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गुरुवार, 31 अगस्त 2017
गीत "सिर्फ खरीदार मिले" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
ग़ज़ल "सन्तों के भेष में छिपे, हैवान आज तो" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मुट्ठी में है सिमट गया जहान आज तो
कैसे सुधार हो भला, अपने समाज का
कौड़ी के मोल बिक रहा, ईमान आज तो
भरकर लिबास आ गये, शेरों का भेड़िए
सन्तों के भेष में छिपे, हैवान आज तो
जिसको नहीं है इल्म वो इलहाम बाँटता
उड़ता बग़ैर पंख के नादान आज तो
अब लोकतन्त्र में हुई कौओं की मौज़ है
चिड़िया का घोंसला हुआ सुनसान आज तो
ज़न्नत के ख़्वाब को दिखा उपदेश बेचते
चलने लगी अधर्म की दुकान आज तो
सन्तों को सुरक्षा की ज़रूरत है किसलिए?
बौना हुआ है देश का विधान आज तो
मिलते हैं सभी ऐश के सामान जेल में
बौना सा हो गया यहाँ, भगवान आज तो
रावण छिपे हैं आज राम के लिबास में
मुश्किल हुई है “रूप” की पहचान आज तो
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मंगलवार, 29 अगस्त 2017
ग़ज़ल "मज़हबों की कैद में, जकड़ा हुआ है आदमी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मज़हबों की कैद में, जकड़ा हुआ है आदमी।।
सभ्यता की आँधियाँ, जाने कहाँ ले जायेंगी,
काम के उद्वेग ने, पकड़ा हुआ है आदमी।
छिप गयी है अब हकीकत, कलयुगी परिवेश में,
रोटियों के देश में, टुकड़ा हुआ है आदमी।
हम चले जब खोजने, उसको गली-मैदान में
ज़िन्दग़ी के खेत में, उजड़ा हुआ है आदमी।
बिक रही है कौड़ियों में, देख लो इंसानियत,
आदमी की पैठ में, बिगड़ा हुआ है आदमी।
“रूप” तो है इक छलावा, रंग पर मत जाइए,
नगमगी परिवेश में, पिछड़ा हुआ है आदमी।
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ग़ज़ल "करें विश्वास अब कैसे, जमाने में फकीरों पे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
उड़ाते मौज़ जी भरकर, हमारे ही जखीरों पे
रँगे गीदड़ अमानत में ख़यानत कर रहे हैं अब
लगे हों खून के धब्बे, जहाँ के कुछ वज़ीरों पे
किये तैनात रखवाले, हमीं ने बिल्लियाँ-बिल्ले
समन्दर कर रहे दोहन, मगर बनकर जजीरों पे
जहाँ कानून हो अन्धा, वहाँ इंसाफ कैसे हो
अदालत में टिके हैं फैसले केवल नज़ीरों पे
पहन खादी को बगुलों ने, दिखाया “रूप” है अपना
सितम ढाया है ख़ाकी ने, हमेशा ही कबीरों पे |
सोमवार, 28 अगस्त 2017
गीत "तोंद झूठ की बढ़ी हुई है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अब कैसे दो शब्द लिखूँ, कैसे उनमें अब भाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?
मौसम की विपरीत चाल है,
धरा रक्त से हुई लाल है,
दस्तक देता कुटिल काल है,
प्रजा तन्त्र का बुरा हाल है,
बौने गीतों में कैसे मैं, लाड़-प्यार और चाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?
पंछी को परवाज चाहिए,
बेकारों को काज चाहिए,
नेता जी को राज चाहिए,
कल को सुधरा आज चाहिए,
उलझे ताने और बाने में, कैसे सरल स्वभाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?
भाँग कूप में पड़ी हुई है,
लाज धूप में खड़ी हुई है,
आज सत्यता डरी हुई है,
तोंद झूठ की बढ़ी हुई है,
रेतीले रजकण में कैसे, शक्कर के अनुभाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?
