बच्चे गुझिया बना रहे हैं,
होली की है तैयारी।
दहीबड़े, पापड़-मठरी की,
कल को आयेगी बारी।।
जब गुझिया बन जायेंगी,
तब इन को तल देगी दादी,
खाने-पीने, मौज मनाने की,
होली पर आजादी,
खेत-बाग-वन चहक रहे हैं,
महक रही है फुलवारी।
दहीबड़े, पापड़-मठरी की,
कल को आयेगी बारी।।
होली का त्यौहार उमंगें-
आशाएँ लेकर आता,
बैर-भाव को भुला दीजिए,
सीख हमें ये सिखलाता,
खुश हो करके मिलो सभी से,
है कुटुम्भ धरती सारी।
दहीबड़े, पापड़-मठरी की,
कल को आयेगी बारी।।
इन मोहक पकवानों को सब,
कई दिनों तक खायेंगे,
गली-मुहल्ले के लोगों को,
रंगों से नहलायेंगे,
बाबा जी पोती-पोतों को,
दिलवायेंगे पिचकारी।
दहीबड़े, पापड़-मठरी की,
कल को आयेगी बारी।।
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बुधवार, 28 फ़रवरी 2018
गीत "होली का त्यौहार उमंगें- आशाएँ लेकर आता" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018
दोहे "होली के ये रंग" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कितने अच्छे लग रहे, होली के ये रंग।
रंगों के त्यौहार में, नहीं मिलाना भंग।।
रंगों का अब आ रहा, मनभावन त्यौहार।
रूठे सुजन मनाइए, करके यत्न हजार।।
होली के त्यौहार में, बाँटो सबको प्यार।
रंगों की बौछार से, निर्मल करो विकार।।
बच्चों-बूढ़ों के लिए, रहना सदा उदार।
रंग-अबीर-गुलाल है, होली का उपहार।।
हँसी-ठिठोली को करो, मर्यादा के संग।
जो लगवाये प्यार से, उसे लगाओ रंग।।
देख खेत में अन्न को, होता हर्ष अपार।
इसीलिए मधुमास में, आता ये त्यौहार।।
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रविवार, 25 फ़रवरी 2018
कविता "भय मानो मीठी मुस्कानों से" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों।
आज घर की पुरानी अलमारी में
जीर्ण-शीर्ण अवस्था में
1970 से 1973 तक की
एक पुरानी डायरी मिल गयी।
जिसमें मेरी यह रचना भी है-
सब तोप तबर बेकार हुए,
अब डरो न तीर कमानों से।
भय मानो तो ऐ लोगों!
मानो मीठी मुस्कानों से।।
शासन से कह दो, अब करना
फौजों का निर्माण नहीं।
छाँट-छाँट कर वीर सजीले,
भरती करना ज्वान नहीं।।
सागर में डुबो फेंक दो सब,
बन्दूकों और हथियारों को।
सेना में भरती करलो,
कुछ सुन्दर-सुन्दर नारों को।।
बनी-ठनी जब ये बालाएँ,
रणस्थल में चालेंगी।
लाखों ही वीरों के दिल के
टुकड़े हजार कर डालेंगी।।
सजी-धजी बालाओं का तो
सारे जग में चर्चा है।
कुछ अधिक नहीं देना होगा,
बस मामूली सा खर्चा है।।
कुछ पाउडर-क्रीम लवेंडर और
कुछ देना होठों की लाली।
बस इतने से ही खर्चे में
होगी सीमा की रखवाली।।
जो काम नहीं कर सकी अरे
गाँधी की फटी लँगोटी रे।
वो काम सहज कर जायेंगी,
नागिन सी इनकी चोटी रे।।
तोप तमंचे गोलों की,
अब नहीं यहाँ परवाह हमें।
सुन्दर-सुन्दर नारी दो,
भगवान यही है चाह हमें।।
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शनिवार, 24 फ़रवरी 2018
गीत "धारण त्रिशूल कर दुर्गा बन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों।
आज घर की पुरानी अलमारी में
जीर्ण-शीर्ण अवस्था में
1970 से 1973 तक की
एक पुरानी डायरी मिल गयी।
जिसमें मेरी यह रचना भी है-
फूलों की मुझको चाह नहीं,
मैं काँटों को स्वीकार करूँ।
चन्दन से मुझको मोह नहीं,
ज्वाला को अंगीकार करूँ।।
सागर पर जिनने पुल बाँधा,
नल-नील भले ही खो जाये।
मैं सिन्धु सुखाने वाले,
कुम्भज का आदर मनुहार करूँ।।
चन्दन से मुझको मोह नहीं,
ज्वाला को अंगीकार करूँ।।
अम्बर चाहे मत लौटा हमको,
महावीर, गौतम, गाँधी।
दे दे प्रताप. इन्दिरा, सुभाष,
मैं गोविन्दसिंह से प्यार करूँ।।
चन्दन से मुझको मोह नहीं,
