चंचल मन होता मतवाला। बचपन होता बहुत निराला।। |
दीवारों पर चित्र बनाते, देख तितलियाँ रंग-बिरंगी। बैंगन-आम और लौकी की, चित्रकला करते बेढंगी। पापा-मम्मी खुश हो जाते, जब करता था पन्ना काला। बचपन होता बहुत निराला।। जी भरकर तब खेल खेलते, कभी-कभी गुस्सा दिखलाते। लेकिन गाँठ न मन में रखते, फिर संगी-साथी बन जाते। बस्ता-तख्ती लेकर जातीं, संग में मेरे मुन्नी-माला। बचपन होता बहुत निराला।। बगिया में चुपके से जाते, कच्चे आम तोड़कर लाते। फिर चटकारे लेकर खाते, पापाजी तब डाँट पिलाते, जब घर में आ जाता, मेरे पीछे-पीछे अमियोंवाला। |
बचपन की खूबसूरत यादों को ताजा करती इस सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बहुत बहुत आभार शास्त्री जी.
जवाब देंहटाएं' जी भरकर तब खेल खेलते,कभी-कभी गुस्सा दिखलाते।लेकिन गाँठ न मन में रखते,फिर संगी-साथी बन जाते।'
निश्छल मन निष्कपट व्यवहार.
हमें तो आप भी ऐसे ही लगतें है शास्त्री जी.
सही बात. बचपन का कोई मुक़ाबला नहीं.
जवाब देंहटाएंसचमुच बचपन बहुत निराला।
जवाब देंहटाएंबचपन को आपने कविता में उतार दिया है ...सुन्दर रचना .
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दरता से आपने इस रचना को प्रस्तुत किया है! मैं तो अपने बचपन के दिनों को याद करने लगी! मन प्रसन्न हो गया!
जवाब देंहटाएंबहुत निराला । काश कि फिर वापिस आ सकता। सुन्दर अभिव्यक्ति। आभार।
जवाब देंहटाएंबचपन की मीठी यादों को बहुत सुन्दरता से उकेरा है…………शानदार अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंबचपन के दिन भी क्या दिन थे
जवाब देंहटाएंउड़ते -फिरते तितली बन !
कोई लोटा दे मेरे बचपन के वो दिन
चंचल मन होता मतवाला, बचपन होता बहुत निराला।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब गुरु जी, आपकी इस कविता ने बचपन की याद दिला दी. बहुत-बहुत साधुवाद.
वाकई...बचपन बहुत निराला.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंसहमत हे जी बचपन मै सब राजा होते हे
जवाब देंहटाएंसचमुच बचपन बहुत निराला......बहुत प्यारी रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना..सचमुच बचपन का कोई ज़वाब नहीं..आभार
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