ज़ल-असली 'रूप' दिखाता दर्पण," (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
पथ उनको क्या
भटकायेगा, जो अपनी खुद राह बनाते
भूले-भटके
राही को वो, उसकी मंजिल तक पहुँचाते
अल्फाज़ों
के चतुर चितेरे, धीर-वीर-गम्भीर सुख़नवर
जहाँ न
पहुँचें सूरज-चन्दा, वो उस मंजर तक हो आते
अमर नहीं
है काया-माया, लेकिन शब्द अमर होते हैं
शब्द धरोहर
हैं समाज की, दिशाहीन को दिशा दिखाते
विरह-व्यथा
की भट्टी में, जब तपकर शब्द निकलते हैं
पाषाणों के
भीतर जाकर, वो सीधे दिल को छू जाते
चाहे
ग़ज़ल-गीत हो, या फिर दोहा या रूबाई हो
वजन बराबर
हो तो, अपना असर बराबर दिखलाते
असली “रूप”
दिखाता दर्पण, जो औकात बताता सबको
जो काँटों
में पले-बढ़े हैं, वो ही तो गुलशन महकाते
|
गुरुवार, 24 अप्रैल 2014
"ग़ज़ल-नदी के रेत पर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रोज लिखता हूँ इबारत, मैं नदी के रेत पर
शब्द बन जाते ग़ज़ल मेरे नदी के रेत पर
जब हवा के तेज झोकों से मचलती हैं लहर
मेट देती सब निशां मेरे, नदी के रेत पर
चाहिए कोरे सफे, सन्देश लिखने के लिए
प्रेरणा मिलती मुझे, आकर नदी के रेत पर
हो स्रजन नूतन, हटें मन से पुरानी याद सब
निज नवल-उदगार को, रचता नदी के रेत पर
“रूप” भाता हैं मुझे बिखरी हुई बलुआर का
इसलिए आता बराबर, मैं नदी के रेत पर
|
बुधवार, 23 अप्रैल 2014
"गीत-आफत के परकाले" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
भूल गये
अपने अतीत को, ये नवयुग के मतवाले।
पश्चिम की
सभ्यता बताते, क्या जीजा अरु क्या साले?
मम्मी जी
बेटी विदेश की,
रीत यहाँ
की क्या जाने?
महलों में
जो रही सदा.
वो निर्धनता
क्या पहचाने?
अंग
विदेशी-ढंग विदेशी, जनता पर डोरे डाले।
पश्चिम की
सभ्यता बताते, क्या जीजा अरु क्या साले?
वंशवाद की
बेल सींचती,
प्रजातन्त्र
की क्यारी में।
डोर हाथ
में अपने रखती,
सारथी बनी
सवारी में।
असरदार-सरदार
सभी तो, अपने दरबे में पाले।
पश्चिम की
सभ्यता बताते, क्या जीजा अरु क्या साले?
अवतारों
की वसुन्धरा में
राम-कृष्ण
को भुला दिया।
भारत के पहरेदारों
को
अफीम देकर
सुला दिया।
हरे, सफेद
बैंगनी बैंगन, अपने ही रँग में ढाले।
पश्चिम की
सभ्यता बताते, क्या जीजा अरु क्या साले?
अपने घर
में लेकर आये,
परदेशों
से व्यापारी।
लगता फिर
कंगाल बनेगी,
सोनचिरय्या
बेचारी।
आजादी के
सीने में ये, घोप रहे पैने भाले।
पश्चिम की
सभ्यता बताते, क्या जीजा अरु क्या साले?
लाल-बाल
और पाल. भगत सिंह,
देख दुखी
होते होंगे।
बिस्मिल
और आजाद स्वर्ग में,
अपना सिर
धुनते होंगे।
गांधी जी को
भुना रहे हैं, ये आफत के परकाले।
पश्चिम की
सभ्यता बताते, क्या जीजा अरु क्या साले?