ज्वाला को अंगीकार करूँ।।
अब नहीं चाहिए पांचाली,
खिँच गया चीर दुर्गा न बनी।
लक्ष्मीबाई को लौटा दे,
फिर अरिमुण्डों से हार भरूँ।।
चन्दन से मुझको मोह नहीं,
ज्वाला को अंगीकार करूँ।।
ले नूरजहाँ लाखों चाहे,
बस एक पद्मिनी ही दे दे।
चन्दन-अबीर समझूँ गुलाल,
माथे पर उसकी क्षार धरूँ।।
चन्दन से मुझको मोह नहीं,
ज्वाला को अंगीकार करूँ।।
काबा-काशी या यरूशलम,
बद्रीनारायण छोटे हैं।
हैं कुरूक्षेत्र-हल्दीघाटी,
इम्फाल तीर्थ सत्कार करू।।
चन्दन से मुझको मोह नहीं,
ज्वाला को अंगीकार करूँ।।
दे शूल जो बाणों पर चढ़कर,
नाचें सदैव गाण्डीवों पर।
जो जूड़ों पर चढ़ मुरझाते,
उन फूलों से क्या प्यार करूँ।।
चन्दन से मुझको मोह नहीं,
ज्वाला को अंगीकार करूँ।।
मोहन! बंशी की चाह नहीं,
दो देवदत्त या पाञ्चजन्य।
चरखा लो, चक्र सुदर्शन दो,
मैं प्रलयंकर गुंजार करूँ।।
चन्दन से मुझको मोह नहीं,
ज्वाला को अंगीकार करूँ।।
अब नहीं चाहिए चरण कमल,
दे दे अंगद का एक पाँव।
भू डोल उठे, अरि वक्षस पर,
मैं ऐसा वज्र प्रहार करूँ।।
चन्दन से मुझको मोह नहीं,
ज्वाला को अंगीकार करूँ।।
माँ सरस्वती वीणा रख कर,
धारण त्रिशूल कर दुर्गा बन।
तेरे चरणों में शीश झुका,
मैं अभिनन्दन शत बार करूँ।।
फूलों की मुझको चाह नहीं,
मैं काँटों को स्वीकार करूँ।
चन्दन से मुझको मोह नहीं,
ज्वाला को अंगीकार करूँ।।
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गीत "आई होली-खिलता फागुन आया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आँचल में प्यार लेकर,
भीनी फुहार लेकर.
आई होली,
आई होली,
आई होली रे!
चटक रही सेंमल की कलियाँ,
चलती मस्त बयारे।
मटक रही हैं मन की गलियाँ,
बजते ढोल नगारे।
निर्मल रसधार लेकर,
फूलों के हार लेकर,
आई होली, आई होली, आई होली रे!
मीठे सुर में बोल रही है,
बागों में कोयलिया।
कानों में रस घोल रही है,
कान्हा की बाँसुरिया।
रंगों की धार लेकर,
अभिनव शृंगार लेकर,
आई होली, आई होली, आई होली रे!
लहराती खेतों में फसलें,
तन-मन है लहराया.
वासन्ती परिधान पहनकर,
खिलता फागुन आया,
महकी मनुहार लेकर,
गुझिया उपहार लेकर,
आई होली, आई होली, आई होली रे! |
शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018
गीत "अपने मन को बहलाते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मधुमेह हुआ जबसे हमको,
मीठे से हम कतराते हैं।
गुझिया-बरफी के चित्र देख,
अपने मन को बहलाते हैं।।
आलू, चावल और रसगुल्ले,
खाने को मन ललचाता है,
हम जीभ फिराकर होठों पर,
आँखों को स्वाद चखाते हैं।
गुझिया-बरफी के चित्र देख,
अपने मन को बहलाते हैं।।
गुड़ की डेली मुख में रखकर,
हम रोज रात को सोते थे,
बीते जीवन के वो लम्हें,
बचपन की याद दिलाते हैं।
गुझिया-बरफी के चित्र देख,
अपने मन को बहलाते हैं।।
हर सामग्री का जीवन में,
कोटा निर्धारित होता है,
उपभोग किया ज्यादा खाकर,
अब जीवन भर पछताते हैं।
गुझिया-बरफी के चित्र देख,
अपने मन को बहलाते हैं।।
थोड़ा-थोड़ा खाते रहते तो,
जीवन भर खा सकते थे,
पेड़ा और बालूशाही को,
हम देख-देख ललचाते हैं।
गुझिया-बरफी के चित्र देख,
अपने मन को बहलाते हैं।।
हमने खाया मन-तन भरके,
अब शिक्षा जग को देते हैं,
खाना मीठा पर कम खाना,
हम दुनिया को समझाते हैं।
गुझिया-बरफी के चित्र देख,
अपने मन को बहलाते हैं।।
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गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018
होली गीत "त्योहारों की रीत" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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