उनसे कैसी मित्रता, जो करते हैं घात।
ऐसे लोगों से बचो, करते जो उत्पात।।
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करता मुख के सामने, मीठी-मीठी बात।
होता नहीं कुतर्क से, कोई भी विख्यात।।
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मनवाना जो चाहता, अपनी बात बलात।
वो दुर्जन करता सदा, सज्जन पर आघात।।
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दुष्ट नहीं माने कभी, धर्म-कर्म-उपदेश।
उलटे लगते हैं उसे, उपयोगी सन्देश।।
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बिना विचारे जो करे, वाणी का संधान।
वो मानव के रूप में, साक्षात् हैवान।।
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सोमवार, 30 नवंबर 2015
दोहे "वाणी का संधान" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रविवार, 29 नवंबर 2015
दोहे "मँहगाई के सामने, जनता है लाचार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
उत्तर भारत को
चुना, कुहरे ने आवास।
सरदी का होने
लगा, लोगों को आभास।।
--
ऊनी कपड़ों का
सजा, फिर से अब बाजार।
आमआदमी पर
पड़ी, मँहगाई की मार।।
--
सरेआम होने
लगी, जमकर लूट-खसोट।
अब काजू-बादाम
से, मँहगे हैं अखरोट।।
--
ग़ज़क-रेवड़ी कह
रहे, गुड़ के ऊँचे भाव।
तेल और घी के
बिना, बनता नहीं पुलाव।।
--
खिचड़ी अब कैसे
पके, मँहगी काली दाल।
अरहर-मूँग-मसूर
का, रूप हुआ विकराल।।
--
मँहगाई तो देश
में, मचा रही कुहराम।
गाजर-आलू-मटर
के, बढ़े हुए हैं दाम।।
--
मत पा करके हो
गयी, अभिमानी सरकार।
मँहगाई के
सामने, जनता है लाचार।।
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शनिवार, 28 नवंबर 2015
गीत "मैला हुआ है आवरण" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सभ्यता, शालीनता के गाँव में,
खो गया जाने कहाँ है आचरण? कर्णधारों की कुटिलता देखकर, देश का दूषित हुआ वातावरण। सुर हुए गायब, मृदुल शुभगान में,
गन्ध है अपमान की, सम्मान में,
आब खोता जा रहा अन्तःकरण।
खो गया जाने कहाँ है आचरण?
शब्द अपनी प्राञ्जलता खो रहा,
ह्रास अपनी वर्तनी का हो रहा,
रो रहा समृद्धशाली व्याकरण।
खो गया जाने कहाँ है आचरण?
लग रहे घट हैं भरे, पर रिक्त हैं,
लूटने में राज को, सब लिप्त हैं,
पंक से मैला हुआ है आवरण।
खो गया जाने कहाँ है आचरण?
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शुक्रवार, 27 नवंबर 2015
संस्मरण "उपहार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गुरुवार, 26 नवंबर 2015
ग़ज़ल "बातचीत बन गये" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
भाव हो गये ख़ुदा, बोल गीत बन गये।।
काफ़िला बना नहीं, पथ कभी मिला नहीं,
वर्तमान थे कभी, अब अतीत बन गये।
देह थी नवल-नवल, पंक में खिला कमल,
लफ्ज़ तो ज़ुबान की, बातचीत बन गये।
सभ्यता के फेर में, गन्दगी के ढेर में,
मज़हबों की आड़ में, हार-जीत बन गये।
आइना कमाल है, “रूप” इन्द्रज़ाल है,
धूप और छाँव में, रिवाज़-रीत बन गये।
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बुधवार, 25 नवंबर 2015
दोहे "शारदा नहर खटीमा-मेला गंगास्नान" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मंगलवार, 24 नवंबर 2015
दोहे "घटते जंगल-खेत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
घटते जाते धरा से, बरगद-पीपल-नीम।
इसीलिए तो आ रहे, घर में रोज हकीम।।
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रक्षक पर्यावरण के, होते पौधे-पेड़।
लेकिन मानव ने दिये, जड़ से पेड़ उखेड़।।
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पेड़ काटता जा रहा, धरती का इंसान।
प्राणवायु कैसे मिले, सोच अरे नादान।।
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दौलत के मद में मनुज, करता तोड़-मरोड़।
हरितक्रान्ति संसार में, आज रही दम
तोड़।।
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कंकरीट को बो रहा, खेतों में इंसान।
कसरत करने के लिए, बचे नहीं मैदान।।
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आबादी तो बढ़ रही, घटते जंगल-खेत।
पानी बिन सरिताओं में, उड़ता केवल रेत।।
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दोहन हुआ पहाड़ का, गरज रहा भूचाल।
इंसानी करतूत से, जीवन है बेहाल।।
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सोमवार, 23 नवंबर 2015
दोहे "चंचल चितवन नैन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कह देतीं हैं सहज ही, सुख-दुख-करुणा-प्यार।
कुदरत ने हमको दिया, आँखों का उपहार।।
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आँखें नश्वर देह का, बेशकीमती अंग।
बिना रौशनी के लगे, सारा जग बेरंग।।
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मिल जाती है आँख जब, आ जाता है चैन।
गैरों को अपना करें, चंचल चितवन नैन।।
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दुनिया में होती अलग, दो आँखों की रीत।
होती आँखें चार तो, बढ़ जाती है प्रीत।।
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पोथी में जिनका नहीं, कोई भी उल्लेख।
आँखें पढ़ना जानती, वो सारे अभिलेख।।
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माता पत्नी बहन से, करना जो व्यवहार।
आँखें ही पहचानतीं, रिश्तों का आकार।।
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सम्बन्धों में हो रहा, कहाँ-कहाँ व्यापार।
आँखों से होता प्रकट, घृणा और सत्कार।।
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रविवार, 22 नवंबर 2015
दोहे "दोहों में सन्देश" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गति-यति-लय के साथ हो, शब्दों
का संधान।
पालन करने के लिए, होते
नियम-विधान।।
--
मर्यादा के साथ में,
लिखो हास-परिहास।
नहीं उड़ाना चाहिए,
छन्दों का उपहास।।
--
कविता रचने के लिए, रखना
होगा ध्यान।
उपमाओं के साथ में,
अच्छे हों उपमान।।
--
जिसमें होती गेयता, वो
कहलाता गीत।
शब्दों के ही साथ है, साज
और संगीत।
--
अपनी भाषा में रचो, कविता
ललित-ललाम।
हिन्दी के परिवेश में,
हिंग्लिश का क्या काम।।
--
घालमेल से हो रहा, भाषा
का नुकसान।
हिन्दी का तो लोग अब, भूल
रहे अहसान।।
--
देशज शब्दों से करो,
अपना दिव्य निवेश।
सन्तों ने जग को दिया,
दोहों में सन्देश।।
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