पर्वतों से पत्थरों को तो उठाकर देखिए। तोड़कर इनको कभी रोजी कमाकर देखिए। शाख के गुल को कुचलना तो बहुत आसान है, कण्टकों की राह पर भी पग बढ़ाकर देखिए। दूर के ही ढोल लगते हैं सुहाने कान को, ताल से इनकी कभी सुर को मिलाकर देखिए। ग्रीष्म, बारिश-शीत में भी कर रहें काम जो, साथ उनके चार पल भी तो बिताकर देखिए। कितनी मेहनत से बनाते हैं परिन्दे घोंसले, बीनकर तिनकों से अपना घर बनाकर देखिए। हैं बहुत खुद्दार निर्धन, मुफ्त की खाते नहीं, खेत में बँगलों से बाहर, हल चलाकर देखिए। श्रमिक और किसान का भारत बसा है गाँव में, मुफ्त का मत खाइए, फसलें उगाकर देखिए। |
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रविवार, 8 मई 2011
"फसलें उगाकर देखिए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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" श्रमिक और किसान का भारत बसा है गाँव में,
जवाब देंहटाएंमुफ्त का मत खाइए, फसलें उगाकर देखिए। "
एक सार्थक सन्देश देती रचना ... आपका आभार !
बहुत पसन्द आयी यह ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंशाख के गुल को मसलना तो बहुत आसान है,
जवाब देंहटाएंकण्टकों की राह पर भी पग बढ़ाकर देखिए।
बहुत खूबसूरत गज़ल
ek naseehat deti hui gazhal....bahut uttam,atulniye shabd kum pad rahe hain taareef ke liye.pictures,n photo me farming bahut achchi lagti hai kintu jo vahan kaam karte hain haal vahi jaane.bahut sarahniye rachna.
जवाब देंहटाएं" श्रमिक और किसान का भारत बसा है गाँव में,
जवाब देंहटाएंमुफ्त का मत खाइए, फसलें उगाकर देखिए। "
सुंदर रचना ...सार्थक सन्देश
श्रम का आनन्द।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा संदेश देती गजल, बधाई।
जवाब देंहटाएंदूर के ही ढोल लगते हैं सुहाने कान को,
जवाब देंहटाएंताल से इनकी कभी सुर को मिलाकर देखिए।
ग्रीष्म, बारिश-शीत में भी कर रहें काम जो,
साथ उनके चार पल भी तो बिताकर देखिए।
शास्त्री जीीआज के किसान की दुर्दशा उसकी अनदेखी के कारण ही हुयी है कविता के माध्यम से अच्छा सन्देश दिया। आभार।
" श्रमिक और किसान का भारत बसा है गाँव में,
जवाब देंहटाएंमुफ्त का मत खाइए, फसलें उगाकर देखिए। "
बहुत सु्न्दर संदेश देती सार्थक रचना।
ज़बरदस्त सन्देश छिपा हर शेर में.
जवाब देंहटाएंकितनी मेहनत से बनाते हैं परिन्दे घोंसले,
बीनकर तिनकों से अपना घर बनाकर देखिए।
मुझे ये शेर ज़ियादा अच्छा लगा.
ग्रीष्म, बारिश-शीत में भी कर रहें काम जो,
जवाब देंहटाएंसाथ उनके चार पल भी तो बिताकर देखिए।
कितनी मेहनत से बनाते हैं परिन्दे घोंसले,
बीनकर तिनकों से अपना घर बनाकर देखिए।
बहुत ख़ूबसूरत कविता प्रस्तुत किया है आपने! हैपी मदर्स डे!
कितनी मेहनत से बनाते हैं परिन्दे घोंसले,
जवाब देंहटाएंबीनकर तिनकों से अपना घर बनाकर देखिए।
वाह वाह वाह....
लाजवाब लिखा है आपने, बधाई.
मेरे ब्लॉग दुनाली पर देखें-
मैं तुझसे हूँ, माँ
'मुफ्त का मत खाइए, फसलें उगाकर देखिए।'
जवाब देंहटाएंबहुत सच्ची और सार्थक बात कही है आपने शास्त्रीजी .
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (9-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
कितनी मेहनत से बनाते हैं परिन्दे घोंसले,
जवाब देंहटाएंबीनकर तिनकों से अपना घर बनाकर देखिए।
यथार्थ को चित्रित करती बहुत सुन्दर प्रेरक रचना..आभार
बहुत सुन्दर, बेहतरीन अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत रचना, धन्य्वाद
जवाब देंहटाएंअति-सुंदर गीत...बढ़िया लगी...धन्यवाद शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमदर्स डे की शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंपर्वतों से पत्थरों को तो उठाकर देखिए।तोड़कर इनको कभी रोजी कमाकर देखिए।
जवाब देंहटाएंशाख के गुल को कुचलना तो बहुत आसान है,
कण्टकों की राह पर भी पग बढ़ाकर देखिए।
बहुत खूब शास्त्री जी !
बहुत दिनों के बाद
जवाब देंहटाएंएक बहुत बढ़िया ग़ज़ल पढ़ने को मिली!
--
इसका नयापन
इसकी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है!
shashtri sahab aapki is rachana ko padhkar hamen bharat ke wastwik jan ki pratimurti jehan men utar aayi . laga
जवाब देंहटाएंdo pratimurtyon ki samvedana vegmayi ho chali hai . bahut achha laga . aabhar ji .
हैं बहुत खुद्दार निर्धन, मुफ्त की खाते नहीं,
जवाब देंहटाएंखेत में बँगलों से बाहर, हल चलाकर देखिए।
इसे ही कहते हैं डिग्निटी ऑफ़ लेबर। बहुत ही संदेशपरक कविता।
हैं बहुत खुद्दार निर्धन, मुफ्त की खाते नहीं,
जवाब देंहटाएंखेत में बँगलों से बाहर, हल चलाकर देखिए।
bahut sunder ghazal .
har ek sher gahan abhivyakti liye hue ...!!
बहुत पसन्द आयी ग़ज़ल!
जवाब देंहटाएंआपका आभार !
निःशब्द कर दिया आपने! आभार
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com