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रविवार, 27 अगस्त 2017
दोहे "पापी राम-रहीम" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कल तक जो था बाँटता, सबको हरि का नाम।
वो सच्चा सौदा हुआ, दुनिया में बदनाम।।
डेरे राम रहीम के, होंगे अब नीलाम।
ओछी हरकत का बुरा, होता है अंजाम।।
बन्द सीखचों में हुआ, पापी राम-रहीम।
रेत-खेत सब हो गयी, पापी की तालीम।।
नाव पाप की तो नहीं, कभी उतरती पार।
धोखा दे मझधार में, छल-बल की पतवार।।
झूठ अधिक टिकता नहीं, सच की होती जीत।
मीत अगर सच्चा न हो, काहे का गुरमीत।।
जगतनियन्ता का नहीं, रूप-रंग-आकार।
लेकिन बाबा-मौलवी, बनते ठेकेदार।।
देखा जिनके नाम में, अब तक ढोंगी राम।
मानवता की खाल में, निकले वही हराम।।
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शनिवार, 26 अगस्त 2017
दोहे "पनप रहा है भोग" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
न्यायालय ने कर दिया, अपना पूरा काम।
कामी बाबा को मिला, उसको सही मुकाम।।
सच्चा सौदा था नहीं, पता चल गया आज।
छल-फरेब के जाल को, समझा सकल समाज।।
देख लिया संसार ने, कामुकता का हाल।
बाबाओं ने कर दिया, गन्दा पूरा ताल।।
रामपाल-गुरमीत भी, निकले आशाराम।
किया इन्होंने सन्त के, चोले को बदनाम।।
नौकाओं में पंथ की, दिखने लगे सुराख।
बाबाओं की अब नहीं, रही पुरानी शाख।।
दाँव-पेंच चलती रही, हरियाणा सरकार।
रौब-दाब को सामने, शासन था लाचार।।
बाबाओं ने देश में, जनता का आराम।
बगुलों ने टोपी लगा, जीना किया हराम।।
सत-संगत की आड़ में, पनप रहा है भोग।
बाबाओं के पाश में, बन्धक है अब योग।।
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शुक्रवार, 25 अगस्त 2017
दोहे "गणनायक भगवान" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शुक्ल चतुर्थी से शुरू, चतुर्दशी अवसान।
दस दिन रहता देश में, श्रद्धा का उन्वान।।
गणनायक भगवान की, महिमा बहुत अनन्त।
कृपा आपकी हो गर, जीवन बने बसन्त।।
मोदक प्रिय हैं आपको, गणनायक भगवान।
बनकर वाहन आपका, मूषक बना महान।।
साँझ-सवेरे आरती, उसके बाद प्रसाद।
होता है दरबार में, घण्टा ध्वनि का नाद।।
करता है आराधना, मन से सकल समाज।
बिना आपके तो नहीं, होता मंगल काज।।
विध्नविनाशक आप हो, सभी गणों के ईश।
पूजा करते आपकी, सुर-नर और मुनीश।।
सबसे पहले आपकी, पूजा होती देव।
सबकी रक्षा कीजिए, जय-जय गणपतिदेव।।
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गुरुवार, 24 अगस्त 2017
दोहे "पुनः नया अध्याय" डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक',
कामी आशाराम से, ही हैं क्या गुरमीत।
अनुयायी गुरमीत के, फिर क्यों हैं भयभीत।।
शोषण और बलात पर, होगा पूरा न्याय।
न्यायालय दुहरायगा, पुनः नया अध्याय।।
मुजरिम कितना हो बड़ा, सच आता अपराध।
दाँव-पेंच से तो नहीं, पूरी होगी साध।।
पाक-साफ हैं जब गुरू, फिर क्यों बढ़ा
जुनून।
लेकिन गुण्डों का नहीं, पनपेगा कानून।।
बचने को कानून से, करता ऊहापोह।
जान-बूझकर पालता, बाबा यहाँ गिरोह।।
बने हुए बहरूपिये, कुछ बाबा है आज।
जिनके कारण हो गया, दूषित सकल समाज।।
बाबा धोखा दे रहे, बन कर राम-रहीम।
घातक रहे समाज को, ऐसा नीम हकीम।।
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मंगलवार, 22 अगस्त 2017
वन्दना "ज्ञान का तुम ही भण्डार हो" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
मेरी गंगा भी तुम, और यमुना भी तुम,
तुम ही मेरे सकल काव्य की धार हो। जिन्दगी भी हो तुम, बन्दगी भी हो तुम,
