गांधी-पटेल के भारत में,
जब-जब
मक्कारी फलती है।
आजादी
मुझको खलती है।।
वोटों
की जीवन घुट्टी पी हो गये पुष्ट हैं मतवाले,
केंचुली
पहिन कर खादी की छिप गए सभी विषधर काले,
कुछ काम
नही बैठे ठाले , करते है
केवल घोटाले,
अब
विदुर नीति तो रही नही,
केवल
दुर्नीति चलती है।
आजादी
मुझको खलती है।।
दानव
दहेज़ का निगल चुका , कितनी
निर्दोष नारियों को,
प्रियतम
का प्यार नसीब नही , कितनी
ही प्राण-प्यारियों को,
फांसी
खाकर मरना पड़ता , अबला
असहाय क्वारियों को,
निर्धन
के घर कफ़न पहन,
धरती की
बेटी पलती है।
आजादी
मुझको खलती है।।
निर्बल
मजदूर किसानों के हिस्से में कोरे नारे हैं,
चाटुकार
, मक्कारों
के ही होते वारे -न्यारे हैं,
ये रक्ष
संस्कृति के पोषक , जन-गण-मन
के हत्यारे हैं,
सभ्यता
इन्ही की बंधक बन,
रोती है
आँखें मलती है।
आजादी
मुझको खलती है।।
मैकाले
की काली शिक्षा, भिक्षा
की रीति सिखाती है,
शिक्षित
बेकारों की संख्या, दिन
-प्रतिदिन बढती जाती है,
नौकरी
उसी के हिस्से में जो नेताजी का नाती है,
है बाल
अरुण बूढ़ा-बूढ़ा,
दोपहरी
ढलती जाती है।
आजादी
मुझको खलती है।।
|
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शुक्रवार, 14 मार्च 2014
"जब-जब मक्कारी फलती है, आजादी मुझको खलती है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आज की परिस्थितियों को चित्रित करती बहुत प्रभावी रचना...बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंright view.happy holi to you.
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ खलने लगा है अब तो :(
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भाव ।
आजादी से जुड़े पीड़ामयी तथ्यों को सशक्त रूप से प्रस्तुत किया आपकी रचना ने।
जवाब देंहटाएंउत्तम रचना।
जवाब देंहटाएंलोगों की चुप्पी के कारण ये विसंगतियाँ समय के साथ बढ़ीं हैं...
जवाब देंहटाएंExcellent
जवाब देंहटाएं