|
मंगलवार, 22 अप्रैल 2014
"ग़ज़ल-सभ्यता के हिमालय पिघलने लगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आदमी के
इरादे बदलने लगे
दीन-ईमान पल-पल
फिसलने लगे
चल पड़ी गर्म
अब तो हवाएँ यहाँ
सभ्यता के हिमालय
पिघलने लगे
फूल कैसे
खिलेंगे चमन में भला,
लोग मासूम कलियाँ
मसलने लगे।
अब तो पूरब
में सूरज लगा डूबने
पश्चिमी रंग
में लोग ढलने लगे
देख उजले लिबासों
में मैले मगर
शान्त सागर के
आँसू निकलने लगे
दूध माँ का
लजाने लगे पुत्र अब
मूँग जननी के
सीने पे दलने लगे
नेक सीरत पे
अब कौन होगा फिदा
“रूप” को देखकर दिल मचलने लगे
|
सोमवार, 21 अप्रैल 2014
"मेरे तीन पुराने गीत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों आज प्रस्तुत कर रहा हूँ,
गाम्य जीवन से जुड़े अपने तीन गीत।
जो मेरे काव्य संग्रह “सुख का सूरज” में
प्रकाशित हो चुके हैं।
(१)
शुक्रवार, 13 मार्च 2009
"टूटा स्वप्न"
मेरे गाँव, गली-आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
घर के आगे पेड़ नीम का, वैद्यराज सा खड़ा हुआ है।
माता जैसी गौमाता का, खूँटा अब भी गड़ा हुआ है।
टेसू के फूलों से गुंथित, तीनपात की हर डाली है
घर के पीछे हरियाली है, लगता मानो खुशहाली है।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
पीपल के नीचे देवालय, जिसमें घण्टे सजे हुए हैं।
सांझ-सवेरे भजन-कीर्तन,ढोल-मंजीरे बजे हुए हैं।
कहीं अजान सुनाई देती, गुरू-वाणी का पाठ कहीं है।
प्रेम और सौहार्द परस्पर, वैर-भाव का नाम नही है।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
विद्यालय में सबसे पहले, ईश्वर का आराधन होता।
देश-प्रेम का गायन होता, तन और मन का शोधन होता।
भेद-भाव और छुआ-छूत का,सारा मैल हटाया जाता।
गणित और विज्ञान साथ में, पर्यावरण पढ़ाया जाता।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
रोज शाम को दंगल-कुश्ती, और कबड्डी खेली जाती।
योगासन के साथ-साथ ही, दण्ड-बैठकें पेली जाती।
मैंने पूछा परमेश्वर से, जन्नत की दुनिया दिखला दो।
चैन और आराम जहाँ हो, मुझको वह सीढ़ी बतला दो।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
तभी गगन से दिया सुनाई, तुम जन्नत में ही हो भाई।
मेरा वास इसी धरती पर, जिसकी तुमने गाथा गाई।
तभी खुल गयी मेरी आँखें, चारपाई दे रही गवाही।
सुखद-स्वप्न इतिहास बन गया, छोड़ गया धुंधली परछाई।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अब तो बस अञ्जानापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, बसा हुआ दीवानापन है।।
कितना बदल गया है भारत, कितने बदल गये हैं बन्दे।
मानव बन बैठे हैं दानव, तन के उजले, मन के गन्दे।
वीर भगत सिंह के आने की, अब तो आशा टूट गयी है।
गांधी अब अवतार धरेंगे, अब अभिलाषा छूट गयी है।
सन्नाटा फैला आँगन मेंआसमान में सूनापन है।
चारों तरफ प्रदूषण फैला, व्यथित हो रहा मेरा मन है।।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
(२)
सोमवार, 2 मार्च 2009
"याद बहुत आते हैं"
गाँवों की गलियाँ, चौबारे, याद बहुत आते हैं।
कच्चे-घर और ठाकुरद्वारे, याद बहुत आते हैं।।
छोड़ा गाँव, शहर में आया, आलीशान भवन बनवाया,
मिली नही शीतल सी छाया, नाहक ही सुख-चैन गँवाया।
बूढ़ा बरगद, काका-अंगद, याद बहुत आते हैं।।
अपनापन बन गया बनावट, रिश्तेदारी टूट रहीं हैं।
प्रेम-प्रीत बन गयी दिखावट, नातेदारी छूट रहीं हैं।
गौरी गइया, मिट्ठू भइया, याद बहुत आते हैं।।
भोर हुई, चिड़ियाँ भी बोलीं, किन्तु शहर अब भी अलसाया।
शीतल जल के बदले कर में, गर्म चाय का प्याला आया।
खेत-अखाड़े, हरे सिंघाड़े, याद बहुत आते हैं।।
चूल्हा-चक्की, रोटी-मक्की, कब का नाता तोड़ चुके हैं।
मटकी में का ठण्डा पानी, सब ही पीना छोड़ चुके हैं।
नदिया-नाले, संगी-ग्वाले, याद बहुत आते हैं।।
घूँघट में से नयी बहू का, पुलकित हो शरमाना।
सास-ससुर को खाना खाने, को आवाज लगाना।
हँसी-ठिठोली, फागुन-होली, याद बहुत आते हैं।।
(३)
शुक्रवार, 26 मार्च 2010
“हमको याद दिलाते हैं”
जब भी सुखद-सलोने सपने, नयनों में छा आते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।
सूरज उगने से पहले, हम लोग रोज उठ जाते थे,
दिनचर्या पूरी करके हम, खेत जोतने जाते थे,
हरे चने और मूँगफली के, होले मन भरमाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
मट्ठा-गुड़ नौ बजते ही, दादी खेतों में लाती थी,
लाड़-प्यार के साथ हमें, वह प्रातराश करवाती थी,
मक्की की रोटी, सरसों का साग याद आते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
आँगन में था पेड़ नीम का, शीतल छाया देता था,
हाँडी में का कढ़ा-दूध, ताकत तन में भर देता था,
खो-खो और कबड्डी-कुश्ती, अब तक मन भरमाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
तख्ती-बुधका और कलम, बस्ते काँधे पे सजते थे,
मन्दिर में ढोलक-बाजा, खड़ताल-मँजीरे बजते थे,
हरे सिंघाड़ों का अब तक, हम स्वाद भूल नही पाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
युग बदला, पहनावा बदला, बदल गये सब चाल-चलन,
बोली बदली, भाषा बदली, बदल गये अब घर आंगन,
दिन चढ़ने पर नींद खुली, जल्दी दफ्तर को जाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
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