नही कार-बँगला, न धन चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ।। दिया एक मन और तन भी दिया है, दशम् द्वार वाला भवन भी दिया है, मैं अपने चमन में अमन चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ।। उगे सुख का सूरज, धरा जगमगाये, फसल खेत में रात-दिन लहलहाये, समय से जो बरसे वो घन चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ।। बजे शंख-घण्टे, नमाजें अदा हों, वतन के मुसाफिर वतन पर फिदा हों, मैं गीतों की गंग-ओ-जमुन चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ।। कलम के पुजारी, कहीं सो न जाना, अलख एकता की हमेशा जगाना, अडिगता-सजगता का प्रण चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ। |
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बुधवार, 16 मार्च 2016
वन्दना "तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ"
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