दलगत पचड़े में नहीं, करता हूँ विश्वास।
जनता को जो खुश करे, वो शासक है खास।।
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राजनयिक परदेश के, करें भले ही वाह।
लेकिन अपने देश की, जनता भरती आह।।
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बहुमत की सरकार पर, उठते आज सवाल।
साठ साल के दौर में, हुआ न ऐसा हाल।।
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धीरे-धीरे बीतते, दिवस-महीने-साल।
लेकिन होते जा रहे, बद से बदतर हाल।।
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मँहगाई का देश में, रूप हुआ विकराल।
कैसे खाने को मिले, थाली में अब दाल।।
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हर-हर, घर-घर आ गये, ठगे हुए हैं लोग।
केवल भाषण में मिला, उनको मोहन भोग।।
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बाजारों में हो गयी, फिर से मँहगी प्याज।
देश नीति को देख कर, सहमा हुआ समाज।।
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रहे भले ही मौन हों, बीते हुए वजीर।
लेकिन तब बाजार की, सस्ती थी तहरीर।।
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देख दुर्दशा देश की, होता बहुत मलाल।
व्यापारी खुशहाल हैं, ग्राहक हैं बदहाल।।
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अच्छे दिन आये नहीं, झूठे निकले बोल।
थोथे दावों की खुली, आज ढोल की पोल।।
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नेताओं की बात पर, मत करना विश्वास।
एक समय का कीजिए, दिन में अब उपवास।।
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गुरुवार, 5 नवंबर 2015
दोहे "एक समय का कीजिए, दिन में अब उपवास" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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