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" जाने केसे भूल हो गई अंतर्मन को पढने में ! "
जवाब देंहटाएंकभी -कभी न चाहते हुए भी इंसान गलती कर बैठता है ..पर क्षमा कई गलतियों की दवा है .परस्थितियो को प्रतिकूल करने के लिए ...क्षमा करना ही बडप्पन की निशानी है .....
जमी ये बात !
जवाब देंहटाएंshaastri ji ke prvachan pdh kar mugaambo roz khush ho rahaa hai bhtrin jzbaati lekhn ke liyen bdhaai .akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएं“रूप” कभी भी रास न आया, नादानों को फूलों का
जवाब देंहटाएंहमें तो यह 'रूप' आपका बहुत पसंद आया
शास्त्री जी
आज तो यूं लग रहा है जैसे कोई काँटा दिल मे चुभा है…………वैसे रचना तो लाजवाब है ही।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति है।
जवाब देंहटाएंओह ..कुछ मार्मिक सी हो गई अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना.
आज किसी को फिर दुःख पहुंचा ,
जवाब देंहटाएंलगता है मुझसे भूल हो गई !
सुंदर रचना !
हार नहीं मानी मैंने, संघर्षों के तूफानों से,
जवाब देंहटाएंराहें ही प्रतिकूल हो गईं, सोपानों को चढ़ने में।
गीत की व्यंजना दिल को छूती है !
हर पंक्ति में भावों की कसावट साफ़ झलक रही है !
आभार !
हार नहीं मानी मैंने, संघर्षों के तूफानों से,
जवाब देंहटाएंराहें ही प्रतिकूल हो गईं, सोपानों को चढ़ने में।
bahut hi sunder ghazal likhi hai.umdaa ghazal.
सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंbahut sundar kavita babu ji...aabhar
जवाब देंहटाएंहार नहीं मानी मैंने, संघर्षों के तूफानों से,
जवाब देंहटाएंराहें ही प्रतिकूल हो गईं, सोपानों को चढ़ने में।
इसके लिए तो यही कहूँगी --
वह पथ क्या पथिक सफलता क्या, जब पथ में बिखरे शूल न हो,
नाविक की धैर्य कुशलता क्या, जब धाराएँ प्रतिकूल न हो.
उठती-गिरती लहरों से, नौका को सदा बचाया है,
जवाब देंहटाएंभरी जवानी धूल हो गई, तूफानों से लड़ने में ..
वाह ... नमस्कार शास्त्री जी .... मधुर गीत है ..मन के भावों का संगम ...
कहीं कोई दर्द उठा है अभी.....
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 17 - 05 - 2011
जवाब देंहटाएंको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
हार नहीं मानी मैंने, संघर्षों के तूफानों से,
जवाब देंहटाएंराहें ही प्रतिकूल हो गईं, सोपानों को चढ़ने में।
यही जज्बा होना चाहिए....
बहुत सुंदर....
उठती-गिरती लहरों से, नौका को सदा बचाया है,
जवाब देंहटाएंभरी जवानी धूल हो गई, तूफानों से लड़ने में।
ना चाहते हुए भी कभी कभी ऐसा हो जाता है
जिसके लिए ये मन तैयार नहीं होता ...आपकी लेखनी का जवाब नहीं है भाई जी
बहुत उम्दा लिखा है आपने
यू ही जूझता रहे जीवन, बड़ी सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंराहें ही प्रतिकूल हो गईं, सोपानों को चढ़ने में।
जवाब देंहटाएंजीवन से जुड़ी हुई रचना
बहुत सुन्दर .. लयमय
कभी पत्थर की लकीर हुआ करतीं थीं...अब बातों का अर्थ नहीं रह गया...कथनी और करनी में अंतर हो तो शब्दों का क्या मतलब...आजकल सर्वत्र ये ही देखने को मिल रहा है...बेहद संवेदनशील रचना...
जवाब देंहटाएंजाकल्पनाएँ निर्मूल हो गईं, पाषाणों को गढ़ने में।
जवाब देंहटाएंने केसे भूल हो गई अंतर्मन को पढने में
सुन्दर भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति
जीवन जीने का सलीका सिखाती एक सशक्त रचना .....सादर !
जवाब देंहटाएंप्रशंसनीय प्रस्तुति ! आभार
जवाब देंहटाएंगुल और गुलदान वाला प्रयोग बहुत ही बेहतरीन लगा .एक से बढ़कर एक बिम्ब और उनका आखिर तक निर्वाह किया है आपने इस कृति में .एक पंक्ति आपकी जिजीविषा और संघर्ष को समर्पित -"मैंने मानव को पूजा है पाषाणों से प्यार नहीं है ."पूर्ती इसकी आप कीजिये शाश्त्रीजी मयंक -होके निशंक !
जवाब देंहटाएंमन के भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंकभी -कभी न चाहते हुए भी ऐसी गलती हो जाती है जिनका पता बाद मैं चलता है
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