जिन्हें पाला था नाज़ों से, वही आँखें दिखाते हैं। हमारे दिल में घुसकर वो, हमें नश्तर चुभाते हैं।। जिन्हें अँगुली पकड़ हमने, कभी चलना सिखाया था, जरा सा ज्ञान क्या सीखा, हमें पढ़ना सिखाते हैं। भँवर में थे फँसे जब वो, हमीं ने तो निकाला था, मगर अहसान के बदले, हमें चूना लगाते हैं। हमें अहसास होता है, बड़ी है मतलबी दुनिया, गधे को बाप भी अपना, समय पर वो बनाते हैं। नहीं है “रूप” से मतलब, नहीं है रंग की चिन्ता, अगर चांदी के जूते हो, तो सिर पर वो बिठाते हैं। |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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शनिवार, 30 जून 2012
"हमारे घर में रहते हैं, हमें चूना लगाते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शुक्रवार, 29 जून 2012
"एक दिन चुनाव प्रचार के नामं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गुरुवार, 28 जून 2012
"अन्तरजाल हुआ है तन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कम्प्यूटर बन गई जिन्दगी, अन्तरजाल हुआ है तन। जालजगत के बिना कहीं भी, लगता नहीं हमारा मन।। जंगल लगता बहुत सुहाना, पर्वत लगते हैं अच्छे, सीधी-सादी बातें करते, बच्चे लगते हैं अच्छे, सुन्दर-सुन्दर सुमनों वाला, लगता प्यारा ये उपवन। जालजगत के बिना कहीं भी, लगता नहीं हमारा मन।। सुख की बातें-दुख की बातें, बेबाकी से देते हैं, भावनाओं के सम्प्रेषण से, अपना मन भर लेते हैं. आभासी दुनिया में मिलता, हमको सुख और चैन-अमन। जालजगत के बिना कहीं भी, लगता नहीं हमारा मन।। पंकहीन से कमल सुशोभित करते, बगिया और चमन। जालजगत के बिना कहीं भी, लगता नहीं हमारा मन।। उड़नतश्तरी दिख जाती है, ताऊ नजर नहीं आता, जालजगत के बिना कहीं भी, लगता नहीं हमारा मन।। |
बुधवार, 27 जून 2012
"जकड़ा हुआ है आदमी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
वानरों की कैद में, जकड़ा हुआ है आदमी।। सभ्यता की आँधियाँ, जाने कहाँ ले जायेंगी, काम के उद्वेग ने, पकड़ा हुआ है आदमी। छिप गयी है अब हकीकत, कलयुगी परिवेश में, रोटियों के देश में, टुकड़ा हुआ है आदमी। हम चले जब खोजने, उसको गली-मैदान में ज़िन्दग़ी के खेत में, उजड़ा हुआ है आदमी। बिक रही है कौड़ियों में, देख लो इंसानियत, आदमी की पैठ में, बिगड़ा हुआ है आदमी। “रूप” तो है इक छलावा, रंग पर मत जाइए, नगमगी परिवेश में, पिछड़ा हुआ है आदमी। |
मंगलवार, 26 जून 2012
"कविवर राकेश "चक्र" के सम्मान में गोष्ठी " (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
और अपना आभार दर्शन प्रदर्शित किया।
"आशा का दीप जलाया क्यों" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मन के सूने से मन्दिर में, आशा का दीप जलाया क्यों? वीराने जैसे उपवन में, सुन्दर सा सुमन खिलाया क्यों? प्यार, प्यार है पाप नही है, इसका कोई माप नही है, यह तो है वरदान ईश का, यह कोई अभिशाप नही है, दो नयनों के प्यालों में, सागर सा नीर बहाया क्यों? वीराने जैसे उपवन में, सुन्दर सा सुमन खिलाया क्यों? मुस्काओ स्वर भर कर गाओ, नगमों को और तरानों को, गुंजायमान करदो फिर से, इन खाली पड़े ठिकानों को, शीशे से भी नाजुक दिल मे, ग़म का गुब्बार समाया क्यों? वीराने जैसे उपवन में, सुन्दर सा सुमन खिलाया क्यों? स्वप्न सलोने जो छाये हैं, उनको आज धरातल दे दो, पीत पड़े प्यारे पादप को, गंगा का निर्मल जल दे दो, रस्म-रिवाजों के कचरे से, यह घर-द्वार सजाया क्यों? वीराने जैसे उपवन में, सुन्दर सा सुमन खिलाया क्यों? |
