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रविवार, 25 जनवरी 2009
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री की वेदना
जब - जब मक्कारी फलती है ।
आजादी मुझको खलती है ॥
वोटों की जीवन घुट्टी पी हो गये पुष्ट हैं मतवाले ,
केंचुली पहिन कर खादी की छिप गए सभी विषधर काले ,
कुछ काम नही बैठे ठाले , करते है केवल घोटाले ,
अब विदुर नीति तो रही नही -
केवल दुर्नीति चलती है ॥
आजादी मुझको खलती है ॥
दानव दहेज़ का निगल चुका , कितनी निर्दोष नारियों को ,
प्रियतम का प्यार नसीब नही , कितनी ही प्राण - प्यारियों को ,
फांसी खाकर मरना पड़ता , अबला असहाय क्वारियों को ,
निर्धन के घर कफ़न पहन -
धरती की बेटी पलती है ॥
आजादी मुझको खलती है ॥
निर्बल मजदूर किसानों के हिस्से में कोरे नारे हैं ,
चाटुकार , मक्कारों के ही होते वारे -न्यारे हैं ,
ये रक्ष संस्कृति के पोषक , जन-गण-मन के हत्यारे हैं ,
सभ्यता इन्ही की बंधक बन ,
रोती है आँखें मलती है ॥
आजादी मुझको खलती है ॥
मैकाले की काली शिक्षा, भिक्षा की रीति सिखाती है ,
शिक्षित बेकारों की संख्या, दिन -प्रतिदिन बढती जाती है ,
नौकरी उसी के हिस्से में जो नेताजी का नाती है ,
है बाल अरुण बूढा-बूढा -
दोपहरी ढलती जाती है ॥
आजादी मुझको खलती है ॥
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अच्छी फर्म लेख
जवाब देंहटाएंकल 14/03/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
गहन विचारणीय सार्थक रचना प्रस्तुति ..आभार
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