गीत-गजलों का तुम ही तो आधार हो।
मुझको जब से मिला आपका साथ है, शह मिली हैं बहुत, बच गईं मात है, तुम ही मझधार हो, तुम ही पतवार हो।
गीत-गजलों का तुम ही तो आधार हो।।
बिन तुम्हारे था जीवन बड़ा अटपटा, पेड़ आँगन का जैसे कोई हो कटा, तुम हो अमृत घटा तुम ही बौछार हो।
गीत-गजलों का तुम ही तो आधार हो।।
तुम महकता हुआ शान्ति का कुंज हो, जड़-जगत के लिए ज्ञान का पुंज हो, मेरे जीवन का सुन्दर सा संसार हो। गीत-गजलों का तुम ही तो आधार हो।। तुम ही हो वन्दना, तुम ही आराधना, दीन साधक की तुम ही तो हो साधना, तुम निराकार हो, तुम ही साकार हो।
गीत-गजलों का तुम ही तो आधार हो।।
आस में हो रची साँस में हो बसी, गात में हो रची, साथ में हो बसी, विश्व में ज्ञान का तुम ही भण्डार हो।
गीत-गजलों का तुम ही तो आधार हो।।
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दोहे "खारिज तीन तलाक" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कठमुल्लाओं की
कटी, सरेआम अब नाक।
न्यायालय ने
कर दिया, खारिज तीन तलाक।।
खवातीन पर अब
नहीं, होगा अत्याचार।
संसद से कानून
अब, लायेगी सरकार।।
सबको लाना
चाहिए, मजहब पर ईमान।
लेकिन तीन
तलाक को, कहता नहीं कुरान।।
समता और
समानता, जीवन का आधार।
लोकतन्त्र में
सभी को, हैं समान अधिकार।।
पढ़े-लिखे सब
मानते, मिला नारि को न्याय।
कट्टरपंथी कह
रहे, अब इसको अन्याय।।
खड़े किये
दरबार में, सबने बड़े वकील।
झूठी साबित हो गयीं, उनकी सभी दलील।।
न्यायालय में
हो गयी, मुल्लाओं की हार।
दाँत पीस कर
रह गये, सारे ठेकेदार।।
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गीत "कॉफी की चुस्की" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
क्षणिक शक्ति को देने वाली।
कॉफी की तासीर निराली।। जब तन में आलस जगता हो, नहीं काम में मन लगता हो, थर्मस से उडेलकर कप में, पीना इसकी एक प्याली। कॉफी की तासीर निराली।। पिकनिक में हों या दफ्तर में, बिस्तर में हों या हों घर में, कॉफी की चुस्की ले लेना, जब भी खुद को पाओ खाली। कॉफी की तासीर निराली।। सुख-वैभव के अलग ढंग हैं, काजू और बादाम संग हैं, इस कॉफी के एक दौर से, सौदे होते हैं बलशाली। कॉफी की तासीर निराली।। मन्त्री जी हों या व्यापारी, बड़े-बड़े अफसर सरकारी, सबको कॉफी लगती प्यारी, कुछ पीते हैं बिना दूध की, जो होती है काली-काली। कॉफी की तासीर निराली।। |
सोमवार, 21 अगस्त 2017
गीत "सभ्यता पर ज़ुल्म ढाती है सुरा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
ज़िन्दगी को आज खाती है सुरा।
मौत का पैगाम लाती है सुरा।।
उदर में जब पड़ गई दो घूँट हाला,
प्रेयसी लगनी लगी हर एक बाला,
जानवर जैसा बनाती है सुरा।
मौत का पैगाम लाती है सुरा।।
ध्यान जनता का हटाने के लिए,
नस्ल को पागल बनाने के लिए,
आज शासन को चलाती है सुरा,
मौत का पैगाम लाती है सुरा।।
आज मयखाने सजे हर गाँव में,
खोलती सरकार है हर ठाँव में,
सभ्यता पर ज़ुल्म ढाती है सुरा।
मौत का पैगाम लाती है सुरा।।
इस भयानक खेल में वो मस्त हैं,
इसलिए भोले नशेमन त्रस्त हैं,
हर कदम पर अब सताती है सुरा।
मौत के पैगाम को लाती सुरा।।
सोमरस के दो कसैले घूँट पी,
तोड़ कर अपनी नकेले ऊँट भी,
नाच नंगा अब नचाती है सुरा।
मौत के पैगाम को लाती सुरा।।
डस रहे हैं देश काले नाग अब,
कोकिला का “रूप" भऱकर काग अब,
गान गाता आज नाती बेसुरा।
मौत के पैगाम को लाती सुरा।।
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