सोमवार, 25 जून 2012
"तुम भारत के वीर हो-राकेश चक्र"
नौजवान तुम बढ़ो देश के, इस युग की तस्वीर हो। कदम से कदम मिलाओ प्यारे, तुम भारत के वीर हो। वन्दे मातरम् वन्दे मातरम्! हुआ सुशोभित प्यारा सारा, ऊँचा आज हिमालय भाल, भारत माँ की रक्षा कर लो, तुम ही हो अनमोल सुलाल। कार्य करो तुम और भी अच्छे, फाग खिले और उड़े गुलाल जग में मान बढ़ाओ प्यारे, तुम ही तो रणधीर हो। वन्दे मातरम् वन्दे मातरम्! मिटे अंधेरा इस भारत का, तुमको दीप जलाना है। मन उजियारे सबके होंगे, गीत प्रीति का गाना है। भय भागे घर-घर का अब तो, सुदृढ़ लक्ष्य बनाना है। सबकी प्यास बुझाओ प्यारे तुम ही मीठा नीर हो। वन्दे मातरम् वन्दे मातरम्! तुम ही हो सुभाष राष्ट्र के, भगत सरीखे तारे हो। लाल-बाल और पाल बनो, शेखर से उजियारे हो। तुम ही बिस्मिल, तुम ही अब्दुल तुम ही गाँधी सारे हो। तुम ही मशाल जलाओ प्यारे बहती हुई समीर हो। वन्दे मातरम् वन्दे मातरम्! तुम ही भ्रष्टाचार मिटाओ, तुम ही पापाचार को। सब पंथों का भेद मिटाओ, और बढ़ाओ प्यार को। ग्रन्थों का सब ज्ञान पढ़ाकर, दे दो सारे सार को। सत् के वृक्ष उगाओ प्यारे, तुम ही कर्म सुवीर हो। वन्दे मातरम् वन्दे मातरम्! माता तुम से मांग रही है, अब बलिदानी जत्थों को। तुमको ही रक्षा करना है, दुश्मन हनें निहत्थों को। संस्कृति तुम ही बचा सकोगे, ज्ञान सिखा मनु पुत्रों को। रक्षा करो आज भाषा की, ज्ञानवान तदवीर हो। |
रविवार, 24 जून 2012
‘‘कैसी रही यह परिभाषा?’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शनिवार, 23 जून 2012
"आओ धान की पौध लगाएँ" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बादल आये जोर-शोर से। बारिश बरसी खूब जोर से।। आँधी आयी, बिजली चमकी। पहली बारिश है मौसम की।। भीग गया धरती का आँचल। झूम रहे खुश होकर जंगल।। मानसून का मौसम आया। लू-गर्मी का हुआ सफाया।। वर्षा का जल सबको भाया। पेड़ों ने नवजीवन पाया।। श्रम करने खेतों में जाएँ। आओ धान की पौध लगाएँ।। |
शुक्रवार, 22 जून 2012
"खोलो मन का द्वार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सुबह हुई अब तो उठो, खोलो मन का द्वार। करके पूजा जाप को, लो बुहार घर-बार।१। सुथरे तन में ही रहे, निर्मल मन का वास। मोह और छलछद्म भी, नहीं फटकता पास।२। श्रम से अर्जित आय से, पूरी होती आस। सागर के जल से कभी, नहीं मिटेगी प्यास।३। चलना ही है ज़िन्दग़ी, रुकना तो हैं मौत। सूरज जग रौशन करे, टिम-टिम हों खद्योत।४। |
गुरुवार, 21 जून 2012
"आज विनीत चाचा का जन्मदिन है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"अब कुमुद खिलने लगेंगे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आज नभ पर बादलों का है ठिकाना। हो गया अपने यहाँ मौसम सुहाना।। कल तलक लू चल रही थी, धूप से भू जल रही थी, आज हैं रिमझिम फुहारें, लौट आयी हैं बहारें, बुन लिया है पंछियों ने आशियाना। हो गया अपने यहाँ मौसम सुहाना।। हल किसानों ने उठाया, खेत में उसको चलाया, धान की रोपाई होगी, अन्न की भरपाई होगी, गा उठेगा देश फिर, सुख का तराना। हो गया अपने यहाँ मौसम सुहाना।। ताल के नम हैं किनारे, मिट गयीं सूखी दरारें, अब कुमुद खिलने लगेंगे, भाग्य धरती के जगेंगे, आ गया है दादुरों को गीत गाना। हो गया अपने यहाँ मौसम सुहाना।। |
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