रहते थे पास में जो, वो दूर हो गये हैं।
मगरूर थे कभी जो, मजबूर हो गये हैं।।
श्रृंगार-ठाठ सारे, करने लगे किनारे,
महलों में रहने वाले, मजदूर हो गये हैं।
मगरूर थे कभी जो, मजबूर हो गये हैं।।
थे जो कभी सरल से, अब बन गये गरल से,
जो थे कभी सलोने, बे-नूर हो गये हैं।
मगरूर थे कभी जो, मजबूर हो गये हैं।।
रहते गुमान में थे. बैठे जो शान से थे,
पर्वत से टूटकर कर वो,सब चूर हो गये हैं।
मगरूर थे कभी जो, मजबूर हो गये हैं।।
सपने हुए सयाने, सच को लगे चिढ़ाने,
अब देखकर हकीकत, काफूर हो गये हैं।
मगरूर थे कभी जो, मजबूर हो गये हैं।।
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रविवार, 4 अक्टूबर 2015
"मगरूर थे कभी जो, मजबूर हो गये हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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